Friday, 29 May 2020

10 महीने से ज्यादा हिरासत असंवैधानिक : जम्मू- कश्मीर के कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज़ की रिहाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका 29 May 2020


" 10 महीने से ज्यादा हिरासत असंवैधानिक " : जम्मू- कश्मीर के कांग्रेसी नेता  सैफुद्दीन सोज़ की रिहाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका 29 May 2020 

 5 अगस्त, 2019 से जम्मू-कश्मीर की सरकार के खिलाफ 80 साल के कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रो सैफुद्दीन सोज़ की नजरबंदी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हेबियस कॉरपस याचिका दायर की गई है। प्रो सोज़ की पत्नी, मुमताज़ुननिशा सोज़ की ओर से एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड सुनील फर्नांडीस द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि "उनकी पहली नज़रबंदी को दस महीने बीत चुके हैं, और उन्हें हिरासत में लेने के आधार के बारे में सूचित नहीं किया गया है। प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा शक्तियों के अवैध, मनमाने अभ्यास के कारण निरोधक आदेश की एक प्रति प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा किए गए सभी प्रयासों का कोई फायदा नहीं हुआ। " याचिका में आगे कहा गया है कि " ये हिरासत भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत संवैधानिक सुरक्षा उपायों के साथ-साथ हिरासत के कानून के भी पूरी तरह है। यह जम्मू और कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 [" PSAअधिनियम"] की वैधानिक योजना के उल्लंघन में है, जिसके तहत हिरासत आदेश को जानबूझकर पारित किया गया है।" इस दलील में कहा गया है कि इसमें बंदी की अवैध हिरासत के आसपास भयंकर उल्लंघन हुए हैं : 1. हिरासत के आदेश को पारित करने वाले प्राधिकारी द्वारा हिरासत के आधार के लिए संचार नहीं किया गया है। कई अनुरोधों के बावजूद आदेश की कोई प्रति उपलब्ध नहीं कराई गई है। यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 (5) का घोर उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि आदेश बनाने वाला प्राधिकारी बंदी को उस आधार का संचार करेगा, जिस पर आदेश दिया गया है, और बंदी को जल्द से जल्द आदेश के खिलाफ प्रतिनिधित्व का संभव अवसर प्रदान करेगा।  "हिरासत के आधार नहीं मिलने के बावजूद, और प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से वंचित होने के बावजूद, इस याचिका को दायर करने की तारीख से दस महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया है।" इसके अलावा, PSA अधिनियम की धारा 18 के तहत नजरबंदी की अधिकतम अवधि पहले उदाहरण में तीन महीने है, अगर व्यक्ति सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए पूर्वाग्रहपूर्ण तरीके से काम कर रहा है, तो ये 12 महीने तक बढ़ सकता है। राज्य की सुरक्षा के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल काम करने वाले व्यक्तियों के लिए यह पहली बार में छह महीने है जो दो साल तक की अवधि के लिए विस्तार योग्य है। 2. संवैधानिक दिशा-निर्देशों के साथ-साथ PSA अधिनियम की वैधानिक योजना के उल्लंघन में, बंदी को हिरासत के आदेश के खिलाफ प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से वंचित किया गया है। यह दलील दी गई है कि बंदी को गिरफ्तारी में जाने के दस महीने हो चुके हैं और हिरासत के आधार के साथ-साथ आदेश की प्रति की आपूर्ति न होने के कारण, बंदी आदेश के खिलाफ कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं बना सका है। यह अनुच्छेद 22 (5) के साथ-साथ PSA अधिनियम की धारा 13 का उल्लंघन है। दलीलों में इब्राहिम अहमद बत्ती बनाम गुजरात राज्य (1982) के मामले को इंगित किया गया है। 3. एक लंबी और अनिश्चितकालीन हिरासत संविधान के अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 के साथ निवारक हिरासत पर कानून की रक्षा का भी उल्लंघन है। याचिका में निवारक हिरासत के मामलों में भी अनुच्छेद 21 की प्रधानता को स्पष्ट करने के लिए महाराष्ट्र राज्य भाऊराव बनाम पंजाबराव गावंडे (2008) के मामले का उल्लेख किया गया है। 4. बंदी का प्रदर्शन देखने से पता चलता है कि कोई आपराधिक वारदात नहीं हुई है और वो किसी ऐसे संचार में लिप्त नहीं है जिसे PSA अधिनियम के तहत अपराध की प्रतिबद्धता के रूप में माना जा सकता है। PSA अधिनियम की धारा 8 में हिरासत के आदेश देने की शक्तियों को निर्धारित किया गया है। इसमें कहा गया है कि सरकार व्यक्ति की नजरबंदी के लिए निर्देश दे सकती है यदि वह संतुष्ट हो जाए कि कोई भी व्यक्ति राज्य की सुरक्षा, या सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव के लिए किसी भी तरह से कार्य कर रहा है। दलीलों में कहा गया है कि "इस संबंध में, यह सराहना की जा सकती है कि बंदी एक वरिष्ठ नागरिक और 80 साल का बुजुर्ग है जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, वो भावना वाले आदमी हैं और अकादमिक झुकाव वाले हैं। उनका आचरण जम्मू और कश्मीर राज्य की स्थिति हटाए जाने से पहले और बाद में शांतिपूर्वक रहा है। उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और अतीत में कभी भी कोई अपराध नहीं किया है,जो उन्हें राज्य की सुरक्षा को भंग करने वाला या किसी भी तरह से सार्वजनिक शांति को भंग करने के अधिनियम की धारा 8 (3) के तहत वर्णित किया गया है। उपरोक्त के प्रकाश में, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका भारत के सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई है। गुरुवार को, जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष मियां अब्दुल कय्यूम की PSA अधिनियम के तहत हिरासत को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया कि 70 साल के बंदी की कानून व्यवस्था में गड़बड़ी की "प्रवृत्ति" है और उनकी विचारधारा "लाइव ज्वालामुखी" एक जैसी है। तदनुसार, उच्च न्यायालय ने देखा कि हिरासत के आदेशों के साथ हस्तक्षेप करना उचित नहीं होगा। कय्यूम भी 5 अगस्त, 2019 से नजरबंद है, जब केंद्र सरकार ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति को समाप्त करने के लिए उपाय किए थे।

कानून की अनुपस्थिति में हेट स्पीच को परिभाषित नहीं किया जा सकता : कर्नाटक हाईकोर्ट 29 May 2020


कानून की अनुपस्थिति में हेट स्पीच को परिभाषित नहीं किया जा सकता : कर्नाटक हाईकोर्ट 29 May 2020 

       कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी विशिष्ट कानून की अनुपस्थिति में अदालत के लिए यह उचित नहीं होगा कि वह हेट स्पीच का वास्तविक विश्लेषण करे या फिर उसे ठोस परिभाषा दे। यह टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मीडिया घरानों और राजनीतिक नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की गई थी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि यह सभी कथित रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। कैंपेन अगेंस्ट हेट स्पीच नामक एक अपंजीकृत संगठन ने यह जनहित याचिका दायर की थी। इस संगठन से उच्च कुशल शिक्षाविद, वकील और विभिन्न पेशों से संबंध रखने वाले नागरिक जुड़े हुए हैं। याचिका में मांग की गई थी कि प्रतिवादियों को निर्देश दिया जाए कि वे अपने समाचार चैनलों पर प्रसारित भड़काऊ वीडियो और रिपोर्टों को तुरंत हटा लें। याचिका के साथ समाचार चैनल जैसे टाइम्स नाउ, रिपब्लिक टीवी, सीएनएन-न्यूज 18 में आयोजित किए गए डिबेट की क्लिपिंग और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिए गए बयानों और समाचार चैनलों में सांसदों व एमएलए द्वारा दिए गए साक्षात्कारों की क्लिपिंग भी पेश की गई थी। यह तर्क भी दिया गया था कि प्रतिवादी ऐसी सामग्री को सेंसर करने में विफल रहे, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ, विशेष रूप से लोगों के जीवन और आजीविका के अधिकार का। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील हरीश बी नरसप्पा ने दलील दी कि कुछ राजनीतिक हस्तियों द्वारा दिए गए भड़काऊ और गैर जिम्मेदाराना भाषणों और मीडिया हाउसों की रिपोर्टों के खिलाफ शिकायत की गई थी। इन सभी ने आरोप लगाया गया था कि COVID19 महामारी के प्रसार के लिए समाज का एक वर्ग जिम्मेदार है। इस मामले पर गहराई से विचार करने से इनकार करते हुए न्यायमूर्ति बी वी नागरथना और न्यायमूर्ति एम जी उमा की खंडपीठ ने कहा कि- ''चूंकि संसद ने अभी तक 'हेट स्पीच' की अवधारणा पर कानून बनाना उचित नहीं समझा है और जिसके अभाव में 'हेट स्पीच' की अब तक कोई परिभाषा नहीं है, इसलिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए सिर्फ इसलिए निर्देश जारी नहीं कर सकता, क्योंकि हेट स्पीच का प्रभाव समाज पर सामान्य तौर पर पड़ा है या समाज के कुछ वर्गों पर।'' याचिकाकर्ता-संगठन ने एक अंतरिम राहत भी मांगी थी, जिसमें कहा गया था कि कर्नाटक पुलिस के डीजीपी और आईजी को निर्देश दिया जाए कि वह मीडिया रिपोर्टों के संबंध में एक एफआईआर दर्ज करे, क्योंकि इन रिपोर्ट में आईपीसी की धारा 153 ए, 153 बी, 295-ए,298 और 505 (2) का उल्लंघन हुआ है। हालांकि कोर्ट ने ऐसी कोई राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि- ''शुरुआत में ही हमने यह कह दिया था कि कुछ मांग अस्पष्ट हैं। वहीं जो अंतरिम प्रार्थनाएं की गई हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिका में नहीं की जा सकती। याचिकाकर्ताओं ने यहां सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत शिकायतें दर्ज नहीं की है।" इसके लिए पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला भी दिया। सरकार की ओर से पेश एएजी आर.सुब्रमण्य और एएसजी एम.बी नरगुंड ने इस दलील का विरोध करते हुए कहा कि याचिका वास्तव में एक ''पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन'' हैं। अगर किसी भी शिकायतकर्ता को कोई पीड़ा हुई थी तो इसके लिए उचित उपाय सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत मिलेगा। इन दलीलों के साथ सहमति जताते हुए पीठ ने कहा कि- ''सुधीर भास्करराव ताम्बे के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि किसी व्यक्ति की यह शिकायत है कि उसकी प्राथमिकी पुलिस ने दर्ज नहीं की या फिर दर्ज कर ली गई है परंतु उचित जांच नहीं की गई है, तो इस पीड़ित व्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका दायर करने का उपाय नहीं मिल जाता है। बल्कि उसे सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट के पास जाना चाहिए या वहां अर्जी दायर करनी चाहिए।'' वहीं मीडिया घरानों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश देने के संबंध में पीठ ने कहा कि- ''भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) में ' भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता'को मान्यता दी गई है जिसमें 'प्रेस की स्वतंत्रता' भी शामिल है। उक्त स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में वर्णित उचित प्रतिबंधों के अधीन है ... इस प्रकार, यदि राज्य या केंद्र सरकार को लगता है कि भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार के खिलाफ उचित प्रतिबंध होना चाहिए, तो इन प्रतिबंधों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत कहीं गई बातों के आधार पर उचित ठहराना होगा। बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के मामले में संघ या राज्य सरकार शुरू की गई उस कार्रवाई की अनुमति होगी जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के मापदंडों के भीतर उचित होगी।'' पीठ ने यह भी कहा कि- ''वर्तमान परिदृश्य में, चूंकि संसद ने अभी तक हेट स्पीच की अवधारणा पर कानून बनाना उचित नहीं समझा है और इस कानून के अभाव में 'हेट स्पीच' की कोई परिभाषा नहीं है, इसलिए यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए सिर्फ इसलिए निर्देश जारी नहीं कर सकता है क्योंकि हेट स्पीच का प्रभाव समाज पर सामान्य तौर पर पड़ा है या समाज के कुछ वर्गों पर।'' पीठ ने यह भी स्पष्ट किया है कि व्यथित व्यक्तियों को पहले ही विभिन्न अधिनियमों के तहत काफी सारे अधिकार और उपचार दिए जा चुके हैं। जिनके तहत वह उन भाषणों या विचारों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं,जिनको वह हेट स्पीच मानते हैं। पीठ ने कहा कि-भारतीय दंड संहिता,जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 , सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000, अंनलॉफुल एक्टिविटी (प्रीवेंशन) एक्ट 1967, प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट एक्ट 1955,रिलिजस इंस्ट्टिूशन (प्रीवेंशन ऑफ मिसयूज) एक्ट 1980, केबल टेलीविजन नेटवर्क (रेगुलेशन) एक्ट 1995, केबल टेलीविजन नेटवर्क (रूल्स) 1994, दा सिपिमटाग्रफर एक्ट 1952 और सीआपीसी 1973 आदि कानून पहले से ही उपलब्ध हैं। इनके तहत कोई भी पीड़ित व्यक्ति कानून के अनुसार कार्रवाई की मांग कर सकता है।'' पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार ने पहले ही निजी उपग्रह टीवी चैनलों को यह निर्देश जारी कर दिए थे कि वह भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ''सांप्रदायिक सद्भाव'' को बढ़ावा दें। पीठ ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि ''इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि संसद ने पहले ही हेट स्पीच के मामले में व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त और प्रभावी उपाय प्रदान कर रखे हैं। ऐसे में कोई भी पीड़ित व्यक्ति अगर किसी बयानबाजी या भाषण से दुखी है तो वह आपराधिक कानून का सहारा ले सकता है।'' मामले का विवरण- केस का शीर्षक- कैंपेन अगेंस्ट हेट स्पीच व अन्य बनाम स्टेट आॅफ कर्नाटक व अन्य केस नंबर-डब्ल्यूपी नंबर 6749/2020 कोरम- न्यायमूर्ति बी वी नागरथना और न्यायमूर्ति एम जी उमा प्रतिनिधित्व-एडवोकेट हरीश बी नरसप्पा (याचिकाकर्ता के लिए), एएजी आर.सुब्रमण्य साथ में एजीए टीएल किरण व एएसजी एम.बी नरगुंड (प्रतिवादियों के लिए) 

