"वेश्यावृत्ति अपराध नहीं; वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार", बॉम्बे हाईकोर्ट ने 3 यौनकर्मियों को सुधारक संस्था से रिहा करने का आदेश दिया 26 Sep 2020
बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि वेश्यावृत्ति को इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट, 1956 के तहत अपराध नहीं माना गया है और एक वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार है और उसे उसकी सहमति के बिना हिरासत में नहीं लिया जा सकता है, गुरुवार (24 सितंबर) को सुधारात्मक संस्था से 3 यौनकर्मियों को मुक्त कर दिया। जस्टिस पृथ्वीराज के चव्हाण की एकल खंडपीठ 3 यौनकर्मियों की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने 19.10.2019 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसे उक्त अधिनियम की धारा 17 (2) के तहत महानगर मजिस्ट्रेट, मझगांव ने पारित किया था, साथ ही 22.11.2019 को अपर सत्र न्यायाधीश, डिंडोशी द्वारा 2019 की आपराधिक अपील संख्या 284 को चुनौती दी गई थी, जिसने 19.10.2019 के आदेश को बरकरार रखा।
संक्षेप में तथ्य शिकायतकर्ता- पुलिस कॉन्स्टेबल रूपेश रामचंद्र मोरे की गुप्त सूचना पर एक जाल (महिला तस्करों को पकड़ने के लिए) बिछाया गया था। मोरे को निजामुद्दीन खान नाम के एक व्यक्ति ने सूचना दी थी कि एक दलाल मलाड के एक गेस्ट हाउस में वेश्यावृत्ति के लिए महिलाओं को भेजता है। पीड़ित को एक "यात्री गेस्ट हाउस" के कमरा नंबर 7 से हिरासत में लिया गया। आरोपी और अन्य दो पीड़ितों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें हिरासत में लिया गया था। 13.09.2019 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने पीड़ित (ए), (बी), और (सी) को पेश किया गया।
विद्वान मजिस्ट्रेट ने, अन्य बातों के साथ, परिविक्षा अधिकारी से इतिहास, चरित्र, और पीड़ित (ए), (बी), और (सी) के रिश्तेदारों की उपयुक्तता के संबंध में रिपोर्ट मांगी थी। पीड़ित (ए), (बी), और (सी) को नवजीवन महिला वस्तिगृह, देवनार, मुंबई को मध्यवर्ती हिरासत के लिए दिया गया थी। मजिस्ट्रेट ने यह भी सोचा कि एनजीओ, जस्टिस एंड केयर को "नवजीवन महिला वस्तिगृह" में रहने के दौरान पीड़ितों (ए), (बी), और (सी) को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए।
इसके अलावा, मजिस्ट्रेट ने पीड़ितों की कस्टडी उनकी माताओं को देने से इनकार कर दिया क्योंकि पीड़ितों को 20 से 22 वर्ष की आयु में यौन कार्य में शामिल पाया गया था। जांच अधिकारी, संबंधित पुलिस कर्मियों की रिपोर्ट के साथ-साथ मजिस्ट्रेट की पूछताछ में यह पता चला कि पीड़ित (ए), (बी), और (सी) "बेड़िया" समुदाय की हैं। उस समुदाय में यह प्रथा प्रचलित है कि लड़की को, यौवन प्राप्ति के बाद वेश्यावृत्ति के लिए भेज दिया जाता है। पीड़ितों के माता-पिता इस बात से अवगत थे कि पीड़ित वेश्यावृत्ति में लिप्त हैं, जिसका अर्थ है कि, माता-पिता स्वयं अपनी बेटियों को पेशे के रूप में वेश्यावृत्ति में लिप्त होने की अनुमति दे रहे थे और इसलिए, मजिस्ट्रेट ने पाया कि यह सुरक्षित नहीं होगा पीड़ितों की कस्टडी से उनकी माताओं को दी जाए।
सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और अधिनियम की धारा 17 (1), (2), (3), (4), और (6) के अध्ययन के बाद, पीड़ितों (ए), (बी), और (सी) को 19 अक्टूबर 2019 से एक वर्ष के लिए हिरासत में भेज दिया गया था। पीड़ितों को उन्हीं पसंद के अनुसार में देखभाल, संरक्षण, आश्रय, और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए एक वर्ष के लिए "नारी निकेतन प्रयाग वस्तिगृह, फुल्ताबाद, इलाहाबाद, यूपी, या उत्तर प्रदेश के किसी भी राज्य संचालित संस्था में भेजने का निर्देश दिया किया गया था। उक्त आदेश को डिंडोरी में सत्र न्यायाधीश की अदालत में 2019 की अपील संख्या 284 के माध्यम से चुनौती दी गई। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 19.10.2019 को मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश की पुष्टि की और अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय अदालत ने कहा कि चूंकि पीड़ितों पर, विद्वान वकील के अनुसार, मुकदमा नहीं चलाया जा रहा है, इसलिए उन्हें नवजीवन महिला वास्तिगृह, देवनार, मुंबई या किसी अन्य संस्था की हिरासत में रखने का कोई सवाल ही नहीं है। न्यायालय ने कहा कि उक्त अधिनियम [इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट, 1956] मजिस्ट्रेट को, कानूनी की उचित प्रक्रिया का पालन करने के बाद इस प्रभाव में किसी अंतिम आदेश के बिना, पीड़ितों को 3 सप्ताह से अधिक की अवधि के लिए अभिरक्षा में रखने का अधिकार नहीं देता है। न्यायालय ने तब कहा कि अधिनियम की धारा 17 (4) में प्रावधान है कि जांच पूरी होने के बाद, यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है, तो वह उप-धारा (5) के प्रावधानों के अधीन एक आदेश दे सकता है कि पीड़ितों को ऐसी अवधि के लिए एक संरक्षात्मक आवास में हिरासत में लिया जाए, वह एक वर्ष से कम नहीं हो और तीन वर्ष से अधिक नहीं हो, जैसा कि आदेश में निर्दिष्ट किया जा सकता है, जिसके लिए मजिस्ट्रेट लिखित कारण देगा। यह नोट करना उचित है कि न्यायालय ने देखा कि अधिनियम की धारा 17 (4) के प्रावधान उपधारा (5) के प्रावधान के अधीन हैं, जो प्रदान करता है कि जांच कम से कम 5 व्यक्तियों के पैनल द्वारा आयोजित की जाएगी, जिन्हें उक्त उपधारा (5) के अनुरूप नियुक्त किया जाए। इस मामले में कानून के तहत तय की गई कोई जांच नहीं की गई। न्यायालय ने यह भी कहा कि धारा 17 (4) का तात्पर्य है कि उक्त धारा के तहत केवल वही आदेश पारित किया जा सकता है, जो कि अधिनियम की धारा -17 की उपधारा (5) के प्रावधान के अधीन हो। उल्लेखनीय है कि उप-धारा (5) का विचार है कि उप-धारा (2) के तहत कार्य का निर्वहन करते समय, मजिस्ट्रेट को, इस संबंध में उनकी सहायता करने के लिए, 5 सम्माननीय व्यक्तियों के पैनल को बुलाना होगा, जिनमें से 3 जहां भी कार्यरत हों, महिलाएं हो। इसलिए, यह सुरक्षित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि "हो सकता है" शब्द का उपयोग करते समय विधायिका, इसे एक अनिवार्य अर्थ में उपयोग करना चाहती थी अन्यथा उन्होंने धारा 17 (2) से 17 (5) के तहत शक्तियों के प्रयोग को अधीन नहीं किया होता। कोर्ट ने कुमारी संगीता बनाम दिल्ली राज्य व अन्य 1996, क्रिमिनल रिपोर्टर, P-129, (दिल्ली) के निर्णय पर भरोसा किया। न्यायालय ने विशेष रूप से देखा, "कानून के तहत कोई प्रावधान नहीं है, जो वेश्यावृत्ति को एक आपराधिक अपराध बनाता है या किसी व्यक्ति को दंडित करता है क्योंकि वह वेश्यावृत्ति में लिप्त है। अधिनियम के तहत दंडनीय यह है कि व्यावसायिक उद्देश्य के लिए या रोटी कमाने के लिए किसी व्यक्ति का यौन शोषण या दुरुपयोग किया जाए, सिवाय इसके कि किसी व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान जैसा कि धारा 7 में प्रदान किया गया है, पर वेश्यावृत्ति करते, या किसी व्यक्ति उक्त अधिनियम की धारा 8 के मद्देनजर, किसी अन्य व्यक्ति को ललचाते या छेड़खानी करते पाया जाए .. तो रिकॉर्ड से प्रकट नहीं होता है और न ही कोई आरोप है कि पीड़ित - याचिकाकर्ता वेश्यावृत्ति में लिप्त थीं।" न्यायालय ने कहा कि रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि याचिकाकर्ता वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को ललचा रही थीं और न ही यह दिखाने के लिए कोई सामग्री थी कि वे वेश्यालय चला रही थीं। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा, "ऐसा लगता है कि विद्वान मजिस्ट्रेट को आदेश को पारित करते हुए इस तथ्य के प्रभाव में आ गए कि याचिकाकर्ता एक विशेष जाति की हैं। यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि याचिकाकर्ता पीड़ित वयस्क हैं और इसलिए, उन्हें अपनी पंसद के स्थान पर निवास करने का अधिकार है, पूरे भारत के स्वतंत्र रूप से घूमने और अपने स्वयं के व्यवसाय का चयन करने के का अधिकार है, जैसा कि संविधान के मौलिक अधिकारों के भाग III में निहित है।" विद्वान मजिस्ट्रेट, न्यायालय ने नोट किया, को उक्त आदेश को पारित करने से पहले, पीड़ितों की इच्छा और सहमति पर विचार करना चाहिए था। इसके बाद, कोर्ट ने आदेश दिया, महानगर मजिस्ट्रेट, मझगांव द्वारा दिनांक 19.10.2019 को पारित आदेश और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, डिंडोशी द्वारा 22.11.2019 को पारित आदेश को रद्द किया जाता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पीड़ितों को उनकी इच्छा के विपरीत अनावश्यक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है और उन्हें सुधारात्मक संस्थान में रहने के लिए कहा जाना चाहिए। रिकॉर्ड पर कोई सामग्री नहीं है जो यह बताती है कि पीड़ित किसी भी विकलांगता या किसी भी बीमारी से पीड़ित हैं ताकि उचित प्रतिबंध लगाए जा सके। इसके अलावा, यह भी स्पष्ट किया गया कि पुलिस का यह मामला भी नहीं था कि पीड़ितों को मुक्त करने से समाज को कुछ खतरा होगा। कोर्ट ने कहा, "लगभग एक वर्ष से पीड़ितों को उनकी इच्छा के खिलाफ सुधारात्मक गृह में हिरासत में रखा गया है और इसलिए, यहां बताए गए कारणों के लिए, उन्हें रिहा करने की आवश्यकता है।" उल्लेखनीय है कि कि एक वेश्यालय के मालिक द्वारा दायर एक अग्रिम जमानत को खारिज करते हुए, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि वाणिज्यिक यौनकर्म की लिए शोषित यौनकर्मी पीड़ित हैं और उन्हें इम्मोरल ट्रैफिक(प्रिवेंशन) एक्ट के तहत गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए, जब तक रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से यह पता नहीं चलता कि वे अपराध में सह-साजिशकर्ता के रूप में शामिल थीं। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (21 सितंबर) को केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे महामारी के कारण संकट से जूझ रहे यौनकर्मियों को भोजन और वित्तीय सहायता प्रदान करें। जस्टिस एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने केंद्र और राज्य सरकार से आग्रह किया कि वे पहचान के प्रमाण पर जोर दिए बिना राशन, मौद्रिक सहायता के साथ-साथ मास्क, साबुन और सैनिटाइजर के रूप में उन्हें राहत प्रदान करने पर तत्काल विचार करें।
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