मद्रास हाई कोर्ट के इस जजमेंट को माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ओवर रुल कर दिया है 13 मई 2020
धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार सुप्रीम कोर्ट की सीमा अवधि में की गई बढ़ोतरी के आदेश से प्रभावित नहीं होताः मद्रास हाईकोर्ट 9 May 2020
मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में माना है कि COVID-19 के मद्देनजर मामलों को दायर करने की सीमा अवधि में बढ़ोतरी का सुप्रीम कोर्ट का सामान्य फैसला, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत किसी अभियुक्त के डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा। जस्टिस जीआर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा कि पुलिस अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का फायदा उठाकर अतिरिक्त अवधि का दावा नहीं कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की व्याख्या की अनुमति देना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को विफल करेगा। जस्टिस स्वामीनाथन ने अपने आदेश में कहा, "व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा। जब तक सीआरपीसी की धारा 167 (2) की भाषा बनी हुई है, तब तक मुझे यह मानना होगा कि याचिकाकर्ता को अनिवार्य जमानत से वंचित करना निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का नेक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति अपने बहुमूल्य अधिकारों से वंचित न रहे। लेकिन, यदि मैं प्रतिवादी पुलिस की याचिका स्वीकार करता हूं तो माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश, जिसका उद्देश्य अधिकारों की सुरक्षा और संरक्षण है, के जरिए, उस मूल्यवान अधिकार को छीन लिया जाएगा, जिसे अभियुक्तों को प्रदान किया गया है।" हाईकोर्ट ने यह आदेश सेतु नामक एक अभियुक्त की जमानत याचिका पर पारित किया,जिसे 19 जनवरी 2020 को लूट के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 397,धारा 392 के साथ पढ़ें, के तहत अपराध दर्ज किया गया था। गिरफ्तारी के बाद से ही वह हिरासत में था। आईपीसी की धारा 392 दो तरह की लूट से संबंधित है; सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच राजमार्ग पर लूट, और अन्य प्रकार की लूट। पहले मामले में कारावास का दंड है, जो 14 साल तक का हो सकता है। सामान्य लूट के मामले में दस साल तक की सश्रम कारावास की सजा दी जा सकती है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को सामान्य लूट की श्रेणी में रखा गया है तो वह रिमांड की तारीख से 60 वें दिन की समाप्ति पर डिफॉल्ट जमानत मांग सकता है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को अधिक संगीन माना गया है तो तो यह प्रक्रिया 90 दिनों की समाप्ति के बाद लागू होगी। अभियुक्त की रिमांड खत्म होने के बाद का 60 वां दिन 19 मार्च, 2020 को पड़ा। 90 वां दिन 18 अप्रैल 2020 को पड़ा। किसी भी मामले में, पुलिस अंतिम रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई, यहां तक कि जमानत की सुनवाई की तारीख पर भी नहीं कर पाई। इसलिए, अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 167 (2) के अनुसार, डिफॉल्ट जमानत मांगी। विरोध में, अभियोजन पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 23 मार्च को पारित आदेश पर भरोसा करने की मांग की, जिसके तहत अदालतों और न्यायाधिकरणों के समक्ष मामले दायर करने की सीमा अवधि बढ़ा दी गई, यह फैसला 15 मार्च से शुरु होकर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नया आदेश दिए जाने तक प्रभावी है। 6 मई को सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और नेगोशिएशन इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत एक और आदेश पारित किया और सीमा अवधि बढ़ा दी गई। इसलिए, हाईकोर्ट के समक्ष प्रश्न था कि क्या सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा अवधि भी बढ़ाएगा। मुद्दे के निस्तारण के लिए, जस्टिस स्वामीनाथन ने 'सीमा' शब्द के दायरे की जांच की। परिसीमा अधिनियम की धारा 2 (जे) का उल्लेख करते हुए, यह देखा गया कि "सीमा की अवधि" किसी भी मुकदमे में,अपील या आवेदन के लिए निर्धारित समयावधि से संबंधित है। सीमा अवधि की समाप्ति के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि सीमा अधिनियम की धारा 5 या अन्य प्रासंगिक प्रावधान के तहत देरी क्षम्य