चेक बाउंस मामलों में अपील सीआरपीसी की धारा 378 (4) के तहत केवल हाईकोर्ट के समक्ष दायर की जा सकती हैः मद्रास हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ का फैसला 29 May 2020


*चेक बाउंस मामलों में अपील सीआरपीसी की धारा 378 (4) के तहत केवल हाईकोर्ट के समक्ष दायर की जा सकती हैः मद्रास हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ का फैसला 29 May 2020*

          मद्रास हाईकोर्ट ने माना है कि चेक बाउंस मामले में अभियुक्तों को बरी होने के खिलाफ अपील केवल सीआरपीसी की धारा 378 (4) के तहत हाईकोर्ट के समक्ष दायर की जा सकती है। हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ, जिसमें जस्टिस एमएम सुंदरेश, वी भारतीदासन और एन आनंद वेंकटेश शामिल थे, ने कहा कि *एस गणपति बनाम एन सेंथिलवेल ((2016) 4 सीटीसी 119)* मामले में एक अन्य पूर्ण पीठ का निर्णय कानून के अनुरूप नहीं है। बेंच ने कहा-  *"मजिस्ट्रेट द्वारा बरी किए जाने के आदेश के खिलाफ ‌शिकायत होने पर हाईकोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 378 (4) के तहत ही अपील होगी। ऐसे मामलों में, शिकायतकर्ता को धारा 378 (5) सीआरपीसी के तहत विशेष छूट की मांग करनी होगी।  एस गणपति मामले में दिया गया निर्णय कानून सम्‍मत नहीं है, क्योंकि यह निर्णय दामोदर एस प्रभु और सुभाष चंद में बाध्यकारी प्राधिकरण के संदर्भ के बिना लिया गया है। "* 
           एस गणपति मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 372 का प्रयोग करके बरी के आदेश के खिलाफ शिकायत की अपील सेशन कोर्ट के समक्ष की जा सकती है। इस दृष्टिकोण की शुद्धता पर संदेह करते हुए, एक एकल पीठ ने मुद्दे को बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया कि क्या मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए बरी के आदेश के खिलाफ ‌शिकायत दिया गया उपाय अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के तहत है या आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 378 (4) के तहत है?  
                 पीठ ने दामोदर एस प्रभु बनाम सैयद बाबालाल एच (2010) 5 सुप्रीम कोर्ट केस 663) [सुभाष चंद बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन)] 2013 2 SCC 17 और मल्लिकार्जुन कोडागली (मृत) कानूनी प्रतिनिधियों के माध्यम से प्रतिनिधित्व बनाम कर्नाटक राज्य ((2019) 2 सुप्रीम कोर्ट केस 752) के मामलो में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को देखा और कहा कि एस गणपति मामले में दिया गया निर्णय कानून के अनुरूप नहीं है । 
            पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि बीच की अवधि में सत्र न्यायालय द्वारा तय किए गए मामलों पर इस फैसले का क्या प्रभाव पड़ा? (एस गणपति मामले में पूर्ण पीठ के निर्णय के बाद रजिस्ट्री ने सभी लंबित अपीलों को सत्र न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया था।) -इस अदालत के समक्ष लंबित एक अपील, जिसे एस गणपति (सुप्रा) के अनुसार सत्र न्यायालय को भेजा गया और वह लंबित है, उसे वापस हाईकोर्ट की फाइल में स्थानांतरित किया जाना चाहिए और हाईकोर्ट के समक्ष लंबित माना जाना चाहिए। *उन मामलों के लिए पर भी यह आदेश लागू होगा, जिनमें सत्र न्यायालय के समक्ष मूल अपील दायर की गई थी और लंबित है।* - ऐसे मामलों में, जहां सत्र न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा पारित बरी के आदेश की पुष्टि की है और शिकायतकर्ता द्वारा इस न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की गई है और वह लंबित है, सत्र न्यायालय के आदेश की अवहेलना होनी चाहिए और इस कोर्ट के समक्ष दायर संशोधन याचिका को सीआरपीसी की धारा 401 (5) के आधार पर अपील माना जाना चाहिए। उन *पुनरीक्षण याचिकाओं को रजिस्ट्री द्वारा क्रिमिनल अपीलों के रूप में दर्ज किया चाहिए।* -ऐसे मामलों में, जहां, सत्र न्यायालय द्वारा बरी करने के आदेश की पुष्टि की गई है और यह फाइनल नहीं हुआ है या पक्षकारों द्वारा कार्रवाई नहीं की गई है और शिकायतकर्ता इसे चुनौती देना चाहता है, वह इस अदालत के समक्ष, मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए आदेश के खिलाफ, सत्र न्यायालय द्वारा पारित आदेश की अवहेलना कर, अपील दायर करने के लिए निर्धारित सीमा अवधि के भीतर और जिसकी गणना उस तारीख से की जाएगी जिस दिन सत्र न्यायालय का आदेश तैयार किया गया था, एक आपराधिक अपील दायर करेगा। ऐसे मामलों में, शिकायतकर्ता को सीआरपीसी की धारा 378 (5) के तहत विशेष छूट की मांग करनी होती है। -
            ऐसे मामलों में, जहां सत्र न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा पारित बरी के आदेश को उलट दिया है और उसी को आरोपी द्वारा इस अदालत के समक्ष पुनरीक्षण याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई है और वही लंबित है, उसी को अपील के रूप में लंबित माना जाना चाहिए। उन सभी मामलों में, शिकायतकर्ता को एक याचिका दायर करनी होगी और रजिस्ट्री को शिकायतकर्ता को अपीलकर्ता और अभियुक्त को प्रतिवादी के रूप में दिखाकर आपराधिक अपील के रूप में परिवर्तित करना होगा। -ऐसे मामलों में, जहां सत्र न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए बरी के आदेश को पलट दिया है और अभियुक्तों को दोषी ठहराया है और यह आदेश फाइनल नहीं हुआ है या उस पर कार्रवाई नहीं की गई है, आरोपी व्यक्ति को उक्त आदेश को चुनौती देते हुए इस पूर्ण पीठ के फैसले के हवाले का हवाला देते हुए न्यायालय के समक्ष आपराधिक पुनरीक्षण दायर करना होगा। जस्टिस आनंद वेंकटेश ने मिलताजुलता फैसला सुनाया और कहा कि 13 हाईकोर्टों ने माना है कि शिकायतकर्ता सीआरपीसी की धारा 378 (4) के तहत हाईकोर्ट के समक्ष बरी के के आदेश के खिलाफ अपील दायर कर सकता है। 

*केस टाइटल:* के राजलिंगम बनाम आर सुगांतलक्ष्मी 
*केस नं:* Crimanal Appeal Nos.89 and 90 of 2020 
*कोरम:* जस्टिस एमएम सुंदरेश, वी भारतीदासन और एन आनंद वेंकटेश

अगर नियम अनुमति दें तो कर्मचारी को रिटायरमेंट के बाद भी अनुशासनात्मक जांच में बर्खास्त किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट 28 May 2020

*अगर नियम अनुमति दें तो कर्मचारी को रिटायरमेंट के बाद भी अनुशासनात्मक जांच में बर्खास्त किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट का 2:1 के बहुमत से फैसला 28 May 2020*

सुप्रीम कोर्ट (2:1) ने कहा है कि किसी कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक जांच कर्मचारी के सेवानिवृत्त होने के बाद भी जारी रह सकती है और यदि संबंधित सेवा नियम इसकी अनुमति देते हैं तो उसे बर्खास्तगी या हटाने जैसी बड़ी सजा दी जा सकती है। महानदी कोलफील्ड लिमिटेड द्वारा बनाए गए आचरण, अनुशासन और अपील के नियमों का नियम 34, कुछ मामलों में विशेष प्रक्रिया प्रदान करता है और जो किसी कर्मचारी की अंतिम सेवानिवृत्ति के बाद भी अनुशासनात्मक कार्यवाही जारी रखने की अनुमति देता है, बशर्ते कर्मचारी के सेवा में रहते हुए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई हो, चाहे वह सेवानिवृत्ति से हो या दोबार रोजगार में आन के बाद हो। इसके अनुसार इस तरह की अनुशासनात्मक कार्यवाही जारी रखी जाएगी और उस प्राधिकरण द्वारा पूरी की जाएगा, जिसने इसे शुरु किया है, बिलकुल उसी तरह जैसे कर्मचारी के सेवा में रहते हुए की जाती है।नियम 34.3 में अनुशासनात्मक कार्यवाही की पेंडेंसी के दौरान ग्रेच्युटी के भुगतान को रोक देने का प्रावधान है और यह ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम की धारा 4 के उपधारा (6) में उल्लेख‌ित अपराधों/ दुराचार का दोषी पाए जाने पर या सेवा के दौरान कदाचार या लापरवाही से कंपनी को होने वाले किसी भी आर्थिक नुकसान की पूरी या आंशिक भरपाई की ग्रेच्युटी से से वसूली का आदेश देने की अनुमति देता है।  हाईकोर्ट ने इस मामले में जसवंत सिंह गिल बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (2007) 1 एससीसी 663 में दिए गए निर्णय पर भरोसा किया था और कहा था कि यदि अनुशासनात्मक जांच कर्मचारी की सेवानिवृत्त‌ि की उम्र से पहले शुरू की गई थी तो भी सेवा से हटाने या बर्खास्तगी जैसा बड़ा जुर्माना लगाने का सवाल ही नहीं उठता। अपील में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अनुशासनात्मक प्राधिकरण के पास सेवान‌िवृत्त‌ि के बाद भी प्रतिवादी पर बर्खास्तगी/ बड़ा जुर्माना लगाने का अधिकार है, क्योंकि कर्मचारी के सेवा में रहते हुए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई थी। जसवंत सिंह गिल के फैसले को पलटते हुए, जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एमआर शाह ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम राम लाल भास्कर में (2011) 10 SCC 249 में तीन जजों की बेंच के फैसले का जिक्र किया और कहा- "कई सेवा लाभ जांच के परिणाम पर निर्भर करते हैं, जैसे कि उस अवधि के संबंध में, जब तक जांच लंबित रही। यह सार्वजनिक नीति के खिलाफ होगा कि वह किसी कर्मचारी को विभिन्न सेवा लाभों को प्राप्त करने के बाद, जिनका कि वह हकदार नहीं होगा, बिना सजा के जाने की अनुमति दे और सेवानिवृत्त‌ि की उम्र उसके बचाव में नहीं आ सकती है और यह सजा से मुक्ति के बराबर होगा। नियमों के तहत प्रदान की गई कानूनी कल्पना के कारण, इसे उसी तरीके से पूरा किया जा सकता है जैसे कि कर्मचारी सेवानिवृत्ति के बाद सेवा में बना रहे, और उसे उचित सजा दी जा सकती है। ग्रेच्युटी अधिनियम के विभिन्न प्रावधान विभागीय जांच के आड़े नहीं आते हैं और जैसा कि धारा 4 (6) और नियम 34.3 में प्रदान किया गया है, बर्खास्तगी की स्‍थति में ग्रेच्युटी को आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से वसूल किया जा सकता है और नुकसान की भी वसूली की जा सकती है। संबंधित सेवा नियमों के तहत एक जांच जारी रखी जा सकती है क्योंकि यह पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी एक्ट, 1972 में प्रदान नहीं की गई है, जहां कहा गया है कि जैसे ही कर्मचारी सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करता है, जांच समाप्त हो जाती है। हम दोहरा रहे हैं कि अधिनियम अनुशासनात्मक जांच के मामले से डील नहीं करता है, यह किए गए कदाचार के अनुसार या पूरी तरह से या आंशिक रूप से ग्रेच्युटी की वसूली विचार करता है और संभावित दंड पर भी विचार नहीं करता और सीडीए नियम के नियम 34.2 और 34.3 को अधिक्रमित नहीं करता है। तीन जजों की बेंच में जस्टिस अजय रस्तोगी ने उक्त फैसले से असहमति जताई और कहा कि अनुशासनात्मक जांच की समाप्त‌ि के बाद, यदि दोषी ठहराया जाता है, तो एक कर्मचारी/ दोषी को दंडित किया जा सकता है, जो सेवानिवृत्त हुआ और दंड की प्रकृति क्या होनी चाहिए, यह हमेशा नियमों की प्रासंगिक योजना और प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर पर निर्भर करता है, लेकिन नियम, 1978 के नियम 27 के तहत निर्दिष्ट कठोर दंडों में से किसी को भी, जिसमें सेवा से बर्खास्तगी शामिल है, अनुशासनात्मक कार्यवाही के समापन पर नहीं दी जाता है और नियम, 1978 के नियम 34 के तहत, 1978 अधिनियम, 1972 की धारा 4 की उपधारा (6) के साथ पढ़ें, अपराध की प्रकृति के अनुसार ग्रेच्युटी की वसूली की सजा से एक अपराधी कर्मचारी को दंडित किया जा सकता है। पीठ के समक्ष एक अन्य मुद्दा यह था कि क्या कानून में अनुमति है कि कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित होने के के कारण सेवानिवृत्ति के बाद भी नियोक्ता उसकी ग्रेच्युटी का भुगतान रोक दे? पीठ (ज‌स्ट‌िस रस्तोगी ने इस मुद्दे पर बहुमत से सहमति जताई) ने कहा- "यह माना जाता है कि एक बड़ी सजा, जिसमें सेवा से बर्खास्तगी शामिल है, दी जा सकता है, भले ही कर्मचारी ने सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त की हो और / या सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करने के बाद सेवानिवृत्त‌ि की अनुमति दी गई हो, बशर्ते कर्मचारी सेवा में हो और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई हो, ग्रेच्युटी एक्ट के भुगतान की धारा 4 के उपधारा 6 को लागू किया जाएगा और अनुशासनात्मक कार्यवाही समाप्त होने तक ग्रेच्युटी की राशि को वापस लिया जा सकता है। " केस नं: CIVIL APPEAL NO। 9693 of 2013 केस टाइटल: अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक, महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड बनाम श्री रवींद्रनाथ चौबे कोरम: जस्टिस अरुण मिश्रा, एमआर शाह और अजय रस्तोगी वकील: सीनियर एडवोकेट महाबीर सिंह और अनुकुल चंद्र प्रधान


