Thursday, 16 October 2025

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह फैसला दिया कि यदि किसी हिंदू पुरुष ने वसीयत (Will) बनाई है, जो अदालत द्वारा वैध घोषित की जा चुकी है और जिसे प्रोबेट (Probate) भी मिल चुका है, तो राज्य सरकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 29 के तहत एस्कीट (Escheat) के सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकती। यह फैसला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस एस.सी. शर्मा की खंडपीठ ने दिया। मामला खेतीड़ी (राजस्थान) के राजा बहादुर सरदार सिंह की वसीयत से जुड़ा है, जिनका निधन 1987 में हुआ था। वसीयत (दिनांक 30 अक्टूबर, 1985) के अनुसार, उनकी सारी संपत्ति “खेतीड़ी ट्रस्ट” नामक एक लोकहितकारी चैरिटेबल ट्रस्ट को दी जानी थी।


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S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए 

16 Sept 2025  CrPCC की धारा 223 (अब BNSS की धारा 243) की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां एक ही लेन-देन से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त शामिल हों, वहां संयुक्त सुनवाई स्वीकार्य है। अलग सुनवाई तभी उचित होगी जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य अलग-अलग और पृथक करने योग्य हों। न्यायालय ने संयुक्त सुनवाई के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव रखे:- 

(i) CrPC की धारा 218 के अंतर्गत अलग सुनवाई का नियम है। संयुक्त सुनवाई की अनुमति तब दी जा सकती है, जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या CrPC की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हों। हालांकि, तब भी यह न्यायिक विवेकाधिकार का विषय है। 

(ii) संयुक्त या अलग सुनवाई आयोजित करने का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए। 

(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बिंदु हैं: क्या संयुक्त सुनवाई से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी या बर्बादी होगी? 

(iv) एक मुकदमे में दर्ज साक्ष्य को दूसरे मुकदमे में शामिल नहीं किया जा सकता, जिससे मुकदमे के दो हिस्सों में विभाजित होने पर गंभीर प्रक्रियात्मक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। 

 (v) दोषसिद्धि या बरी करने के आदेश को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि संयुक्त या पृथक सुनवाई संभव है। हस्तक्षेप तभी उचित है जब पूर्वाग्रह या न्याय का हनन दर्शाया गया हो। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चलाने के निर्देश देने वाले निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसमें कथित तौर पर छह लोग मारे गए थे। खान पर अन्य सह-आरोपियों के साथ इसी लेनदेन से उत्पन्न हिंसा को कथित रूप से भड़काने का मामला दर्ज किया गया। 

 हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि खान के मामले में अलग से मुकदमा चलाने के ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखने में हाईकोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का तर्क त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं है, साक्ष्य अविभाज्य हैं और खान के प्रति कोई पूर्वाग्रह प्रदर्शित नहीं किया गया, जिससे अलगाव को उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों तो CrPC की धारा 223 के तहत संयुक्त मुकदमा उचित है, क्योंकि एकत्रित सामग्री और साक्ष्य एक ही कथित घटना से संबंधित हैं। 

 खंडपीठ ने कहा, "मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत सह-अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों के समान हैं। अलग-अलग मुकदमों में अनिवार्य रूप से उन्हीं गवाहों को फिर से बुलाना शामिल होगा, जिसके परिणामस्वरूप दोहराव, देरी और असंगत निष्कर्षों का जोखिम होगा। हाईकोर्ट ने अलगाव के आदेश की पुष्टि करते हुए इन परिणामों को समझने में विफल रहा और तथ्यात्मक परिस्थितियों के ऐसे अलगाव को उचित ठहराए जाने का मूल्यांकन किए बिना खुद को CrPC की धारा 223 की विवेकाधीन भाषा तक सीमित कर लिया। इसलिए हम मानते हैं कि बिना किसी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त औचित्य के अपीलकर्ता के मुकदमे को अलग करना कानून की दृष्टि से अस्थिर है। अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अपीलकर्ता के अधिकार का उल्लंघन है।" 

Cause Title: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA


Wednesday, 15 October 2025

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

  11 Sept 2025 सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करते समय शिकायत की सत्यता या विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है; यदि शिकायत में प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने कहा, "यदि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है तो FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है, पुलिस को उक्त सूचना की सत्यता और विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।" अदालत ने कहा कि रमेश कुमारी बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2006) 2 एससीसी 677 में यह निर्धारित किया गया कि "सूचना की सत्यता या विश्वसनीयता एफआईआर दर्ज करने के लिए पूर्व शर्त नहीं है।" जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त नीरज कुमार और इंस्पेक्टर विनोद कुमार पांडे के खिलाफ FIR दर्ज करने के दिल्ली हाईकोर्ट का निर्देश बरकरार रखते हुए ये टिप्पणियां कीं। यह निर्देश वर्ष 2000 में CBI में प्रतिनियुक्ति के दौरान धमकाने, रिकॉर्ड में हेराफेरी और जालसाजी के आरोपों के बाद दिया गया था।


सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया

सेल एग्रीमेंट सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी से संपत्ति का स्वामित्व नहीं मिलेगा: सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया 

सुप्रीम कोर्ट ने पुनः पुष्टि की कि रजिस्टर्ड विक्रय पत्र के बिना अचल संपत्ति का स्वामित्व हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय रद्द कर दिया, जिसमें निचली अदालत के उस आदेश की पुष्टि की गई। इसमें वादी के पक्ष में हस्तांतरण को मान्य करने वाला कोई रजिस्टर्ड विक्रय पत्र निष्पादित न होने के बावजूद, वाद में कब्ज़ा, अनिवार्य निषेधाज्ञा और घोषणा का आदेश दिया गया। 

Cause Title: RAMESH CHAND (D) THR. LRS. VERSUS SURESH CHAND AND ANR.


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S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: सुप्रीम कोर्ट

 S.100 CPC | द्वितीय अपीलों में अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने के लिए हाईकोर्ट को कारण बताना होगा: - सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धांत निर्धारित किए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के लिए यह अनिवार्य है कि वे किसी दीवानी मामले में द्वितीय अपील में मूल रूप से न उठाए गए अतिरिक्त विधि प्रश्न को तैयार करते समय कारण दर्ज करें। धारा 100(5) का प्रावधान हाईकोर्ट को अतिरिक्त विधि प्रश्न तैयार करने की शक्ति प्रदान करता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग नियमित रूप से नहीं किया जा सकता, बल्कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, जिसके लिए हाईकोर्ट द्वारा कारण दर्ज करना आवश्यक हो। 

 Cause Title: C.P. FRANCIS VERSUS C.P. JOSEPH AND OTHERS


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Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट

 Motor Accident Claims | दावेदार आय प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता तो बीमाकर्ता को लागू न्यूनतम वेतन अधिसूचना प्रस्तुत करनी होगी: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सड़क दुर्घटना में स्थायी रूप से दिव्यांग हो गए एक नाबालिग को दिए जाने वाले मुआवजे की राशि ₹8.65 लाख से बढ़ाकर ₹35.90 लाख कर दी। न्यायालय ने कहा कि आय निर्धारण के लिए नाबालिग को गैर-कमाऊ व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। इसके बजाय, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि नाबालिग की आय को उस राज्य में अधिसूचित कुशल श्रमिक के न्यूनतम वेतन के बराबर माना जाना चाहिए, जहां वाद का कारण उत्पन्न हुआ था। 

Cause Title: HITESH NAGJIBHAI PATEL VERSUS BABABHAI NAGJIBHAI RABARI & ANR.


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