हो। इस संदर्भ में, जज ने जांच की कि क्या धारा 167 (2) को जांच के लिए सीमा की किसी भी अवधि के रूप में माना जा सकता है। इसका दो आधारों पर नकारात्मक जवाब दिया गया: -धारा 167 (2) के तहत, निर्धारित अवधि के बाद भी अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने पर रोक नहीं है। -धारा 167 (2) के तहत अवधि समाप्त होने के बाद डिफॉल्ट जमानत के अभियुक्तों के अधिकारों का अर्जन होता है। आदेश में कहा गया है: "ध्यान देने की बात यह है कि सीमा की अवधि की समाप्त के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने परोपकारवश, आदेश दिया है कि सीमा की अवधि लॉकडाउन की अवधि में विस्तारित होगी। इस प्रकार, मुकदमेबाजों अधिकारों खत्म नहीं होगा। लेकिन, अंतिम रिपोर्ट दाखिल करना बिलकुल अलग मामला है।" कोर्ट ने कहा, सीआरपीसी की धारा 167 को अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा की अवधि के रूप में नहीं माना जा सकता है। कोर्ट ने उल्लेख किया कि अचपाल बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि धारा 167 (2) के तहत अवधि की समाप्ति पर, अभियुक्त के पक्ष में डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए एक अपरिहार्य अधिकार आ जाता है। कोर्ट ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश- टैक्सेशन एंड अदर लॉज (रिलेक्सेशन ऑफ सर्टेन प्रॉविजन्स) ऑर्डिनेंस, 2020- लाकर विभिन्न कराधान और नियामक कानूनों के तहत फाइलिंग और शिकायतों की अवधि बढ़ाने का आदेश दिया है। इसके बाद भी कार्यकारी ने धारा 167 (2) में कोई संशोधन करना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान भी अपराध हो रहे थे, और गिरफ्तारियां की जा रही थीं। इसलिए सीमा के सामान्य विस्तार को अंतिम रिपोर्ट दर्ज नहीं करने के कारण के रूप में उद्धृत नहीं किया जा सकता है। यह नोट किया गया कि धारा 167 (2 ए) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में कार्यकारी मजिस्ट्रेट को भी हिरासत का आदेश पारित करने का अधिकार दिया गया है। यूएपीए, एनडीपीएस मामलों पर व्याख्या लागू नहीं हालांकि, कोर्ट ने कहा कि उसके द्वारा दी गई व्याख्या यूएपीए, एनडीपीएस आदि विशेष कानूनों के तहत दर्ज मामलों पर लागू नहीं होगी। आदेश में कहा गया, "यह आदेश कुछ विशेष अपराधों जैसे कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 और एनडीपीएस अधिनियम, 1985 के तहत दर्ज अपराधों के मामले में लागू नहीं होगा।" याचिकाकर्ता को निम्न शर्तों के साथ डिफॉल्ट जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया गया- -याचिकाकर्ता दो जमानतदारों के साथ 10,000/ रूपए का एक बांड निष्पादित करेगा। -याचिकाकर्ता को निर्देशित किया जाता है कि वह पूछताछ की आवश्यकता होने पर पुलिस के समक्ष पेश होगा। -उपरोक्त शर्तों में से किसी का भी उल्लंघन होने पर, मजिस्ट्रेट/ट्रायल कोर्ट, याचिकाकर्ता के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का हकदार है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह आदेश राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) 15 SCC 67 में SC द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार, याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी या दोबारा गिरफ्तारी पर रोक नहीं लगाती है। केस का विवरण टाइटल: सेतु बनाम राज्य केस नंबर: Crl OP (MD)No 5291/2020 बेंच: जस्टिस जी आर स्वामीनाथन प्रतिनिधित्व: केएम करुणाकरन, अभियुक्तों के लिए, ए रॉबिन्सन, अभियोजन के लिए।
धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार सुप्रीम कोर्ट की सीमा अवधि में की गई बढ़ोतरी के आदेश से प्रभावित नहीं होताः मद्रास हाईकोर्ट 9 May 2020
मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में माना है कि COVID-19 के मद्देनजर मामलों को दायर करने की सीमा अवधि में बढ़ोतरी का सुप्रीम कोर्ट का सामान्य फैसला, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत किसी अभियुक्त के डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा। जस्टिस जीआर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा कि पुलिस अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का फायदा उठाकर अतिरिक्त अवधि का दावा नहीं कर सकती है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की व्याख्या की अनुमति