Wednesday, 27 May 2020

सीआरपीसी धारा 157 : महज मजिस्ट्रेट को FIR भेजने में देरी अभियुक्त को बरी करने का आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट 28 May 2020


सीआरपीसी धारा 157 : महज मजिस्ट्रेट को FIR भेजने में देरी अभियुक्त को बरी करने का आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट 28 May 2020 

 [Section 157 CrPC] Mere Delay In Forwarding FIR To Magistrate By Itself Is Not A Ground To Acquit The Accused सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 157 के अनुपालन के तहत मजिस्ट्रेट को प्राथमिकी (FIR) भेजने में विलंब अपने आप में अभियुक्त को बरी करने का आधार नहीं हो सकता। इस आपराधिक अपील में, अभियुक्त की दलील थी कि प्राथमिकी देर से भेजी गयी थी और इलाका मजिस्ट्रेट (इस मामले के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट) को यह 11 दिन बाद प्राप्त हुई थी। अभियुक्त ओमवीर सिंह ने अभयवीर सिंह भदोरिया उर्फ मुन्ना की हत्या के मामले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (धारा 34 के साथ सहपठित) तथा शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत दोषसिद्धि को चुनौती दी थी।  उक्त दलीलों पर विचार करते हुए, बेंच ने 'जाफेल विश्वास बनाम पश्चिम बंगाल सरकार' मामले में दिये गये फैसले का उल्लेख किया, जिसमें सीआरपीसी की धारा 157 के अमल में विलम्ब और मुकदमे पर इसके कानूनी प्रभाव की समीक्षा की गयी थी। उक्त फैसले में कहा गया था कि रिपोर्ट भेजने में महज देरी के कारण इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि मुकदमा समाप्त हो गया या अभियुक्त उसी आधार पर बरी होने का हकदार हो गया है। इसी निर्णय में आगे कहा गया था,  "मजिस्ट्रेट को प्राथमिकी के बारे में जानकारी देना जांच अधिकारी (आईओ) की जिम्मेदारी है। आईओ को सौंपा गया दायित्व उसका सार्वजनिक कर्तव्य है। लेकिन इस कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि विलम्ब से पेश की गयी रिपोर्ट या किसी प्रकार की चूक के कारण ट्रायल प्रभावित नहीं होगी। रिपोर्ट दाखिल करने में विलम्ब को प्राथमिकी की सत्यता एवं इसके दर्ज करने के दिन एवं तारीख को चुनौती के आधार के तौर पर देखा जाता है।" न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति एम. एम. शांतनगौदर और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की खंडपीठ ने कहा, "इसलिए सीआरपीसी की धारा 157 के अमल में देरी, अपने आप में, अपीलकर्ता को बरी करने का अच्छा आधार नहीं हो सकता है।" बेंच ने रिकॉर्ड में दर्ज साक्ष्यों और तथ्यों का संज्ञान लेते हुए आपराधिक अपील खारिज कर दी। मुकदमे का ब्योरा :- केस नं. :- क्रिमिनल अपील नं. 982/2011 केस का नाम : ओमवीर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार कोरम : न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति मोहन एम. शांतनगौदर और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना

लॉकडाउन के दौरान डिफॉल्ट जमानत का अधिकार 27 May 2020


लॉकडाउन के दौरान डिफॉल्ट जमानत का अधिकार 27 May 2020 

Right To Default Bail During Lockdown - आयुषी मिश्रा और देवयानी सिंह COVID-19 प्रकोप के कारण अदालतों ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से तत्काल मामलों की सुनवाई करने के लिए एक अभूतपूर्व कदम उठाया है। कानूनी पदानुक्रम के सुचारू संचालन के लिए न्यायालयों के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया है कि वह इस संकट के समय के दौरान कार्यशील रहें। हालाँकि न्यायालयों द्वारा उठाए गए उचित उपायों ने वर्तमान समय में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुछ कानूनी मुद्दों और चुनौतियों को भी जन्म दिया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 23 मार्च, 2020 को वादियों द्वारा याचिका/आवेदन/ मुकदमा/अपील /अन्य सभी कार्यवाही दायर करने के लिए परिसीमा अवधि को बढ़ाने का आदेश दिया था। यह भी कहा गया था कि सामान्य कानून के तहत या विशेष कानून (केंद्रीय और /या राज्य दोनों) के तहत परिसीमा अवधि 15 मार्च 2020 तक विस्तारित होगी। जब तक कि इस संबंध में नया आदेश नहीं आ जाता है। 

           इसके अलावा मद्रास हाईकोर्ट ने सेत्तु बनाम राज्य [i],मामले में आरोपियों को यह कहते हुए जमानत दे दी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में विशेष रूप से यह उल्लेख नहीं किया गया है कि जांच पूरी करने के लिए कितना अतिरिक्त समय दिया जाएगा, इसलिए किसी भी मामले में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित अनिवार्य समय सीमा समाप्त होने पर अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत का अधिकार है। 

            हालांकि एस. कासी बनाम राज्य मामले [ii] में इसी हाईकोर्ट ने विरोधाभासी विचार प्रकट किए थे, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 142 को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश न्यायसंगत है और यह सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत परिकल्पित जांच की अवधि पर भी लागू होता है। लॉकडाउन के दिशा-निर्देशों के कारण अगर जांच एजेंसी अपनी जांच पूरी नहीं कर पा रही है तो किसी भी परिस्थिति में उसका लाभ आरोपी को नहीं दिया जा सकता है। नतीजतन, दो आदेशों में विरोधाभास होने के कारण मामले को हाईकोर्ट की एक बड़ी पीठ के पास भेजा गया। वर्तमान कानूनी संकट के दौरान मुविक्कलों को हो ही परेशानी के चलते सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुकदमों /याचिका/ आवेदन/ अन्य सभी कार्यवाही को दायर करने की अवधि बढ़ाने के मुद्दे पर छिड़ी बहस पर केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने भी मोहम्मद अली बनाम केरल राज्य व अन्य के मामले में अपने विचार प्रकट किए थे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने एक मुद्दा उठाया है ''क्या परिसीमा अवधि बढ़ाने का आदेश सीआरपीसी धारा 167 (2) के तहत प्रावधान पर लागू होगा? सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में लीगल कनन्ड्रम के रूप में यह माना गया है कि क्या यह सीआरपीसी की धारा 167 में बताई गई जाँच और पुलिस रिपोर्ट दाखिल करने की समयावधि पर लागू होता है? इस प्रकार गिरफ्तार व्यक्ति को वैधानिक जमानत के अधिकार से वंचित किया गया है। सीआरपीसी की धारा 167 के तहत यह बताया गया है कि क्या एक गिरफ्तार व्यक्ति को कानूनी तौर पर रिमांड पर भेजा जा सकता है और पुलिस द्वारा मामले की जांच कितनी अवधि में पूरी करके रिपोर्ट दायर कर दी जानी चाहिए। वहीं जिन अपराध में फांसी या उम्रकैद या दस साल से कम की सजा का प्रावधान नहीं है, उन मामलों में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत 90 दिन में जांच पूरी करके रिपोर्ट दाखिल कर दी जानी चाहिए अन्यथा आरोपी वैधानिक जमानत का हकदार हो जाएगा। वहीं अन्य मामलों के लिए जांच की यह अवधि 60 दिन की है। अगर इस अवधि में जांच पूरी करके आरोप पत्र दायर नहीं किया जाता है तो आरोपी जमानत का हकदार बन जाता है। यह प्रावधान बताता है कि विधायिका का उद्देश्य विभिन्न अपराधों की जांच एक समय अवधि के भीतर पूरा कराना है। इसका उद्देश्य पुलिस द्वारा जांच में बरती जाने वाली सुस्ती और जेल में बंद व्यक्ति की अनिश्चितकालीन यातना को रोकना है। प्रावधान कहीं भी जांच या अंतिम रिपोर्ट को प्रस्तुत करने में बाधा नहीं डालता है। हालांकि, निर्धारित समय अवधि के पूरा होने के बाद मजिस्ट्रेट को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह अधूरी या प्रारंभिक रिपोर्ट के आधार पर निर्धारित अवधि से अधिक होने पर भी आरोपी को रिमांड पर भेज दें।
    
              [iii] जांच पूरी होने में विफल रहने पर हिरासत में लिए गए व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखने के लिए उक्त प्रावधान प्राधिकरण द्वारा रिमांड को बढ़ाने पर मात्र एक सीमा की तरह काम करते हैं। इस तरह की समयावधि समाप्त होने पर अभियुक्त को वैधानिक जमानत दिया जाना अपरिहार्य अधिकार है। यदि शर्तों को पूरा किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट के पास रिमांड बढ़ाने का अधिकार क्षेत्र नहीं है और इस तरह के विस्तार को अवैध माना जाता है। 

              [iv] यह अधिकार तब भी प्रभावित नहीं होता है जब बाद में अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी जाए। मजिस्ट्रेट का यह दायित्व है कि वह निर्दिष्ट समय के भीतर जांच पूरी न होने पर गिरफ्तार व्यक्ति की स्वेच्छा पर उसे जमानत दे दे। 

