लॉकडाउन के दौरान डिफॉल्ट जमानत का अधिकार 27 May 2020
Right To Default Bail During Lockdown - आयुषी मिश्रा और देवयानी सिंह COVID-19 प्रकोप के कारण अदालतों ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से तत्काल मामलों की सुनवाई करने के लिए एक अभूतपूर्व कदम उठाया है। कानूनी पदानुक्रम के सुचारू संचालन के लिए न्यायालयों के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया है कि वह इस संकट के समय के दौरान कार्यशील रहें। हालाँकि न्यायालयों द्वारा उठाए गए उचित उपायों ने वर्तमान समय में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुछ कानूनी मुद्दों और चुनौतियों को भी जन्म दिया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 23 मार्च, 2020 को वादियों द्वारा याचिका/आवेदन/ मुकदमा/अपील /अन्य सभी कार्यवाही दायर करने के लिए परिसीमा अवधि को बढ़ाने का आदेश दिया था। यह भी कहा गया था कि सामान्य कानून के तहत या विशेष कानून (केंद्रीय और /या राज्य दोनों) के तहत परिसीमा अवधि 15 मार्च 2020 तक विस्तारित होगी। जब तक कि इस संबंध में नया आदेश नहीं आ जाता है।
इसके अलावा मद्रास हाईकोर्ट ने सेत्तु बनाम राज्य [i],मामले में आरोपियों को यह कहते हुए जमानत दे दी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में विशेष रूप से यह उल्लेख नहीं किया गया है कि जांच पूरी करने के लिए कितना अतिरिक्त समय दिया जाएगा, इसलिए किसी भी मामले में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित अनिवार्य समय सीमा समाप्त होने पर अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत का अधिकार है।
हालांकि एस. कासी बनाम राज्य मामले [ii] में इसी हाईकोर्ट ने विरोधाभासी विचार प्रकट किए थे, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 142 को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश न्यायसंगत है और यह सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत परिकल्पित जांच की अवधि पर भी लागू होता है। लॉकडाउन के दिशा-निर्देशों के कारण अगर जांच एजेंसी अपनी जांच पूरी नहीं कर पा रही है तो किसी भी परिस्थिति में उसका लाभ आरोपी को नहीं दिया जा सकता है। नतीजतन, दो आदेशों में विरोधाभास होने के कारण मामले को हाईकोर्ट की एक बड़ी पीठ के पास भेजा गया। वर्तमान कानूनी संकट के दौरान मुविक्कलों को हो ही परेशानी के चलते सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुकदमों /याचिका/ आवेदन/ अन्य सभी कार्यवाही को दायर करने की अवधि बढ़ाने के मुद्दे पर छिड़ी बहस पर केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने भी मोहम्मद अली बनाम केरल राज्य व अन्य के मामले में अपने विचार प्रकट किए थे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने एक मुद्दा उठाया है ''क्या परिसीमा अवधि बढ़ाने का आदेश सीआरपीसी धारा 167 (2) के तहत प्रावधान पर लागू होगा? सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में लीगल कनन्ड्रम के रूप में यह माना गया है कि क्या यह सीआरपीसी की धारा 167 में बताई गई जाँच और पुलिस रिपोर्ट दाखिल करने की समयावधि पर लागू होता है? इस प्रकार गिरफ्तार व्यक्ति को वैधानिक जमानत के अधिकार से वंचित किया गया है। सीआरपीसी की धारा 167 के तहत यह बताया गया है कि क्या एक गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी तौर पर रिमांड पर भेजा जा सकता है और पुलिस द्वारा मामले की जांच कितनी अवधि में पूरी करके रिपोर्ट दायर कर दी जानी चाहिए। वहीं जिन अपराध में फांसी या उम्रकैद या दस साल से कम की सजा का प्रावधान नहीं है, उन मामलों में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत 90 दिन में जांच पूरी करके रिपोर्ट दाखिल कर दी जानी चाहिए अन्यथा आरोपी वैधानिक जमानत का हकदार हो जाएगा। वहीं अन्य मामलों के लिए जांच की यह अवधि 60 दिन की है। अगर इस अवधि में जांच पूरी करके आरोप पत्र दायर नहीं किया जाता है तो आरोपी जमानत का हकदार बन जाता है। यह प्रावधान बताता है कि विधायिका का उद्देश्य विभिन्न अपराधों की जांच एक समय अवधि के भीतर पूरा कराना है। इसका उद्देश्य पुलिस द्वारा जांच में बरती जाने वाली सुस्ती और जेल में बंद व्यक्ति की अनिश्चितकालीन यातना को रोकना है। प्रावधान कहीं भी जांच या अंतिम रिपोर्ट को प्रस्तुत करने में बाधा नहीं डालता है। हालांकि, निर्धारित समय अवधि के पूरा होने के बाद मजिस्ट्रेट को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह अधूरी या प्रारंभिक रिपोर्ट के आधार पर निर्धारित अवधि से अधिक होने पर भी आरोपी को रिमांड पर भेज दें।