देना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को विफल करेगा। जस्टिस स्वामीनाथन ने अपने आदेश में कहा, "व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा। जब तक सीआरपीसी की धारा 167 (2) की भाषा बनी हुई है, तब तक मुझे यह मानना होगा कि याचिकाकर्ता को अनिवार्य जमानत से वंचित करना निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का नेक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति अपने बहुमूल्य अधिकारों से वंचित न रहे। लेकिन, यदि मैं प्रतिवादी पुलिस की याचिका स्वीकार करता हूं तो माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश, जिसका उद्देश्य अधिकारों की सुरक्षा और संरक्षण है, के जरिए, उस मूल्यवान अधिकार को छीन लिया जाएगा, जिसे अभियुक्तों को प्रदान किया गया है।" हाईकोर्ट ने यह आदेश सेतु नामक एक अभियुक्त की जमानत याचिका पर पारित किया,जिसे 19 जनवरी 2020 को लूट के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 397,धारा 392 के साथ पढ़ें, के तहत अपराध दर्ज किया गया था। गिरफ्तारी के बाद से ही वह हिरासत में था। आईपीसी की धारा 392 दो तरह की लूट से संबंधित है; सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच राजमार्ग पर लूट, और अन्य प्रकार की लूट। पहले मामले में कारावास का दंड है, जो 14 साल तक का हो सकता है। सामान्य लूट के मामले में दस साल तक की सश्रम कारावास की सजा दी जा सकती है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को सामान्य लूट की श्रेणी में रखा गया है तो वह रिमांड की तारीख से 60 वें दिन की समाप्ति पर डिफॉल्ट जमानत मांग सकता है। यदि याचिकाकर्ता के मामले को अधिक संगीन माना गया है तो तो यह प्रक्रिया 90 दिनों की समाप्ति के बाद लागू होगी। अभियुक्त की रिमांड खत्म होने के बाद का 60 वां दिन 19 मार्च, 2020 को पड़ा। 90 वां दिन 18 अप्रैल 2020 को पड़ा। किसी भी मामले में, पुलिस अंतिम रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई, यहां तक कि जमानत की सुनवाई की तारीख पर भी नहीं कर पाई। इसलिए, अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 167 (2) के अनुसार, डिफॉल्ट जमानत मांगी। विरोध में, अभियोजन पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 23 मार्च को पारित आदेश पर भरोसा करने की मांग की, जिसके तहत अदालतों और न्यायाधिकरणों के समक्ष मामले दायर करने की सीमा अवधि बढ़ा दी गई, यह फैसला 15 मार्च से शुरु होकर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नया आदेश दिए जाने तक प्रभावी है। 6 मई को सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और नेगोशिएशन इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत एक और आदेश पारित किया और सीमा अवधि बढ़ा दी गई। इसलिए, हाईकोर्ट के समक्ष प्रश्न था कि क्या सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा अवधि भी बढ़ाएगा। मुद्दे के निस्तारण के लिए, जस्टिस स्वामीनाथन ने 'सीमा' शब्द के दायरे की जांच की। परिसीमा अधिनियम की धारा 2 (जे) का उल्लेख करते हुए, यह देखा गया कि "सीमा की अवधि" किसी भी मुकदमे में,अपील या आवेदन के लिए निर्धारित समयावधि से संबंधित है। सीमा अवधि की समाप्ति के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि सीमा अधिनियम की धारा 5 या अन्य प्रासंगिक प्रावधान के तहत देरी क्षम्य हो। इस संदर्भ में, जज ने जांच की कि क्या धारा 167 (2) को जांच के लिए सीमा की किसी भी अवधि के रूप में माना जा सकता है। इसका दो आधारों पर नकारात्मक जवाब दिया गया: -धारा 167 (2) के तहत, निर्धारित अवधि के बाद भी अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने पर रोक नहीं है। -धारा 167 (2) के तहत अवधि समाप्त होने के बाद डिफॉल्ट जमानत के अभियुक्तों के अधिकारों का अर्जन होता है। आदेश में कहा गया है: "ध्यान देने की बात यह है कि सीमा की अवधि की समाप्त के बाद, आवेदन या अपील को सीधे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने परोपकारवश, आदेश दिया है कि सीमा की अवधि लॉकडाउन की अवधि में विस्तारित होगी। इस प्रकार, मुकदमेबाजों अधिकारों खत्म नहीं होगा। लेकिन, अंतिम रिपोर्ट दाखिल करना बिलकुल अलग मामला है।" कोर्ट ने कहा, सीआरपीसी की धारा 167 को अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की सीमा की अवधि के रूप में नहीं माना जा सकता है। कोर्ट ने उल्लेख