              [v] 268 वें विधि आयोग की रिपोर्ट में सुरेश जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य [vi] और संजय दत्त बनाम राज्य,सीबीआई के जरिए [vii],मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पुनःपुष्टि की है, जहां उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अभियुक्त को धारा 167 (2) के तहत जांच पूरी न होने पर ''अपरिहार्य अधिकार'' प्राप्त होता है। इस समय अवधि के समाप्त होने के बाद अभियुक्तों को हिरासत में रखना अवैध है और आरोपी द्वारा जमानत मांगे जाने के बाद मजिस्ट्रेट को उसे जमानत देनी चाहिए। 

                सुप्रीम कोर्ट ने मंटू मजूमदार बनाम बिहार राज्य [viii] ,के मामलों में बंदियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखा था और कहा था कि पुलिस जांच में देरी और मजिस्ट्रेट द्वारा रिमांड प्रक्रिया का यांत्रिक संचालन जेल में बंद कैदियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति असंवेदनशीलता है। 

                   इसके अलावा मेनका गांधी बनाम भारत के संघ [ix] में कहा गया था कि कानून द्वारा असमर्थित किसी भी कार्यकारी कार्रवाई द्वारा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है। इस तरह के प्रतिबंध कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार होने चाहिए जो उचित, न्यायपूर्ण और निष्प्क्ष होनी चाहिए। इसलिए सीआरपी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय सीमा के पीछे का उद्देश्य जांच एजेंसी द्वारा जांच समय पर पूरी करवाना है, ताकि गिरफ्तार व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत मिले उसके अधिकारों का आश्वासन दिया जा सकें और मामले का तेजी से निपटारा हो सके। इस प्रकार इस आदेश का उपयोग गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकार देने से इंकार करने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए। 

             उत्तराखंड हाईकोर्ट [x] ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के संबंध में यह भी कहा है कि आदेश की प्रयोज्यता को इस तथ्य के आलोक में माना जाना चाहिए कि सीआरपीसी की धारा 167 सिर्फ मजिस्ट्रेट की हिरासत की शक्ति की बाहरी सीमा निर्धारित करती प्रतीत होती है। इस प्रकार यह एक अभियुक्त को हिरासत में लेने की अवधि का एक प्रतिबंध है। ताकि जांच बिना किसी परेशानी के जारी रह सकें। 

                 केरल हाईकोर्ट [xi] ने हितेंद्र विष्णु ठाकुर और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्यख्गपप, उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य [xiii] का विश्लेषण किया और दोहराया कि ''जब सुप्रीम कोर्ट ने जब यह देखा कि ऐसे भी मौके आते हैं जब अदालत ही अभियुक्त के अपरिहार्य अधिकार को निराश करती है तो शीर्ष कोर्ट ने माना कि इस तरह के अभ्यास को दृढ़ता से हतोत्साहित किया जाना चाहिए और अभियुक्त के अपरिहार्य अधिकार को हराने के लिए किसी भी प्रकार के उप-आश्रय का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए [xiv] ।'' इसने आगे कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश याचिका / आवेदन /सूट / अपील और अन्य कार्यवाही से संबंधित हैं, जिनमें परिसीमा की अवधि सामान्य कानून के तहत या विशेष कानूनों के तहत निर्धारित है। परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 2 (जे) 'परिसीमा की अवधि' को किसी भी वाद, अपील या अर्जी के लिए निर्धारित परिसीमा की अवधि के रूप में परिभाषित करती है, और 'निर्धारित अवधि' का अर्थ है इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार परिसीमा की अवधि की गणना। यदि ऐसे विस्तार की अनुमति दी जाती है तो यह सीआरपीसी की धारा (167) और धारा 57 के संबंध में अनुच्छेद 21 और 22 का उल्लंघन होगा। आरोपी लंबे समय तक हिरासत में रहेगा और आरोपी अपने अधिकारों से वंचित रह जाएगा और निश्चित रूप से कुछ मामलों में इसका दुरुपयोग होगा। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अचपाल उर्फ रामस्वरुप और एक अन्य बनाम राजस्थान राज्य [xv] में कहा है कि *सीआरपीसी 167 के प्रावधान किसी को भी उस अवधि का विस्तार करने के लिए सशक्त नहीं करते हैं जिसके भीतर जांच पूरी होनी चाहिए और न ही इस तरह की किसी भी घटना का स्वीकार करना चाहिए।* सीआरपीसी धारा 57 और 167 कानून द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया प्रदान करती हैं जो इस अधिकार को यथोचित रूप से लागू करती है। हालाँकि जो प्रावधान किसी अभियुक्त को लंबे समय तक हिरासत में रखने की प्रक्रिया प्रदान करते हैं, उनकी व्याख्या अभियुक्त के संवैधानिक अधिकारों को ध्यान में रखते हुए करनी होगी। इसलिए, न्यायालयों को किसी गिरफ्तार व्यक्ति के ऐसे कानूनी अधिकारों की निष्फलता का सहारा नहीं लेना चाहिए, जो उसे कानून द्वारा दिए गए हों [xvi]। डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को समाप्त करने का कोई भी प्रयास किसी भी प्राधिकरण के लिए स्वीकार्य नहीं है [xvii] ,। आपातकाल की स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत मिले व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से कानून के तहत स्थापित प्रक्रिया और कार्यवाही के सिवाय समझौता नहीं किया जा सकता है।
                                       --: निष्कर्ष :-- 

          प्रत्येक व्यक्ति को भारत के संविधान के तहत परिकल्पित अधिकारों का आनंद लेने का अधिकार है। हालाँकि, हिरासत के मामले में ये अधिकार एक उचित आशंका के साथ प्रतिबंधित हो जाते हैं ताकि जांच में हिरासत में लिया गया व्यक्ति सहायता कर सकें। हालांकि वाजिब प्रतिबंध का अर्थ यह है कि थोपी गई परिसीमा मनमानी नहीं होनी चाहिए या स्वतंत्रता और न्याय के मूल सिद्धांत की विरोध नहीं होनी चाहिए। यदि सीआरपीसी में निर्धारित समय सीमा के विरुद्ध आरोपी पर लगाए गए प्रतिबंधों को विस्तारित किया जाता है, तो उसे विस्तारित क्षितिज में अत्यधिक प्रकृति की संज्ञा दी जाएगी। एक अनुचित समय में लगाया गया प्रतिबंध भी यथोचित रूप से वर्गीकृत होना चाहिए। COVID 19 के कारण उत्पन्न हुई पूर्ववर्ती स्थिति ने अदालतों के सामने यह स्थिति बना दी है कि वह तत्काल मामलों को निपटाने के लिए असाधारण उपाय को अपनाएं। जमानत देने के मामलों में महामारी के प्रभाव को असाधारण रूप से जांचना होगा। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इसे आंका जाना चाहिए। जमानत देने के मामले में एक अक्षम्य सूत्र नहीं हो सकता है। शीर्ष अदालत द्वारा मुविक्कलों की परेशानियों को कम करने के लिए याचिका / मुकदमे /आवेदन /अपील दायर करने में परिसीमा के विस्तार के लिए दिए गए आदेशों का लाभ जांच एजेंसियों को नहीं लेना चाहिए ताकि वह अपनी अंतिम रिपोर्ट दायर करने में हुई देरी को उचित ठहरा पाएं ओर इस तरह सीआरपीसी की धारा 57 और 167 के तहत मिली अवधि का विस्तार करा पाएं। न ही इस आधार पर आरोपी को धारा 167 (2) के तहत मिले जमानत के वैधानिक अधिकार का उपयोग करने से मना किया जा सकता है। कानून प्रवर्तन एजेंसी न्यायिक आदेशों के पीछे नहीं छिप सकती है और न ही कानूनों के आदेशों का पालन न करने के विकल्प का चुनाव कर सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय की धारा 167 (2) के प्रकाश में परिसीमा अधिनियम की व्याख्या इस मामले में विराजमान संघर्ष को बढ़ावा ही देगी। इसलिए इस भ्रम को पूरी तरह से खत्म करना महत्वपूर्ण है और यह कोई अकेले में विचार-विमर्श का मामला नहीं है। जमानत देने में दिए गए अलग-अलग विचार उक्त प्रावधान के पीछे के उद्देश्य को खत्म करने का कारण बन रहे हैं। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को स्पष्ट करके अधिसूचित किया जाना चाहिए।
 
यह सभी विचार व्यक्तिगत

 [i] CRL OP (MD). No.5291 of 2020 
[ii] CRL OP (MD). No. 5296/2020 
[iii] Uday Mohanlal Acharya, reported in 2001 AIR(SC) 1910 
[iv] Aslam Babalal Desai v. State of Maharashtra: 1992 4 SCC 272 
[v] Union of India Vs. Hassan Ali Khan and another 2011(10 ) SCC 235 
[vi] (2013) 3 SCC 77 
[vii] (1994) 5 SCC 410 
[viii] AIR 1980 SC 846 
[ix] 1978 AIR 597 
[x] Vivek Sharma v. State of Uttarakhand 
[xi] Mohammed Ali v. State of Kerala & Anr. 
[xii] 1994 (4) SCC 602 
[xiii] 2001 950 SCC 453 
[xiv] Mohammed Iqbal Madar Sheikh v. State of Maharashtra: (1996) 1 SCC 722 
[xv] (2019) 14 SCC 599 
[xvi] Union of India through CBI v. Nirala Yadav: (2014) 9 SCC 457 
[xvii] Rakesh Kumar Paul v. State of Assam: (2018) 1 SCC (Cri) 401

Wednesday, 20 May 2020

दुर्घटना मुआवजाः सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कर्मचारी की आय का निर्धारण, भत्तों की कटौती के बिना, उसकी एन्टाइटल्मन्ट से हो 20 May 2020