[iii] जांच पूरी होने में विफल रहने पर हिरासत में लिए गए व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखने के लिए उक्त प्रावधान प्राधिकरण द्वारा रिमांड को बढ़ाने पर मात्र एक सीमा की तरह काम करते हैं। इस तरह की समयावधि समाप्त होने पर अभियुक्त को वैधानिक जमानत दिया जाना अपरिहार्य अधिकार है। यदि शर्तों को पूरा किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट के पास रिमांड बढ़ाने का अधिकार क्षेत्र नहीं है और इस तरह के विस्तार को अवैध माना जाता है।
[iv] यह अधिकार तब भी प्रभावित नहीं होता है जब बाद में अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी जाए। मजिस्ट्रेट का यह दायित्व है कि वह निर्दिष्ट समय के भीतर जांच पूरी न होने पर गिरफ्तार व्यक्ति की स्वेच्छा पर उसे जमानत दे दे।
[v] 268 वें विधि आयोग की रिपोर्ट में सुरेश जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य [vi] और संजय दत्त बनाम राज्य,सीबीआई के जरिए [vii],मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पुनःपुष्टि की है, जहां उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अभियुक्त को धारा 167 (2) के तहत जांच पूरी न होने पर ''अपरिहार्य अधिकार'' प्राप्त होता है। इस समय अवधि के समाप्त होने के बाद अभियुक्तों को हिरासत में रखना अवैध है और आरोपी द्वारा जमानत मांगे जाने के बाद मजिस्ट्रेट को उसे जमानत देनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने मंटू मजूमदार बनाम बिहार राज्य [viii] ,के मामलों में बंदियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखा था और कहा था कि पुलिस जांच में देरी और मजिस्ट्रेट द्वारा रिमांड प्रक्रिया का यांत्रिक संचालन जेल में बंद कैदियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति असंवेदनशीलता है।
इसके अलावा मेनका गांधी बनाम भारत के संघ [ix] में कहा गया था कि कानून द्वारा असमर्थित किसी भी कार्यकारी कार्रवाई द्वारा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है। इस तरह के प्रतिबंध कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होने चाहिए जो उचित, न्यायपूर्ण और निष्प्क्ष होनी चाहिए। इसलिए सीआरपी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय सीमा के पीछे का उद्देश्य जांच एजेंसी द्वारा जांच समय पर पूरी करवाना है, ताकि गिरफ्तार व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत मिले उसके अधिकारों का आश्वासन दिया जा सकें और मामले का तेजी से निपटारा हो सके। इस प्रकार इस आदेश का उपयोग गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार देने से इंकार करने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
उत्तराखंड हाईकोर्ट [x] ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के संबंध में यह भी कहा है कि आदेश की प्रयोज्यता को इस तथ्य के आलोक में माना जाना चाहिए कि सीआरपीसी की धारा 167 सिर्फ मजिस्ट्रेट की हिरासत की शक्ति की बाहरी सीमा निर्धारित करती प्रतीत होती है। इस प्रकार यह एक अभियुक्त को हिरासत में लेने की अवधि का एक प्रतिबंध है। ताकि जांच बिना किसी परेशानी के जारी रह सकें।
केरल हाईकोर्ट [xi] ने हितेंद्र विष्णु ठाकुर और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्यख्गपप, उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य [xiii] का विश्लेषण किया और दोहराया कि ''जब सुप्रीम कोर्ट ने जब यह देखा कि ऐसे भी मौके आते हैं जब अदालत ही अभियुक्त के अपरिहार्य अधिकार को निराश करती है तो शीर्ष कोर्ट ने माना कि इस तरह के अभ्यास को दृढ़ता से हतोत्साहित किया जाना चाहिए और अभियुक्त के अपरिहार्य अधिकार को हराने के लिए किसी भी प्रकार के उप-आश्रय का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए [xiv] ।'' इसने आगे कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश याचिका / आवेदन /सूट / अपील और अन्य कार्यवाही से संबंधित हैं, जिनमें परिसीमा की अवधि सामान्य कानून के तहत या विशेष कानूनों के तहत निर्धारित है। परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2 (जे) 'परिसीमा की अवधि' को किसी भी वाद, अपील या अर्जी के लिए निर्धारित परिसीमा की अवधि के रूप में परिभाषित करती है, और 'निर्धारित अवधि' का अर्थ है इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार परिसीमा की अवधि की गणना। यदि ऐसे विस्तार की अनुमति दी जाती है तो यह सीआरपीसी की धारा (167) और धारा 57 के संबंध में अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन होगा। आरोपी लंबे समय तक हिरासत में रहेगा और आरोपी अपने अधिकारों से वंचित रह जाएगा और निश्चित रूप से कुछ मामलों में इसका दुरुपयोग होगा। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अचपाल उर्फ रामस्वरुप और एक अन्य बनाम राजस्थान राज्य [xv] में कहा है कि *सीआरपीसी 167 के प्रावधान किसी को भी उस अवधि का विस्तार करने के लिए सशक्त नहीं करते हैं जिसके भीतर जांच पूरी होनी चाहिए और न ही इस तरह की किसी भी घटना का स्वीकार करना चाहिए।* सीआरपीसी धारा 57 और 167 कानून द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया प्रदान करती हैं जो इस अधिकार को यथोचित रूप से लागू करती है। हालाँकि जो प्रावधान किसी अभियुक्त को लंबे समय तक हिरासत में रखने की प्रक्रिया प्रदान करते हैं, उनकी व्याख्या अभियुक्त के संवैधानिक अधिकारों को ध्यान में रखते हुए करनी होगी। इसलिए, न्यायालयों को किसी गिरफ्तार व्यक्ति के ऐसे कानूनी अधिकारों की निष्फलता का सहारा नहीं लेना चाहिए, जो उसे कानून द्वारा दिए गए हों [xvi]। डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को समाप्त करने का कोई भी प्रयास किसी भी प्राधिकरण के लिए स्वीकार्य नहीं है [xvii] ,। आपातकाल की स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत मिले व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से कानून के तहत स्थापित प्रक्रिया और कार्यवाही के सिवाय समझौता नहीं किया जा सकता है।
--: निष्कर्ष :--
प्रत्येक व्यक्ति को भारत के संविधान के तहत परिकल्पित अधिकारों का आनंद लेने का अधिकार है। हालाँकि, हिरासत के मामले में ये अधिकार एक उचित आशंका के साथ प्रतिबंधित हो जाते हैं ताकि जांच में हिरासत में लिया गया व्यक्ति सहायता कर सकें। हालांकि वाजिब प्रतिबंध का अर्थ यह है कि थोपी गई परिसीमा मनमानी नहीं होनी चाहिए या स्वतंत्रता और न्याय के मूल सिद्धांत की विरोध नहीं होनी चाहिए। यदि सीआरपीसी में निर्धारित समय सीमा के विरुद्ध आरोपी पर लगाए गए प्रतिबंधों को विस्तारित किया जाता है, तो उसे विस्तारित क्षितिज में अत्यधिक प्रकृति की संज्ञा दी जाएगी। एक अनुचित समय में लगाया गया प्रतिबंध भी यथोचित रूप से वर्गीकृत होना चाहिए। COVID 19 के कारण उत्पन्न हुई पूर्ववर्ती स्थिति ने अदालतों के सामने यह स्थिति बना दी है कि वह तत्काल मामलों को निपटाने के लिए असाधारण उपाय को अपनाएं। जमानत देने के मामलों में महामारी के प्रभाव को असाधारण रूप से जांचना होगा। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसे आंका जाना चाहिए। जमानत देने के मामले में एक अक्षम्य सूत्र नहीं हो सकता है। शीर्ष अदालत द्वारा मुविक्कलों की परेशानियों को कम करने के लिए याचिका / मुकदमे /आवेदन /अपील दायर करने में परिसीमा के विस्तार के लिए दिए गए आदेशों का लाभ जांच एजेंसियों को नहीं लेना चाहिए ताकि वह अपनी अंतिम रिपोर्ट दायर करने में हुई देरी को उचित ठहरा पाएं ओर इस तरह सीआरपीसी की धारा 57 और 167 के तहत मिली अवधि का विस्तार करा पाएं। न ही इस आधार पर आरोपी को धारा 167 (2) के तहत मिले जमानत के वैधानिक अधिकार का उपयोग करने से मना किया जा सकता है। कानून प्रवर्तन एजेंसी न्यायिक आदेशों के पीछे नहीं छिप सकती है और न ही कानूनों के आदेशों का पालन न करने के विकल्प का चुनाव कर सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय की धारा 167 (2) के प्रकाश में परिसीमा अधिनियम की व्याख्या इस मामले में विराजमान संघर्ष को बढ़ावा ही देगी। इसलिए इस भ्रम को पूरी तरह से खत्म करना महत्वपूर्ण है और यह कोई अकेले में विचार-विमर्श का मामला नहीं है। जमानत देने में दिए गए अलग-अलग विचार उक्त प्रावधान के पीछे के उद्देश्य को खत्म करने का कारण बन रहे हैं। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को स्पष्ट करके अधिसूचित किया जाना चाहिए।
यह सभी विचार व्यक्तिगत
[i] CRL OP (MD). No.5291 of 2020
[ii] CRL OP (MD). No. 5296/2020
[iii] Uday Mohanlal Acharya, reported in 2001 AIR(SC) 1910
[iv] Aslam Babalal Desai v. State of Maharashtra: 1992 4 SCC 272
[v] Union of India Vs. Hassan Ali Khan and another 2011(10 ) SCC 235
[vi] (2013) 3 SCC 77
[vii] (1994) 5 SCC 410
[viii] AIR 1980 SC 846
[ix] 1978 AIR 597
[x] Vivek Sharma v. State of Uttarakhand
[xi] Mohammed Ali v. State of Kerala & Anr.
[xii] 1994 (4) SCC 602
[xiii] 2001 950 SCC 453
[xiv] Mohammed Iqbal Madar Sheikh v. State of Maharashtra: (1996) 1 SCC 722
[xv] (2019) 14 SCC 599
[xvi] Union of India through CBI v. Nirala Yadav: (2014) 9 SCC 457
[xvii] Rakesh Kumar Paul v. State of Assam: (2018) 1 SCC (Cri) 401