*सांसदों/विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों के लिए विशेष अदालतों के निर्देशों का ये मतलब नहीं कि मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायल किए जाने वाले मामले सत्र न्यायालय को ट्रांसफर किए जाएं : सुप्रीम कोर्ट*
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को स्पष्ट किया कि मौजूदा और पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बनाने के उसके निर्देशों का यह मतलब नहीं लगाया जा सकता कि भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार मजिस्ट्रेट द्वारा ट्रायल किए जाने वाले मामले सत्र न्यायालय में स्थानांतरित कर दिए जाएं। तदनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा विशेष एमपी / एमएलए मजिस्ट्रेट न्यायालयों में सांसदों /विधायकों के खिलाफ लंबित मामलों को सत्र न्यायालय के स्तर पर स्थानांतरित करने के लिए दिनांक 16.08.2019 को जारी अधिसूचना में हस्तक्षेप किया।
पीठ ने स्पष्ट किया कि उसके निर्देश दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 या अपराधों के ट्रायल के संबंध में किसी अन्य विशेष अधिनियम में निहित अधिकार क्षेत्र के प्रावधानों को बदलने के लिए नहीं थे। कोर्ट ने आदेश में कहा, "इस न्यायालय के निर्देश पूर्व और मौजूदा सासंदों/ विधायकों से जुड़े आपराधिक मामलों को सत्र न्यायालयों या, जैसा भी मामला हो, मजिस्ट्रेट न्यायालयों को सौंपने और आवंटित करने का आदेश देते हैं। यह लागू होने वाले कानून के शासी प्रावधानों के अनुसार होना चाहिए।"
कोर्ट ने कहा,
"परिणामस्वरूप, जहां दंड संहिता के तहत एक मजिस्ट्रेट द्वारा मामला विचारणीय है, मामले को अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट की अदालत को सौंपा/आवंटित किया जाना चाहिए और इस न्यायालय के दिनांक 4 दिसंबर 2018 के आदेश को एक निर्देश के रूप में नहीं माना जा सकता है कि सत्र न्यायालय द्वारा मामले की सुनवाई की आवश्यकता है।" कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि उसका आदेश दिनांक 4.12.2018 यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक जिले में एक सत्र न्यायालय और एक मजिस्ट्रेट न्यायालय को नामित करने के बजाय, उच्च न्यायालयों से अनुरोध किया गया था कि वे पूर्व और मौजूदा सांसदों/ विधायकों से जुड़े आपराधिक मामलों को अधिक से अधिक सत्र न्यायालयों और मजिस्ट्रियल न्यायालय को सौंपें और आवंटित करें जैसा कि प्रत्येक उच्च न्यायालय उपयुक्त और समीचीन समझेंगे।
पीठ ने समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान द्वारा दायर आवेदनों में निर्देश पारित किया, जिन्होंने प्रार्थना की थी कि उनके खिलाफ दायर धोखाधड़ी के मामलों को सीआरपीसी के अनुसार मजिस्ट्रेट अदालतों के समक्ष पेश किया जाए, बजाय इसके कि उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिसूचना के तहत सत्र न्यायालय में स्थानांतरित किया जाए। पीठ ने कहा कि उत्तर प्रदेश राज्य में, इस न्यायालय के दिनांक 4 दिसंबर 2018 के निर्देशों के अनुसार, मजिस्ट्रेटों द्वारा विचारणीय मामलों की सुनवाई के लिए किसी भी मजिस्ट्रियल न्यायालय को विशेष न्यायालयों के रूप में नामित नहीं किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "16 अगस्त 2019 को इलाहाबाद में उच्च न्यायालय द्वारा जारी अधिसूचना इस न्यायालय के आदेश में निहित स्पष्ट निर्देशों के गलत अर्थ पर आधारित है।" इसलिए, न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पूर्व और मौजूदा सांसदों/ विधायकों से जुड़े आपराधिक मामलों को आवश्यकतानुसार सत्र न्यायालयों और मजिस्ट्रेट न्यायालयों को आवंटित करने का आदेश दिया। अदालत ने आगे आदेश दिया, "हम आगे निर्देश देते हैं कि 16 अगस्त 2019 के परिपत्र के मद्देनज़र सत्र न्यायालय के समक्ष लंबित मजिस्ट्रेटों द्वारा विचारणीय मामलों को सक्षम क्षेत्राधिकार के न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। हालांकि, पूरे रिकॉर्ड और कार्यवाही को नामित मजिस्ट्रेट न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाएगा और कार्यवाही उस चरण से शुरू होगी जहां कार्यवाही के हस्तांतरण से पहले पहुंच गई है, जिसके परिणामस्वरूप ट्रायल को नए सिरे से शुरू नहीं करना पड़ेगा।" इससे पहले, आजम खान की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया था कि मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय मामलों को सत्र न्यायालय में स्थानांतरित करना कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है।
उन्होंने निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डाला:
1. अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित एक निर्देश सीआरपीसी द्वारा प्रदत्त वैधानिक अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन में लागू नहीं किया जा सकता है। 2. मजिस्ट्रेट को मामला स्थानांतरित करने के परिणामस्वरूप सत्र न्यायालय के समक्ष अपील करने का अधिकार खो जाता है जैसा कि धारा 374 सीआरपीसी के तहत प्रदान किया गया है। 3. इससे सांसद के तौर पर भेदभाव और मनमानी होती है क्योंकि दूसरे राज्य के सांसद का ट्रायल मजिस्ट्रेट के सामने होता है, जबकि उसी अपराध के लिए यूपी के एक सांसद पर सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदम चलाया जाता है। 4. ऐसा ट्रायल संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अपेक्षित "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" के अनुसार नहीं होगा। सिब्बल ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार 1952 SCR 284, ए आर अंतुले बनाम आर एस नायक के मामलों से अपने तर्कों को पुष्ट किया। सिब्बल ने कहा कि अपील के अधिकार को खोने से ज्यादा उनका जोर समानता के अधिकार के उल्लंघन पर है। सिब्बल ने तर्क दिया कि इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि अपराधों या अपराधियों के एक वर्ग के लिए विशेष अदालतें बनाई जा सकती हैं, लेकिन क्षेत्राधिकार क़ानून द्वारा प्रदत्त होना चाहिए। एमिकस क्यूरी ने मामलों को सत्र न्यायालय में स्थानांतरित करने को उचित ठहराया एमिकस क्यूरी विजय हंसरिया ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमें कहा गया है कि सत्र स्तर पर विशेष न्यायालयों को मजिस्ट्रेटों द्वारा विचारणीय मामलों को संभालने की अनुमति देना अवैध नहीं है। उन्होंने कहा कि 2जी घोटाले के मामलों और कोयला ब्लॉक के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने मामलों को विशेष अदालतों में स्थानांतरित कर दिया था। एमिकस क्यूरी तर्क दिया कि अपील करने का अधिकार खोया नहीं है, क्योंकि अपील सत्र अदालत से उच्च न्यायालय के लिए निहित है। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट के पास कोड के अनुसार विशेष क्षेत्राधिकार नहीं है। इस तर्क के लिए, एएसजी ने धारा 323 सीआरपीसी का हवाला दिया, जिसके अनुसार मजिस्ट्रेट स्वयं सत्र अदालत में मामला स्थानांतरित कर सकता है। इस संबंध में एएसजी ने धारा 228 सीआरपीसी का भी हवाला दिया।
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