दुर्घटना मुआवजाः सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कर्मचारी की आय का निर्धारण, भत्तों की कटौती के बिना, उसकी एन्टाइटल्मन्ट से हो 20 May 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को 2010 मंगलौर एयर क्रैश से संबंधित एक व्यक्तिगत मामले में 7,64,29,437 का मुआवजा दिया। त्रिवेणी कोडकनी बनाम एयर इंडिया लिमिटेड व अन्य के फैसले में राष्ट्रीय बीमा कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी में निर्धारित मुआवजे की गणना से संबंधित सिद्धांतों की चर्चा की गई और लागू किया गया। मामले के तथ्य जीटीएल ओवरसीज के मध्य पूर्वी क्षेत्र के क्षेत्रीय निदेशक के रूप में कार्यरत एक प्रवासी की 22 मई, 2010 को एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। एयर इंडिया एक्सप्रेस की वह उड़ान दुबई से मंगलौर जा रही थी और मंगलौर हवाई अड्डे पर दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी।  10 मार्च, 2011 को, उनकी पत्नी ने एयर इंडिया पर मुआवजे के लिए दावा ठोका, सिजने उन्हें क्षतिपूर्ति के रूप में 20 मार्च, 2012 को 4,00,70,000 रुपए की राशि का भुगतान किया। मृतक के माता-पिता को भी 40 लाख रुपए का भुगतान किया गया। 18 अप्रैल, 2012 को, मृतक के माता-पिता और भाई ने मुआवजे का दावा करने के लिए एयर इंडिया के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया, और ट्रायल कोर्ट ने 27 सितंबर, 2018 को अपने फैसले में मृतक की मां के दावे के रूप 70 लाख की राश‌ि स्वीकार की, पिता और भाई के दावों को खारिज कर दिया।  वर्तमान अपील 18 मई, 2012 को एनसीडीआरसी के समक्ष मृतक के पत्नी, पुत्र और पुत्री द्वारा मुआवजे के दावा के रूप में दायर की गई थी, जिसमें दुर्घटना की तारीख से 18% प्रति वर्ष की दर से ब्याज सहित 13.42 करोड़ रुपए मुआवजे की मांग की गई ‌थी। एनसीडीआरसी ने शिकायत की अनुमति दी थी और 7,35,14,187 रुपये का अंतिम मुआवजा दिया था और कहा था कि माता-पिता को 40 लाख की रुपये की राशि का भुगतान के अलावा, शिकायतकर्ताओं को 4 करोड़ रुपए का भुगतान किया जा चुका हैख्‍ जिन्हें अंतिम मुआवजे में से काटा जाना था। 2,95,14,187 रुपए मूल राशि का बकाया निर्धारित किया गया और 22 मई 2010 से उस तारीख तक, जिस दिन मृतक के माता-पिता को 40 लाख का भुगतान किया गया था, 9% प्रति वर्ष की दर से साधारण ब्याज दिया गया। शिकायतकर्ताओं को 6,95,14,187 रुपए की राशि के ब्याज का हकदार ठहराया गया, यह मृतक के माता-पिता को भुगतान किया जाने की तारीख से लेकर शिकायतकर्ताओं को 4 करोड़ का भुगतान किया जाने की तारीख तक प्रभावी रहा। उन्हें शेष राशि पर ब्याज का हकदार भी माना गया। अंतिम मुआवजे की गणना में, एनसीडीआरसी ने 10 दिसंबर 2018 के अपने फैसले में, कुल आय (कंपनी के लिए वार्षिक लागत) से एईडी 30,000 के टेलीफोन भत्ते की कटौती की और कनवर्सन रेट को अपनाया, जो एनसीडीआरसी के समक्ष दर्ज शिकायत में अपनाया गया था। इस कार्यवाही में क्रॉस अपील दायर की गई थी, जिसमें शिकायतकर्ताओं द्वारा पहली अपील दायर की गई थी। प्रस्तुतियां शिकायतकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता यशवंत शेनॉय ने चार प्रस्तुतियां दीं: (i) एनसीडीआरसी ने नियोक्ता द्वारा पेश रिकॉर्ड में दी गई मृतक की कुल सीटीसी से एईडी 30,000 की कटौती करने में गलती की। (ii) राष्ट्रीय बीमा कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी में संविधान पीठ के फैसले को ध्यान में रखते हुए भविष्य की संभावनाओं के लिए पच्चीस प्रतिशत के बजाय तीस प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि की जानी चाहिए थी। (iii) AED को INR में परिवर्तित करने की दर इस न्यायालय के फैसले की तिथि के दिन प्रचलित दर पर ली जानी चाहिए थी, न कि 12.50 AED जो एनसीडीआरसी के समक्ष दर्ज शिकायत के समय प्रचलित दर थी। (iv) मृतक के वेतन की ही गणना की गई न कि आय ‌‌‌की। मृतक वेतन के अलावा इम्‍प्लॉयीज़ स्टॉक ऑप्‍शन (ईएसओपी) सहित अन्य लाभों का हकदार था, जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। एयर इंडिया की ओर से वकील जतिंदर कुमार सेठी ने निम्नलिखित प्रस्तुतियां दीं: (i) एनसीडीआरसी ने मृतक के व्यक्तिगत खर्च की ओर पांचवें हिस्से की की कटौती करने की गलती की। उचित कटौती एक तिहाई होनी चाहिए थी, क्योंकि एनसीडीआरसी के समक्ष शिकायतकर्ता पत्नी और दो नाबालिग बच्चों थे। (ii) एयर इंडिया ने शिकायतकर्ताओं और मां को ब्याज सहित 10.46 करोड़ रुपए का मुआवजा दिया, एयर इंडिया की अनिश्चित वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह पर्याप्त मुआवजा था। (iii) AED 40, 957 के रूप में टेलीफोन भत्ते और परिवहन भत्ते के रूप में जो कटौती की गई, उसे मुआवजे की गणना करते समय मृतक के वार्षिक वेतन से भी काटा जाना चाहिए था। फैसला जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और अजय रस्तोगी की खंडपीठ ने निम्नलिखित बातें कहीं: गणना के प्रयोजन के लिए टेलीफोन/यात्रा भत्ता बाहर नहीं होगा खंडपीठ ने कहा कि किसी कर्मचारी की मृत्यु से उत्पन्न मुआवजे के दावे में, कर्मचारी की पात्रता के आधार पर आय का आकलन किया जाना चाहिए। इसलिए, नियोक्ता द्वारा किया गया वेतन में द्विभाजन कुल सीटीसी से कटौती करने का कोई आधार प्रदान नहीं करता है। "नियोक्ता द्वारा वेतन में विभिन्न मदों में किया गया विभाजन कई कारणों से किया जा सकता है। हालांकि, कर्मचारी की मृत्यु से उत्पन्न मुआवजे के दावे में, आय का आकलन कर्मचारी की पात्रता के आधार पर किया जाना चाहिए। हम इसलिए AED 4,82,395 की वार्षिक आय के आधार पर गणना के के लिए आगे बढ़ें।" कोर्ट ने कहा, समेकित राशि नियोक्ता द्वारा मृतक को प्रतिवर्ष दी जाने वाली राशि है। "इसलिए, हम उन कारणों को स्वीकार करने में असमर्थ हैं, जिन कारणों से कुल सीटीसी से एईडी 30,000 की कटौती करने की गई। इसी कारण से, हम एयर इंडिया की दलीलों को स्वीकार करने में असमर्थ हैं कि परिवहन भत्ता को बाहर रखा जाना चाहिए।" साक्ष्य की अनुपस्थिति में, अतिरिक्त लाभ, परफॉर्मेंस इन्सेंटिव्स को वेतन की गणना में शामिल नहीं किया जा सकता है ईएसओपी जैसे अतिरिक्त वित्तीय लाभों की पात्रता के संबंध में शेनॉय की प्रस्तुतियों को कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री में यह नहीं बताया गया है कि कि मृतक ईएसओपी के हकदार थे। साथ ही, अन्य प्रोत्साहन और वित्तीय लाभ प्रदर्शन से जुड़े थे। इसलिए, वह वार्षिक आधार पर कुछ लाभों के पात्र थे, हालांकि वे अधिकार नहीं थे। इस आधार पर, खंडपीठ यह स्वीकार करने की इच्छुक नहीं है कि प्रोत्साहन लाभ को गणना के उद्देश्य से आय में जोड़ा जाना चाहिए। व्यक्तिगत खर्चों की कटौती परिवार के निर्भर सदस्यों की संख्या के आधार पर एक चौथाई होनी चाहिए खंडपीठ ने प्रणय सेठी के मामले में संविधान पीठ के फैसले का उल्लेख किया, जो मोटर वाहन अधिनियम के तहत मुआवजा निर्धारित करने के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया था। फैसले में आगे सरला वर्मा बनाम दिल्ली परिवहन निगम के फैसले पर भरोसा किया गया। कोर्ट ने अंत में अपने फैसले में कहा, "उपरोक्त मदों के आधार पर कुल देय राशि 7,64,29,437 रुपये है। एनसीडीआरसी द्वारा प्रदान की गई नौ प्रतिशत प्रति वर्ष की दर पर ब्याज का भुगतान उसी आधार पर किया जाएगा।" 

धारा 156 (3) सीआरपीसी: क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश? 20 May 2020


धारा 156 (3) सीआरपीसी: क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश? 20 May 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने 19-मई-2020 (मंगलवार) को रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी द्वारा दाखिल याचिका, जिसमे उन्होंने अपने केस को महाराष्ट्र पुलिस से सीबीआई को हस्तांतरित करने की मांग की थी, उसे खारिज कर दिया। जांच के तरीके से आरोपी का नाराजगी जांच CBI को ट्रांसफर करने का आधार नहीं बन सकती : सुप्रीम कोर्ट दरअसल, गोस्वामी ने मुंबई पुलिस की निष्पक्षता पर संदेह जताते हुए सीबीआई को अपने मामले का अन्वेषण स्थानांतरित करने की मांग इस याचिका में की थी। 
 जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस एम. आर. शाह की पीठ ने यह कहा कि इस तरह का ट्रांसफर, "असाधारण रूप से" और "असाधारण परिस्थितियों में" इस्तेमाल की जाने वाली एक "असाधारण शक्ति" है। पीठ ने कहा कि सीबीआई को मामले का अन्वेषण स्थानांतरित करना कोई नियमित बात नहीं है। उल्लेखनीय है कि भारत में सीबीआई एक विशेष अन्वेषण एजेंसी के रूप में स्थापित की गयी है, और सीबीआई, DSPE (दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना) अधिनियम, 1946 से किसी अपराध का अन्वेषण करने के लिए अपनी कानूनी शक्तियां प्राप्त करती है।  एक पिछले लेख में, हम सीबीआई के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। उस लेख में हमने यह जाना था कि आखिर CBI किसी मामले का अन्वेषण कब करती है? और क्या हैं वह परिस्थितियां अब सीबीआई अन्वेषण के आदेश दिए जा सकते हैं। जैसा कि हम जानते ही हैं कि अर्नब गोस्वामी ने अपने मामले के अन्वेषण को सीबीआई को हस्तांतरित करने की मांग उच्चतम न्यायालय से की थी, लेकिन क्या वह ऐसी मांग उच्च न्यायालय या एक सम्बंधित मजिस्ट्रेट से कर सकते थे? इस लेख में हम सीमित अर्थों में यह समझेंगे कि क्या एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) सीआरपीसी के अंतर्गत, सीबीआई अन्वेषण का आदेश दे सकता है? उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा अन्वेषण का आदेश उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल राज्य बनाम कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स, (2010) 3 एससीसी 571 के मामले में अदलत ने यह अभिनिर्णित किया था कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के पास सीबीआई द्वारा अपराध की जांच के आदेश देने का अधिकार है, और इस उद्देश्य के लिए दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के तहत राज्य सरकार की सहमति की भी आवश्यकता नहीं है। इस मामले में विशेष रूप से उच्चतम न्यायालय ने यह देखा था कि चूँकि उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय, नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक होते हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट और तमाम हाईकोर्ट के पास सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण सौंपने की न केवल शक्ति और अधिकार क्षेत्र है, बल्कि मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का ऐसा करना उनका दायित्व भी है। हालाँकि, अर्नब गोस्वामी बनाम भारत संघ [Writ Petition (Crl) No. 130 of 2020 with Writ Petition (Crl.) Diary No. 11189 of 2020] के फैसले की रौशनी में अब यह कहा जा सकता है कि, सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट अवश्य ही सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण सौंप सकते हैं, हालाँकि, सीबीआई को किसी मामले का अन्वेषण [रेगुलर अन्वेषण एजेंसी (राज्य की पुलिस) से] केवल इसलिए हस्तांतरित नहीं किया जा सकता कि एक पक्षकार ने स्थानीय पुलिस के खिलाफ कुछ आरोप लगाए हैं। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय ने अर्नब गोस्वामी के मामले में यह भी साफ़ कर ही दिया है कि अन्वेषण के तरीके से आरोपी की नाराजगी, मामले के अन्वेषण को CBI को ट्रांसफर करने का आधार नहीं बन सकती है। ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक अन्वेषण एजेंसी के पास अन्वेषण के सम्बन्ध में निर्देश देने का विवेक निहित है, जो सवाल और पूछताछ के तरीके की प्रकृति का निर्धारण करता है। यह स्थिति पी. चिदंबरम बनाम प्रवर्तन निदेशालय (2019) 9 SCC 24 के मामले में भी साफ़ की गयी थी। क्या मजिस्ट्रेट दे सकता है CBI अन्वेषण (Investigation) का आदेश? सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अनुसार, कोई भी सशक्त मजिस्ट्रेट, धारा 190 सीआरपीसी के अंतर्गत, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को किसी भी संज्ञेय अपराध का अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है। दूसरे शब्दों में, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3), किसी भी संज्ञेय मामले की जांच करने के लिए एक मजिस्ट्रेट को पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को निर्देशित करने का अधिकार देती है, जिस पर ऐसे मजिस्ट्रेट का अधिकार क्षेत्र है। हाँ, यह अवश्य है कि जब एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश देता है, तो वह केवल ऐसा अन्वेषण करने के लिए एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को ही निर्देशित कर सकता है, न कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को। हालांकि, यहाँ यह बात साफ़ तौर पर समझ ली जानी चाहिए कि ऐसा वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, सीआरपीसी की धारा 36 के आधार पर अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है और स्वयं भी ऐसे किसी मामले का अन्वेषण कर सकता है, जिस मामले का अन्वेषण करने को उस अधिकारी के अधीनस्थ कार्यरत किसी अधिकारी को निर्देशित किया गया है। गौरतलब है कि, केरल राज्य बनाम कोलाक्कन मूसा हाजी 1944 Cri LJ 1288 (Ker) के मामले में केरल हाईकोर्ट ने और कुलदीप सिंह बनाम राज्य 1994 Cri LJ 2502 (Del) के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह साफ़ किया था कि, एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा किसी अन्य एजेंसी को अन्वेषण का आदेश देने की अथॉरिटी नहीं रखता है। उल्लेखनीय है कि इंदुमती एम. शाह बनाम नरेन्द्र मुल्जीभाई असरा 1995 Cri LJ 918 के मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने यह बात दोहराई थी कि धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत अधीनस्थ अदालत, धारा 156 के तहत संदर्भित को छोड़कर, किसी अन्य प्राधिकरण को किसी मामले का अन्वेषण नहीं सौंप सकती। दरअसल इस मामले में मजिस्ट्रेट ने धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत, सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का निर्देश दिया था। इसी निर्देश को इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने अवैध और अनुचित माना था। कर्नाटक हाईकोर्ट ने कर्नाटक राज्य बनाम थम्मैयाह 1999 Cri LJ 53 के मामले में भी यह साफ़ किया था कि एक मजिस्ट्रेट के पास सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत, केवल ऐसे पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी को, जो उसके अधिकार क्षेत्र में आता है, यह निर्देश देने की शक्ति है कि वह किसी मामले का अन्वेषण करे। इसी मामले में अदालत ने यह देखा था कि एक मजिस्ट्रेट के पास, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर के किसी भी पुलिस अधिकारी को, जिसमें सीओडी या सीबीआई शामिल है, निर्देश देने की न तो अनुमति है और न ही अधिकार क्षेत्र। इसके अलावा, सीबीआई बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (2001) 3 SCC 333 के निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि एक मजिस्ट्रेट, सीआरपीसी की धारा 156(3) के अंतर्गत अपनी शक्तियों के उपयोग में, एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को अन्वेषण का निर्देश देने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता है, और ऐसा कोई भी आदेश, एक मजिस्ट्रेट द्वारा सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है। इन सभी मामलों की रौशनी में यह जाहिर हो जाता है कि सीबीआई द्वारा अन्वेषण किये जाने का आदेश देने का अधिकार, एक मजिस्ट्रेट के पास नहीं होता है, और इसीलिए कभी भी ऐसा आवेदन एक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर नहीं किया जाता है, क्योंकि सीबीआई को अन्वेषण के लिए निर्देशित करने का अधिकार एक मजिस्ट्रेट के पास नहीं होता है। इसी क्रम में, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य, (2007) 6 SCC 156 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त सिद्धांत को दोहराया है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रियल पावर को बढ़ाया नहीं जा सकता। एक थाने के प्रभारी अधिकारी को जांच का निर्देश देने से परे और ऐसा कोई निर्देश सीबीआई को नहीं दिया जा सकता है। दरअसल, सीबीआई बनाम गुजरात राज्य मामले में एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सीबीआई को एक मामले का अन्वेषण करने का आदेश दे दिया था, जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुचित ठहराया था। अंत में, जैसा कि तमाम मामलों से साफ़ है, एक मजिस्ट्रेट, धारा 156 (3) सीआरपीसी के अंतर्गत अपनी शक्तियों के प्रयोग में किसी मामले के अन्वेषण को सीबीआई को नहीं सौंप सकता है। वह केवल एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी (अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर) को अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।

