आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का निर्देश दिया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का निर्देश दिया जा सकता है। हसनभाई वलीभाई कुरैशी बनाम गुजरात राज्य और अन्य, (2004) 5 एससीसी 347 का सहारा लेते हुए कोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि आगे की जांच के लिए मुख्य विचार सत्य तक पहुंचना और पर्याप्त न्याय करना है। हालांकि, ऐसी जांच का निर्देश देने से पहले कोर्ट को उपलब्ध सामग्री को देखने के बाद इस बात पर विचार करना चाहिए कि संबंधित आरोपों की जांच की आवश्यकता है या नहीं।
वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता ने अपने पति के खिलाफ क्रूरता का मामला दर्ज कराया था। FIR में उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं (शिकायतकर्ता के ससुराल वालों) के खिलाफ दहेज की मांग के संबंध में उत्पीड़न का कोई आरोप नहीं लगाया था। इसके बाद पति के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया। अब ट्रायल कोर्ट के समक्ष शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए प्रारंभिक बयान के अनुसार, उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं का उल्लेख नहीं किया। हालांकि, लगभग दो साल बाद दिए बयान में उसने अपनी सास और ननद के खिलाफ उत्पीड़न का आरोप लगाया।
इसके बाद उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं के खिलाफ क्रूरता के आरोपों के संबंध में आगे/नए सिरे से जांच की मांग करते हुए CrPC की धारा 173(8) के तहत आवेदन दायर किया। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने आवेदन खारिज कर दिया, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे अनुमति दी। इससे व्यथित होकर अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखने के बाद जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट ने नए सिरे से जांच का निर्देश देकर बहुत बड़ी गलती की है। इसने तर्क दिया कि आवेदन बहुत देरी से दायर किया गया था
बेंच ने कहा, "रिकॉर्ड में प्रस्तुत सामग्री को देखने पर हम पाते हैं कि वर्तमान मामले में हाईकोर्ट ने इस मामले में नए सिरे से जांच का निर्देश देते हुए घोर गलती की और अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया। इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज किया कि धारा 173(8) CrPC के तहत दायर आवेदन बहुत देरी से दायर किया गया था।" न्यायालय ने बताया कि प्रारंभिक बयान में अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई आरोप नहीं थे। इसने जोर देकर कहा कि स्थगित बयान में भी आरोप अस्पष्ट थे।
पुनरावृत्ति की कीमत पर यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि शिकायतकर्ता ने अपने पति संजय गौतम के खिलाफ लंबित मुकदमे में पहले ही गवाही दी थी और 12 अप्रैल, 2012 को दिए गए बयान में अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई भी आरोप नहीं लगाया गया। यहां तक कि 24 मार्च, 2014 को दर्ज की गई स्थगित मुख्य परीक्षा में भी अपीलकर्ता नंबर 2 के खिलाफ बिल्कुल अस्पष्ट आरोप लगाए गए।" न्यायालय ने यह भी बताया कि शिकायतकर्ता के पास CrPC की धारा 319 के अंतर्गत आवेदन भरने सहित अन्य उपलब्ध उपायों को तलाशने का विकल्प था।
आगे कहा गया, “निस्संदेह, शिकायतकर्ता को अपने चीफ ट्रायल में अपना पूरा मामला/शिकायतें प्रस्तुत करने तथा ट्रायल कोर्ट से प्रार्थना करने की स्वतंत्रता थी कि जिन शेष परिवार के सदस्यों को छोड़ दिया गया, उनके विरुद्ध भी धारा 319 CrPC के अंतर्गत समन जारी करके कार्यवाही की जानी चाहिए। यदि शिकायतकर्ता के बयान में कुछ तथ्य बताए जाने से छूट गए तो उसे वापस बुलाने तथा आगे की परीक्षा आयोजित करने के लिए धारा 311 CrPC के अंतर्गत आवेदन दायर किया जा सकता था।” अंत में न्यायालय ने यह भी बताया कि उसके ससुर, सास, ननद तथा देवर, निश्चित रूप से शिकायतकर्ता तथा उसके पति से अलग रह रहे थे, जो बेंगलुरु में एक साथ रह रहे थे। हाईकोर्ट द्वारा आगे की जांच के निर्देश देने का कोई औचित्य न पाते हुए न्यायालय ने विवादित निर्णय को अस्थिर माना और उसे रद्द कर दिया। ऐसा करते हुए न्यायालय ने शिकायतकर्ता के लिए उपलब्ध उपायों का सहारा लेने का विकल्प भी खुला छोड़ दिया, जिसमें ऊपर बताए गए उपाय भी शामिल हैं।
केस टाइटल: रामपाल गौतम बनाम राज्य, डायरी नंबर- 33274/2016
https://hindi.livelaw.in/supreme-court/further-investigation-can-be-directed-even-after-filing-of-chargesheet-commencement-of-trial-supreme-court-283216
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