किया कि अचपाल बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि धारा 167 (2) के तहत अवधि की समाप्ति पर, अभियुक्त के पक्ष में डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए एक अपरिहार्य अधिकार आ जाता है। कोर्ट ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश- टैक्सेशन एंड अदर लॉज (रिलेक्सेशन ऑफ सर्टेन प्रॉविजन्स) ऑर्डिनेंस, 2020- लाकर विभिन्न कराधान और नियामक कानूनों के तहत फाइलिंग और शिकायतों की अवधि बढ़ाने का आदेश दिया है। इसके बाद भी कार्यकारी ने धारा 167 (2) में कोई संशोधन करना जरूरी नहीं समझा। कोर्ट ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान भी अपराध हो रहे थे, और गिरफ्तारियां की जा रही थीं। इसलिए सीमा के सामान्य विस्तार को अंतिम रिपोर्ट दर्ज नहीं करने के कारण के रूप में उद्धृत नहीं किया जा सकता है। यह नोट किया गया कि धारा 167 (2 ए) के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुपस्थिति में कार्यकारी मजिस्ट्रेट को भी हिरासत का आदेश पारित करने का अधिकार दिया गया है। यूएपीए, एनडीपीएस मामलों पर व्याख्या लागू नहीं हालांकि, कोर्ट ने कहा कि उसके द्वारा दी गई व्याख्या यूएपीए, एनडीपीएस आदि विशेष कानूनों के तहत दर्ज मामलों पर लागू नहीं होगी। आदेश में कहा गया, "यह आदेश कुछ विशेष अपराधों जैसे कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 और एनडीपीएस अधिनियम, 1985 के तहत दर्ज अपराधों के मामले में लागू नहीं होगा।" याचिकाकर्ता को निम्न शर्तों के साथ डिफॉल्ट जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया गया- -याचिकाकर्ता दो जमानतदारों के साथ 10,000/ रूपए का एक बांड निष्पादित करेगा। -याचिकाकर्ता को निर्देशित किया जाता है कि वह पूछताछ की आवश्यकता होने पर पुलिस के समक्ष पेश होगा। -उपरोक्त शर्तों में से किसी का भी उल्लंघन होने पर, मजिस्ट्रेट/ट्रायल कोर्ट, याचिकाकर्ता के खिलाफ उचित कार्रवाई करने का हकदार है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह आदेश राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) 15 SCC 67 में SC द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार, याचिकाकर्ता की गिरफ्तारी या दोबारा गिरफ्तारी पर रोक नहीं लगाती है। केस का विवरण टाइटल: सेतु बनाम राज्य केस नंबर: Crl OP (MD)No 5291/2020 बेंच: जस्टिस जी आर स्वामीनाथन प्रतिनिधित्व: केएम करुणाकरन, अभियुक्तों के लिए, ए रॉबिन्सन, अभियोजन के लिए।
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश का फायदा उठाकर डिफॉल्ट बेल का दावा नहीं किया जा सकता हैः मद्रास हाईकोर्ट की पुरानी राय के विपरीत सिंगल जज बेंच का नया आदेश 13 May 2020
मद्रास हाईकोर्ट की एक सिंगल जज बेंच ने, डिफॉल्ट जमानत के मुद्दे पर पिछले सप्ताह दिए गए एक फैसले से विपरीत विचार रखते हुए मंगलवार को कहा कि आरोपी सुप्रीम कोर्ट के सीमा अवधि बढ़ाने के आदेश का लाभ उठाते हुए 'डिफॉल्ट जमानत' का दावा नहीं कर सकते। जस्टिस जी जयचंद्रन की पीठ में कहा कि, सुप्रीम कोर्ट का 23 मार्च का सीमा अवधि विस्तार का आदेश, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत निर्दिष्ट जांच की अवधि पर भी लागू होता है। आदेश में कहा गया है कि जांच एजेंसी की मूवमेंट पर रोक लगी हुई, अभियुक्त ऐसी स्थिति का अनुचित लाभ नहीं उठा सकते हैं। Also Read - व्हाट्सएप ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, RBI की सहमति के बिना भारत में पेमेंट बिज़नेस शुरू नहीं करेंगे बेंच ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग करके न्यायसंगत आदेश पारित किया है। जांच एजेंसी की गतिविधियों में रुकावट के कारण जांच पूरी होने में हुई देर का डिफॉल्ट जमानत की मांग कर रहे आरोपी अनुचित लाभ नहीं उठा सकते हैं।" अनुच्छेद 21 के तहत दिया गया स्वतंत्रता का अधिकार प्रतिबंधों के अधीन है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी है। याचिकाकर्ता के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को कानून की उचित प्रक्रिया के जरिए ही प्रतिबंधित किया जाता है।" Also Read - कार्ति चिदंबरम को राहत, सुप्रीम कोर्ट ने विदेश यात्रा के लिए रजिस्ट्री में जमा 10 करोड़ रुपये वापस लेने की अनुमति दी कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश धारा 167 (2) के तहत निर्धारित जांच के समय पर 