Tuesday, 19 May 2020

चार्जशीट दायर करने में हुई देरी के कारण POCSO मामलों में अभियुक्त को जमानत मिलना गंभीर चिंता का विषय


*"चार्जशीट दायर करने में हुई देरी के कारण POCSO मामलों में अभियुक्त को जमानत मिलना गंभीर चिंता का विषय"* कलकत्ता हाईकोर्ट ने दिया धारा 164 के तहत तत्काल बयान दर्ज करने का निर्देश 19 May 2020

कलकत्ता हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि यह *''एक गंभीर चिंता का विषय''* है कि लाॅकडाउन के चलते सीआरपीसी की धारा 164 के तहत न्यायिक बयान दर्ज नहीं करवाया जा सका और POCSO से संबंधित केस में आरोप पत्र दायर करने में देरी हो गई, जिसके परिणामस्वरूप मामले के आरोपी को जमानत मिल गई। 
            उच्च न्यायालय ने जिला न्यायाधीश को निर्देश दिया है कि वह यह सुनिश्चित करें कि बिना किसी देरी के POCSO से संबंधित मामलों में आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत बयान दर्ज कर लिए जाएं।  दिल्ली ज़िला और सत्र जज (HQ) पीठ इस मामले में वेस्ट बंगाल कमीशन फाॅर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की एक रिपोर्ट पर विचार कर रही थी। पीठ ने आशंका व्यक्त करते हुए कहा कि एक आरोपी को सिर्फ इसलिए जमानत मिल गई क्योंकि आरोप पत्र दायर करने की वैधानिक अवधि समाप्त हो गई थी। इस तरह के मामले पीड़ित और गवाहों के मन में भय पैदा कर सकते हैं। पीठ ने कहा कि राज्य सरकार इस मामले में 2 सप्ताह में हलफनामा दायर करे,

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/granting-bail-to-accused-in-pocso-cases-due-to-delayed-filing-of-chargesheets-matter-of-great-concern-156983

Thursday, 14 May 2020

आरोपी को भगौड़ा घोषित किए जाने के बाद भी उसका अग्रिम जमानत आवेदन सुनवाई योग्य : मध्यप्रदेश हाईकोर्ट 14 May 2020


आरोपी को भगौड़ा घोषित किए जाने के बाद भी उसका अग्रिम जमानत आवेदन सुनवाई योग्य : मध्यप्रदेश हाईकोर्ट 14 May 2020 

 ‘‘अग्रिम जमानत की मांग करने वाले व्यक्ति के खिलाफ किसी रोक का कोई अस्तित्व नहीं है।’’ मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने मंगलवार को कहा है कि सीआरपीसी की धारा 82 के तहत एक अभियुक्त को भगौड़ा घोषित करना भी उसे अग्रिम जमानत की मांग के लिए आवेदन दाखिल करने से नहीं रोक सकता। राज्य सरकार ने कहा था कि आरोपी भगौड़ा है और अभी मामले की जांच में उसकी आवश्यकता है, इसलिए शादी के बहाने बलात्कार करने वाले इस 40 वर्षीय आरोपी की तरफ से दायर अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है। अदालत को बताया गया था कि पुलिस अधीक्षक, ग्वालियर ने 30 जनवरी 2020 को आरोपी की गिरफ्तारी पर पांच हजार रुपये का इनाम घोषित किया था। Also Read - गुजरात हाईकोर्ट ने लॉकडाउन की मुश्किलों पर लिया स्वतः संज्ञान; कहा, लोग भूखे हैं, प्रवासी श्रमिक सबसे ज़्यादा बेहाल इसके लिए लवेश बनाम राज्य ( एनसीटी ऑफ दिल्ली) (2012) 8 एससीसी 73, मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का हवाला दिया गया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि - ''जब किसी व्यक्ति के खिलाफ एक वारंट जारी किया जाता है और वह वारंट के निष्पादन से बचने के लिए फरार है या खुद को छिपा रहा है। ऐसे में अगर उसे कोड की धारा 82 के संदर्भ में भगौड़ा आरोपी घोषित कर दिया जाता है तो इसके बाद वह अग्रिम जमानत की राहत का हकदार नहीं रह जाता है।'' Also Read - 'तब्लीगी जमात के सदस्यों में COVID-19 का खुलासा होने के बाद दिए गए बयान और मीडिया रिपोर्ट से बनता है 'हेट स्पीच' का मामला,' कर्नाटक हाईकोर्ट में भगौड़े का आवेदन ''पात्रता'' खोता है, सुनवाई की योग्यता नहीं न्यायमूर्ति आनंद पाठक की पीठ ने इस फैसले की व्याख्या देते हुए इस बात पर जोर दिया कि यह निर्णय किसी व्यक्ति के भगौड़ा घोषित होने के बाद उसके अग्रिम जमानत आवेदन की ''अनुरक्षणीयता'' के बारे में बात नहीं करता है, लेकिन यह केवल सुझाव देता है कि भगौड़ा व्यक्ति जमानत के लिए अपनी ''पात्रता' खो देता है। कोर्ट ने जोर देते हुए कहा कि ''लवेश (सुप्रा) के उपर्युक्त पैरा में प्रयुक्त ''एंटाइटल्ड या पात्रता'' शब्द से ही पता चलता है कि यह मुख्य रूप से तथ्यों या योग्यता के आधार पर अधिकार के बारे में बात करता है न कि अनुरक्षणीयता के बारे में। इस पहलू को विस्तार से बताते हुए अदालत ने कहा, ''... शीर्ष अदालत के अनुसार, एक व्यक्ति जिसे सीआरपीसी की धारा 82 व 83 के तहत आरोपी भगौड़ा घोषित कर दिया जाता है उसके बाद वह अग्रिम जमानत लेने के लिए योग्यता के आधार पर अपनी चमक खो देता है। अगर उसे सीआरपीसी की धारा 82 के तहत फरार घोषित कर दिया जाता है तो उसका आवेदन योग्यता के आधार पर खारिज करने योग्य है, परंतु उसका आवेदन निश्चित रूप से सुनवाई योग्य है।'' क्षणिक प्रावधान के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संक्षिप्त नहीं किया जा सकता अदालत ने यह भी बताया कि सीआरपीसी की धारा 82 और 83 की प्रकृति क्षणिक/अंतरिम/अस्थायी है और सीआरपीसी की धारा 84-86 के तहत कार्रवाई के अधीन है। कोर्ट ने माना है कि '' इसलिए कम से कम अग्रिम जमानत मांगने के लिए किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्यवान अधिकार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में इस गणना के आधार पर भी सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दायर आवेदन सुनवाई योग्य है, भले ही एक व्यक्ति को सीआरपीसी की धारा 82 के संदर्भ में भगौ‌ड़ा घोषित कर दिया गया हो।'' जब तक अभियुक्त गिरफ्तार नहीं हो जाता, तब तक अग्रिम जमानत अर्जी सुनाई योग्य न्यायालय ने गुरबख्श सिंह सिबिया बनाम पंजाब राज्य,एआईआर 1980 एससी 1632 मामले में दिए गए फैसले के संदर्भ में एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को प्रबल करते हुए कहा कि जब तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता, तब तक उसकी तरफ से दायर अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है। अदालत ने कहा कि ''लवेश और प्रदीप शर्मा (सुप्रा) के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा सुनाए गए फैसले में कही भी यह रोक नहीं लगाई गई है कि सीआरपीसी की धारा 82 और 83 के तहत किसी व्यक्ति को फरार घोषित किए जाने के बाद सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दायर किया गया आवेदन अनुरक्षणीय या सुनवाई योग्य नहीं होगा। अन्यथा लवेश और प्रदीप शर्मा (सुप्रा) मामले में दिया गया यह फैसला 'गुरबख्श सिंह सिबिया आदि(सुप्रा) और सुशीला अग्रवाल व अन्य (सुप्रा)' के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले के साथ ही 'भरत चौधरी व अन्य (सुप्रा)' के साथ-साथ 'रवींद्र सक्सेना (सुप्रा)' के मामले में शीर्ष अदालत की दो जजों की बेंच द्वारा दिए गए फैसलों के अर्थ और भावना के अनुरूप नहीं हो पाता। चूंकि इन सारे फैसलों में जजों ने स्पष्ट रूप से माना है कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी तब तक अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है, जब तक आरोपी गिरफ्तार नहीं हो जाता है।'' सिर्फ गिरफ्तारी के लिए नगद-पुरस्कार की घोषणा नहीं बनाती धारा 82 को प्रभावी मामले के तथ्यों पर आते हुए अदालत ने कहा कि पुलिस अधीक्षक ने केवल आवेदक की गिरफ्तारी पर एक इनाम घोषित किया था, और सीआरपीसी की धारा 82 के तहत कोई कार्रवाई शुरू नहीं की गई थी। इस संदर्भ में न्यायालय ने कहा कि- ''वर्तमान मामले में सीआरपीसी की धारा 82 के तहत शुरू की कार्रवाई को अभी तक (केस-डायरी के अनुसार) पूरा नहीं किया गया है और केवल पुलिस अधीक्षक ने 5000 रुपये की नकद राशि के पुरस्कार घोषणा की है। अग्रिम जमानत अर्जी पर निर्णय करते समय निश्चित रूप से यह एक विचार करने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य है, परंतु अग्रिम जमानत अर्जी दाखिल करने से रोकने के लिए इसका अधिभावी प्रभाव नहीं हो सकता। इसलिए इस न्यायालय का मानना है कि भले ही पुलिस प्राधिकरण ने पुरस्कार घोषित कर दिया हो या फरारी पंचनामा तैयार कर लिया हो तब भी अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य है। हालांकि इस बात का निर्णय योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए कि क्या इस अर्जी पर विचार किया जाना चाहिए और इसे सीआरपीसी की धारा 438 में शामिल कारकों के अनुसार स्वीकार किया जाना चाहिए? यदि इस धारा में दिया गया कोई भी कारण संतुष्ट नहीं होता है तो न्यायालय को निश्चित रूप से इसे अस्वीकार करने का अधिकार है। 'गुरबख्श सिंह सिबिया आदि (सुप्रा)' के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के फैसले द्वारा उक्त विवेक या अधिकार कोर्ट को दिया गया है।'' योग्यता या तथ्यों पर विचार किया आवेदक-अभियुक्त पर आईपीसी की धारा 376, 386, 506 के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाया गया था। अभियोजन पक्ष का यह कहना था कि आवेदक ने शादी के बहाने पीड़िता से बलात्कार किया गया था। यह भी आरोप है कि उसने कथित तौर पर किसी अन्य लड़की से शादी कर ली है। हालांकि अदालत ने माना कि पीड़िता व आवेदक दोनों घटना के समय ''परिपक्व'' थे और एक समझौते पर पहुंचने की कोशिश की थी। ''जैसा कि बताया भी गया है कि पहले दोनों पक्षों ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत याचिका नंबर 930/2020 दायर कर इस मामले को निपटाने की कोशिश भी की थी। दोनों परिपक्व व्यक्तियों ने अपने फैसलों के परिणामों की प्रतीक्षा की और दोनों ने कुछ दिन आराम से साथ भी गुजारे।'' इन परिस्थितियों में न्यायालय ने 'प्रमोद सूर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य,एआईआर 2019 एसी 4010' मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया है। कोर्ट ने माना कि ''शरीर व आत्मा के बीच सहमति ने बनी निकटता का उपयोग, उस समय प्रतिशोध के हथियार के रूप नहीं किया जा सकता है जब बाद में शरीर और आत्मा अलग हो जाते हैं।'' उपरोक्त मामले में भी शीर्ष अदालत ने कहा था कि यदि शादी के बहाने भी शारीरिक अंतरंगता विकसित हो जाती है तो भी इससे बलात्कार का अपराध नहीं बनता है। इसलिए अदालत ने इस मामले की योग्यता या तथ्यों पर कोई राय व्यक्त किए बिना ही आरोपी की अग्रिम जमानत अर्जी को स्वीकार कर लिया है। अदालत ने कहा है कि जांच अधिकारी की संतुष्टि के लिए आरोपी को एक लाख रुपये की राशि का व्यक्तिगत बांड भरना होगा या प्रस्तुत करना होगा। वहीं उसे आरोग्य सेतु ऐप भी डाॅउनलोड करनी होगी। विशेष रूप से, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ऐसे दर्जनों आदेश दे चुकी है, जिनमें जमानत पर रिहा किए गए अभियुक्तों को निर्देश दिया गया है कि वह अनिवार्य रूप से आरोग्य सेतु ऐप का उपयोग करें। जबकि इस ऐप के कारण सुरक्षा और डेटा संरक्षण को लेकर व्यक्त की गई चिंता पर पिछले दिनों ही बहस हुई है। मामले का विवरण- केस शीर्षक-बलवीर सिंह बुंदेला बनाम मध्य प्रदेश राज्य केस नंबर- मिसलेनीअस क्रिमिनल केस नंबर 521/ 2020 कोरम-जस्टिस आनंद पाठक

Wednesday, 13 May 2020

मुस्लिम महिला के तलाक लेने के अधिकार, कौन सी परिस्थितियों में मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती है 8 May 2020

मुस्लिम महिला के तलाक लेने के अधिकार, कौन सी परिस्थितियों में मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती है 8 May 2020 


 लगभग सभी प्राचीन राष्ट्रों में विवाह विच्छेद दांपत्य अधिकारों का स्वाभाविक परिणाम समझा जाता है। रोम वासियों, यहूदियों, इसरायली आदि सभी लोगों में विवाह विच्छेद किसी न किसी रूप में प्रचलित रहा है। इस्लाम आने के पहले तक पति को विवाह विच्छेद के असीमित अधिकार प्राप्त थे। मुस्लिम विधि में तलाक को स्थान दिया गया है परंतु स्थान देने के साथ ही तलाक को घृणित भी माना गया है। पैगंबर साहब का कथन है कि जो मनमानी रीति से पत्नी को अस्वीकार करता है, वह खुदा के शाप का पात्र होगा। पैगम्बर के निकट मनमाना तलाक अत्यंत बुरे कार्यों में से एक है। मुस्लिम विधि में तलाक देने का अधिकार पुरुष के पास है, परंतु मुस्लिम स्त्री को भी तलाक मांगने का अधिकार है, वह न्यायालय में जाकर अपने विवाह को विघटित करवाने हेतु पति से तलाक मांग सकती है। इस लेख के माध्यम से एक मुस्लिम स्त्री के तलाक मांगने के अधिकारों पर चर्चा की जा रही है.. कोई मुस्लिम पुरुष किसी मुस्लिम स्त्री को आकारण भी तलाक देने का अधिकार रखता है। मुस्लिम विवाह में तलाक यदि पुरुष का अधिकार है तो 'मेहर' स्त्री का अधिकार है, परंतु इतना होने के बाद भी शरीयत के विधान के अधीन भारतीय संसद का बनाया हुआ कानून एक भारतीय मुस्लिम स्त्री को अपने पति से तलाक मांगने का अधिकार देता है। तलाक ए ताफवीज़ ताफ़वीज़ का अर्थ होता है- प्रत्यायोजन। प्रत्यायोजन का अर्थ यह है कि कोई भी मुस्लिम पुरुष किसी शर्त के अधीन अपने तलाक दिए जाने के अधिकार को मुस्लिम स्त्री को प्रत्यायोजित कर सकता है। अपना तलाक देने का अधिकार व मुस्लिम स्त्री को सौंप सकता है। बफातन बनाम शेख मेमूना बीवी ए आई आर (1995) कोलकाता (304 )के मामले में पति पत्नी के बीच में करार किया गया कि यदि उनके बीच में असहमति होती है तो पत्नी को अलग रहने का अधिकार होगा और पति भरण पोषण देने के लिए बाध्य होगा। निर्णीत किया गया कि यदि पति अपनी पत्नी के भरण पोषण प्रदान करने में असमर्थ होता है तो पत्नी विवाह विच्छेद प्राप्त करने की हकदार होगी। इस पर यह भी कहा गया कि इस प्रकार का करार सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं था। महराम अली बनाम आयशा खातून के वाद में पति ने पत्नी को अधिकार प्रदान किया गया था कि यदि वह पत्नी की सहमति के बिना दूसरा विवाह करेगा तो पत्नी ताफ़वीज़ का प्रयोग करके उसे तलाक देगी। निर्मित किया गया है कि इस अधिकार का प्रयोग करके पत्नी द्वारा अपने को दिया गया तलाक वैध व मान्य है। खुला इस्लाम धर्म के आगमन के पूर्व एक पत्नी को किसी भी आधार पर विवाह विच्छेद की मांग का अधिकार नहीं था। कुरआन द्वारा पहली बार पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। फतवा ए आलमगीरी जो कि भारत में मुसलमानों की मान्यता प्राप्त पुस्तक है उसमें कहा गया है कि जब विवाह के पक्षकार राज़ी हैं और इस प्रकार की आशंका हो कि उनका आपस में रहना संभव नहीं है तो पत्नी प्रतिफल स्वरूप कुछ संपत्ति पति को वापस करके स्वयं को उसके बंधन से मुक्त कर सकती है। खुला मुस्लिम विवाह में पारस्परिक विवाह को कहा जाता है। यह एक प्रकार का पारस्परिक सम्मति के द्वारा विवाह विच्छेद होता है, जिसमें पति पत्नी दोनों की इच्छा से विवाह विच्छेद कर दिया जाता है। मुंशी 'बुज़ुल उल रहमान बनाम लतीफुन्नीसा' के वाद में प्रिवी काउंसिल के माननीय न्यायाधीशों द्वारा खुला की उपयुक्त परिभाषा की गई है जो इस प्रकार है- 'खुला के द्वारा तलाक पत्नी की संपत्ति और प्रेरणा से दिया गया एक ऐसा तलाक है, जिसमें विवाह बंधन से अपने छुटकारे के लिए वह पति को कुछ प्रतिफल देती है या देने की संविदा करती है। ऐसे मामले में पति और पत्नी आपस में करार करके शर्ते निश्चित कर सकते हैं और पत्नी प्रतिफल के स्वरूप में अपने मेहर को और अधिकारों को छोड़ सकती है अथवा पति के लाभ के लिए कोई दूसरा करार कर सकती है।' खुला में पत्नी द्वारा तलाक का प्रस्ताव रखा जाता है। असल में खुला पत्नी द्वारा पति से खरीदा गया तलाक का अधिकार है। इस्लाम में तलाक देने का अधिकार केवल पति के पास है। पत्नी तलाक मांग सकती है। मुबारत (पारस्परिक छुटकारा) मुबारत का शाब्दिक अर्थ होता है पारस्परिक छुटकारा। मुबारत में प्रस्ताव चाहे पत्नी की ओर से आए या पति की ओर से उसकी स्वीकृति तलाक कर देता है। पत्नी का इद्दत काल का पालन करना अनिवार्य हो जाता है। मुबारत भी विवाह विच्छेद का एक तरीका है। यह वैज्ञानिक दावों से पारस्परिक निर्मुक्ति प्रदर्शित करता है। मुबारत में अरुचि पारस्परिक होती है, पति पत्नी दोनों अलग होना चाहते हैं, इस कारण इसमें पारस्परिक सम्मति का तत्व निहित रहता है। दोनों ओर से सहमति होने पर मुबारत तलाक हो जाता है। खुला और मुबारत में सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि मुबारक दोनों पक्षकारों में से कहीं से भी किया जा सकता है परंतु खुला का प्रस्ताव केवल स्त्री द्वारा रखा जाता है। मुबारत में किसी पक्षकार को कोई धनराशि किसी भी पक्षकार को नहीं देना होती है। खुला का प्रस्ताव पति के तैयार नहीं होने की स्थिति में रखा जाता है परंतु मुबारत में दोनों सहमत होते हैं। भारतीय मुसलमानों में वर्तमान में सबसे अधिक इस ही तलाक का प्रचलन है। लिएन जब कोई पति अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाए किंतु आरोप झूठा हो वहां पत्नी का अधिकार हो जाता है कि वह दावा करके विवाह विच्छेद कर ले। कोई भी वयस्क और स्वास्थ्यचित पति अपनी पत्नी पर कोई व्यभिचार का आरोप लगाता है, पति कहता है कि पत्नी ने किसी अन्य पुरुष के साथ सेक्स किया है तो ऐसे आरोप में यदि आरोप झूठा निकलता है तो स्त्री इस आधार पर तलाक मांग सकती है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 किसी समय तक एक मुस्लिम स्त्री को केवल दो आधारों पर न्यायालय में तलाक मांगने का अधिकार था। (1) पति की नपुंसकता (2) परपुरुष गमन का झूठा आरोप (लिएन) इस पर मुस्लिम महिलाओं से संबंधित बहुत विसंगतियां मुस्लिम विवाह में जन्म लेने लगीं। ऐसी परिस्थितियों का उदय हुआ, जिनके होने पर एक मुस्लिम महिला तलाक मांग सकती थी, परंतु मजबूरी में तलाक नहीं मांग पा रही थी। हनफ़ी विधि में मुस्लिम स्त्री को अपने विवाह को समाप्त करने का अधिकार नहीं था, परंतु हनफ़ी विधि में या व्यवस्था है कि यदि हनफी विधि के पालन में कठिनाई हो रही है तो मालिकी, शाफ़ई या हनबली विधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसी को आधार बनाकर इस्लामिक शरीयत के दायरे में मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 पारित किया गया, जिसे सभी मुसलमानों पर चाहे वह किसी भी स्कूल से संबंधित हो लागू किया गया है। इस अधिनियम की धारा 2 के अंतर्गत कोई भी मुस्लिम स्त्री निम्न आधारों पर न्यायालय में जाकर अपने विवाह को विघटित करवाने की डिक्री पारित करवा सकती है। (1) पति की अनुपस्थिति यदि पति 4 साल तक अनुपस्थित रहता है तो ऐसी परिस्थिति में एक मुस्लिम महिला अपने विवाह को विघटन करने के लिए न्यायालय में आवेदन देकर डिक्री ले सकती है। यह डिक्री इसके पारित होने के 6 महीने के भीतर प्रभावी होती है। यदि 6 महीने के भीतर पति वापस लौट आता है तो डिक्री को वापस रद्द करना होता है। (2) भरण पोषण करने में पत्नी की असफलता यदि पति 2 साल तक पत्नी के भरण पोषण के संबंध में उपेक्षा करे या असफल रहे तो भी मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाहिता स्त्री विवाह विच्छेद की डिक्री की हकदार हो जाती है। पति वाद का केवल इस आधार पर प्रतिवाद नहीं कर सकता कि वह अपनी निर्धनता, अस्वस्थता, बेरोजगारी या कारावास या अन्य किसी आधार पर उसका भरण पोषण नहीं कर सकां। मुस्लिम विधि में एक पति को अपनी पत्नी का भरण पोषण करने का परम कर्तव्य सौंपा गया है। यदि वह कर्तव्य को भलीभांति पूरा नहीं करता है तो पत्नी को यह अधिकार है कि वो उससे तलाक मांग ले। फैसल मोहम्मद बनाम उम्मा रहीम के वाद में सिंध के मुख्य न्यायालय ने यह निर्धारण किया कि मुसलमानों पर प्रयोग सामान्य विधि को रद्द करना अधिनियम का आशय नहीं था और यह नहीं कहा जा सकता कि पति ने अपनी पत्नी के भरण पोषण का प्रबंध करने में उपेक्षा की या उसमें वह सफल रहा जब तक कि पति पर सामान्य मुस्लिम विधि के अंतर्गत भरण पोषण का दायित्व न हो। विवाह विच्छेद के लिए पत्नी का वाद खारिज कर दिया गया, क्योंकि पाया गया कि वह अपने पति के प्रति वफादार नहीं थी। पत्नी का वफादार होना आवश्यक है यदि पुरुष पत्नी के वफादार होते हुए भी उसका भरण पोषण नहीं कर रहा है तो इस आधार पर तलाक मांगा जा सकता। 'मोहम्मद नूर बीबी बनाम पीर बख्श' के वाद में यह निर्णीत हुआ कि यदि पति वाद दायर करने के 2 वर्ष तुरंत पूर्व की अवधि तक पत्नी को भरण-पोषण देने में असफल रहता है तो पत्नी इस अधिनियम की धारा 2 (2) के अंतर्गत विवाह विच्छेद के लिए हकदार है। (3) पति का कारावास यदि पति को 7 साल तक का कारावास दे दिया जाता है। दंडादेश अंतिम हो गया है तथा इस दंडादेश के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील नहीं की जा सकती है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी न्यायालय से तलाक की डिक्री मांग सकती है। (4) दांपत्य दायित्व के पालन में असफलता यदि बिना उचित कारण के पति ने 3 साल तक दांपत्य दायित्व का पालन नहीं किया है तो पत्नी विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने की हकदार है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 के अंतर्गत पति के दांपत्य दायित्व की परिभाषा नहीं दी गई है। न्यायालय इस धारा के प्रयोजन के लिए पति के केवल ऐसे दांपत्य दायित्व का अवलोकन करेगा जिनको इस अधिनियम की धारा (2 )के किसी उपखंड में सम्मिलित नहीं किया गया है। (5) पति की नपुंसकता यदि पति विवाह के समय नपुंसक था और अब भी है तो पत्नी विवाह विच्छेद की न्यायिक डिक्री प्राप्त करने की हकदार है। डिक्री पारित करने से पूर्व न्यायालय पति के आवेदन पर उससे अपेक्षा करते हुए यह आदेश पारित करेगा कि ऐसे आदेश पाने के 1 साल के अंदर वह न्यायालय को इस बारे में आश्वस्त कर दे कि वह नपुंसक नहीं रह गया है, यदि वैसा कर दे तो डिक्री प्रभावी नहीं की जाएगी। नपुंसक से पूर्ण और संबंधित नपुंसक दोनों को लिया जाता है। पूर्ण नपुंसक प्रत्येक स्त्री के प्रति नपुंसक होता है और संबंधित नपुंसक किसी निर्धारित स्त्री के प्रति नपुंसक होता है। यदि पति अपनी पत्नी के प्रति नपुंसक है उसके साथ सहवास नहीं कर पाता है तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी द्वारा तलाक मांगा जा सकता है और इस आधार पर न्यायालय डिक्री पारित कर सकता है। (6) पति का पागलपन पति यदि पागल हो गया है या फिर कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया है या फिर ऐसे रोग से पीड़ित हो गया है जिसका संक्रमण एक से दूसरे में फैलता है। जैसे कोई मुस्लिम स्त्री का पति एचआईवी एड्स से पीड़ित हो गया है, एड्स यौन संबंधों से होने वाली बीमारी है। ऐसे में उसका पति उस महिला के साथ संभोग करेगा, उस महिला को भी एचआईवी एड्स होने की प्रबल संभावना है। ऐसी परिस्थिति में महिला न्यायालय में तलाक की डिक्री मांग सकती है। (7) पत्नी द्वारा विवाह अस्वीकृत करना यदि पत्नी का विवाह उसकी अवयस्कता में उसके माता-पिता की सहमति से कर दिया गया था तो 18 साल के पहले अपने विवाह को अस्वीकार करवा सकती है तथा न्यायालय में इस आधार पर डिक्री मांग सकती है कि उसका विवाह उसकी सहमति से नहीं हुआ था और ऐसे समय हुआ था जब वह 'ख़्यार उल बुलुग' अर्थात बालिग नहीं थी। (8) पति की निर्दयता अधिनियम की धारा 2(8 ) के अनुसार पति द्वारा निर्दयता या क्रूरता करने पर भी पत्नी द्वारा न्यायालय से तलाक की डिक्री मांगी जा सकती है। पति पत्नी के साथ मारपीट करता है, अनैतिक औरतों के साथ संबंध रखता है, तवायफ के कोठे पर जाता है, दहेज की मांग करता है, पत्नी के माता-पिता को गाली देता है तो ऐसी परिस्थिति में पति से पत्नी तलाक मांग सकती है। न्यायालय को इस आधार पर डिक्री प्रदान करनी होगी। इतवारी बनाम मुसममात असगरी के महत्वपूर्ण वाद में पति ने अपनी पहली पत्नी के विरुद्ध दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद दायर किया था। इस पर पत्नी ने पति द्वारा दूसरी पत्नी लाए जाने को निर्दयता के आधार पर अपने माता-पिता के साथ रहने का निवेदन किया। मुंसिफ ने इसे पत्नी द्वारा निर्दयता के सबूत न दे सकने के कारण पति का वाद डिक्री कर दिया। पत्नी द्वारा जिला न्यायालय के समक्ष अपील करने पर मुंसिफ ने अपने निर्णय को पलट दिया। पति द्वारा उच्च न्यायालय में अपील करने पर न्यायमूर्ति एस० एस० धवन ने अपील खारिज करते हुए कहा की दूसरी पत्नी लाने वाले को साबित करना चाहिए कि उसके द्वारा दूसरी पत्नी लाना पहली पत्नी का अपमान नहीं है। 'के मोहम्मद लतीफ बनाम निशाद' के वाद में न्यायालय ने यह माना है कि दूसरा विवाह क्रूरता की श्रेणी में तब आता है जब वह पहली स्त्री की आज्ञा के बगैर किया गया है। पहली पत्नी ने आज्ञा नहीं दी और दूसरा निकाह कर लिया गया, ऐसी परिस्थिति में दूसरा निकाह कुरआन सम्मत नहीं होगा तथा ऐसे निकाह को क्रूरता माना जाएगा। कुरान सम्मत निकाह तभी होगा जब पहली पत्नी के साथ न्याय होगा और पहली पत्नी विवाह की आज्ञा देती है तो ही न्याय का प्रश्न खड़ा होता है।