'ग्रहण' लगा देगा, "न तो धारा 167 (2) और न ही अनुच्छेद 21 आरोपी को निर्बाध अधिकार प्रदान करती है। सुप्रीम कोर्ट ने असाधारण परिस्थिति में अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त असाधारण शक्ति का प्रयोग करके सामान्य सीमा कानून और अन्य विशेष कानून के तहत निर्धारित सीमा अवधि का विस्तार किया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने सीमा अवधि को निर्धारित करने वाले सभी प्रावधानों पर अगले आदेश तक के लिए ग्रहण लगा दिया है। निस्संदेह, इसने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय पर भी ग्रहण लगाया है।" जस्टिस जयचंद्रन ने कहा कि यह मानना कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की समयावधि पर नहीं लागू होता है, सुप्रीम कोर्ट के उपहास जैसा है। जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने विपरीत विचार व्यक्त किया था 8 मई को दिए एक आदेश में जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने डिफॉल्ट जमानत के मसले पर अलहदा विचार दिया था। उन्होंने 23 मार्च के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की व्याख्या करते हुए कहा था कि यह आदेश सीमा अधिनियम, 1963 के तहत केवल मामले दर्ज करने की सीमा अवधि पर लागू होता है। जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने कहा था कि धारा 167 (2) का प्रयोग अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने पर सीमा अवधि लगाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि निर्धारित अवधि के भीतर अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर पाने का एकमात्र नतीजा अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करना होता है। कोर्ट ने 'सेत्तु बनाम राज्य' के मामले में कहा था कि जांच एजेंसी धारा 167 (2) के तहत निर्धारित अवधि के बाद भी अंतिम रिपोर्ट दाखिल कर सकती है। इस राय से अलग राय रखते हुए जस्टिस जयचंद्रन ने कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 जांच एजेंसी को निर्धारित समय के भीतर जांच पूरी करने का आदेश देती है। इस रोशनी में यह माना गया कि आदेश जांच पर भी लागू होता है। "सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना पूर्ण न्याय करना है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि हुए कि सीमा निर्धारण के लिए कई कानून हैं, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सीमा के सामान्य कानून या विशेष कानूनों के तहत निर्धारित सीमा की अवधि को अगले आदेश तक बढ़ाया जाएगा। इसलिए यह उल्लेख करना अनावश्यक है कि धारा 167 के तहत जांच के लिए भी सीमा बढ़ाई गई है।" जस्टिस जयचंद्रन ने कहा कि जस्टिस स्वामीनाथन ने सुप्रीम कोर्ट 23 मार्च 2020 के आदेश की गलत व्याख्या की है और यह सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के विपरीत है। "विद्वान जज ने सुप्रीम कोर्ट 23 मार्च 2020 के आदेश की गलत व्याख्या की है। 06 मई 2020 का स्पष्टीकरण आदेश पुराने आदेश के दायरे को को किसी प्रकार से सीमित या तरल नहीं करता है। चूंकि आदेश याचिकाकर्ता के विद्वान वकील द्वारा भरोसा किया गया आदेश माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के विपरीत है, इसलिए, यह बाध्यकारी नहीं है।" उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा था कि सुप्रीम कोर्ट का सीमा विस्तार का आदेश डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा। उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस आलोक कुमार वर्मा और जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने एक जैसे ही विचार व्यक्त किए थे। केस का विवरण टाइटल: एस कासी बनाम द स्टेट केस नंबर: Crl OP(MD) No. 5296/2020 कोरम: जस्टिस जी जयचंद्रन प्रतिनिधित्व: एडवोकेट एस महेंद्रपति (आरोपी के लिए); एस चंद्रशेखर, अतिरिक्त लोक अभियोजक।
https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/no-default-bail-claiming-benefit-of-sc-order-extending-limitation-single-bench-of-madras-hc-differs-from-earlier-judgment-156695
https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/no-default-bail-claiming-benefit-of-sc-order-extending-limitation-single-bench-of-madras-hc-differs-from-earlier-judgment-156695
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