कठोर दायित्व (Strict Liability) सिद्धांत के बारे में ख़ास बातें 9 May 2020

कठोर दायित्व (Strict Liability) सिद्धांत के बारे में ख़ास बातें 9 May 2020 -वाईजैग गैस लीकः

ध्यान रखा जाना चाहिए कि कठोर दायित्व, व्यक्ति की लापरवाही (Negligence) के बजाय उसकी गतिविधि की प्रकृति (Nature of Activity) पर ध्यान केंद्रित करता है, और यह भी देखा जाता है कि वह कार्य किस प्रकार से किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश के वाइजैग जिले में बीते गुरुवार (07-मई-2020) को तड़के हुए 'स्टाइरीन गैस' के रिसाव से अबतक 12 लोगों की मौत हो गई है, और 5,000 से अधिक लोगों के बीमार होने की आशंका है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, गैस रिसाव से लगभग 3 किलोमीटर के दायरे में लोग प्रभावित हुए हैं। गैस रिसाव के ठीक बाद कई लोगों को सड़कों पर पड़े हुए देखा गया, जबकि कुछ को सांस लेने में कठिनाई हुई और उनके शरीर पर चकत्ते पड़ने के मामले भी सामने आये।  इसके ठीक बाद, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने इस घटना पर स्वत: संज्ञान लिया और तमाम प्रकार के निर्देश जारी किये। वहीं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले की मीडिया रिपोर्टों पर स्वतः संज्ञान लिया और मुख्य सचिव, आंध्र प्रदेश सरकार, पुलिस महानिदेशक, आंध्र प्रदेश और केंद्रीय कारपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी विभिन्न बिन्दुओं पर नोट‌िस जारी किया। एनजीटी ने एलजी पॉलिमर्स को दिया 50 करोड़ रुपए जमा करने का निर्देश .गौरतलब है कि 08-मई-2020 (शुक्रवार) को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी वाईजैग की रासायनिक गैस रिसाव की घटना के खिलाफ दर्ज एक सुओ मोटो मामले में, घटनास्थल के निरीक्षण के लिए 5 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति को 10 दिनों के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करने को निर्देश दिया गया है। जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसके सदस्य जस्टिस श्यो कुमार सिंह (न्यायिक सदस्य) और डॉ नागिन नंदा (विशेषज्ञ सदस्य) हैं, ने एलजी पॉलीमर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को जिलाधिकारी, विशाखापट्टनम के पास 50 करोड़ रुपए की राशि जमा करने का निर्देश दिया। गौरतलब है कि इस मामले को लेकर की गयी एक टिपण्णी में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 'कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) का जिक्र किया, जिसके बारे में हम इस लेख में चर्चा करेंगे। पीठ ने मुख्य रूप से कहा कि, "ऐसे पैमाने पर खतरनाक गैस का रिसाव सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है, यह स्वाभाविक रूप से खतरनाक उद्योग के खिलाफ 'कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को आकर्षित करता है।" ट्रिब्यूनल ने यह आदेश दिया है कि कंपनी के 'कठोर दायित्व' (Strict Liability) की पहचान के अलावा, इस तरह की गतिविधियों को अधिकृत और विनियमित करने के जिम्मेदार वैधानिक अधिकारी, यदि कोई हो तो, के खिलाफ भी चूक की रिपोर्ट समिति द्वारा दी जा सकती है। कठोर दायित्व का सिद्धांत' (Strict Liability Principle) क्या होता है? कठोर दायित्व एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति/उद्योग/कंपनी पर नुकसान या क्षति के लिए कानूनी जिम्मेदारी डालता है, भले ही वह व्यक्ति/उद्योग/कंपनी (जिसे कठोर दायित्व का उत्तरदायी पाया गया है) उसने कोई भी गलती या लापरवाही के साथ कार्रवाई नहीं की। संक्षेप में, इस सिद्धांत के अंतर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है। इस प्रकार, ऐसे मामलों में जहां कठोर दायित्व का सिद्धांत लागू होता है, वहां प्रतिवादी को (वादी को) हुई क्षति के लिए हर्जाना देना पड़ता है, भले ही प्रतिवादी ने किसी प्रकार की गलती न की हो - यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम प्रभाकरन विजय कुमार एवं अन्य Appeal (civil) 6898 of 2002। ध्यान रखा जाना चाहिए कि कठोर दायित्व, व्यक्ति की लापरवाही (Negligence) के बजाय उसकी गतिविधि की प्रकृति (Nature of Activity) पर ध्यान केंद्रित करता है, और यह भी देखा जाता है कि वह कार्य किस प्रकार से किया जा रहा है। मसलन, यदि उसके कार्य की प्रकृति खतरनाक है, तो उसपर इस सिद्धांत को लागू किया जाता है। ऐसी कई गतिविधियाँ हैं जो इतनी खतरनाक हैं कि वे किसी व्यक्ति या दूसरे की संपत्ति के लिए खतरा बन सकती हैं। जैसे कि एलजी पॉलिमर्स मामले में गैस के जरिये निर्माण का कार्य अपने आप में एक खतरनाक गतिविधि है और इसीलिए कठोर दायित्व के सिद्धांत के अनुसार, इन गतिविधियों के चलते उनकी ओर से किसी भी दोष के बावजूद, उससे होने वाले नुकसान की भरपाई करनी पड़ सकती है (हालाँकि फैक्ट फाइंडिंग टीम ने अभी इस सम्बन्ध में कोई रिपोर्ट नहीं दी है)। हालाँकि, प्रतिवादी द्वारा कुछ डिफेन्स (बचाव के आधार) लिए जा सकते हैं जिसके आधार पर वह कठोर दायित्व से बच सकता है। उदाहरण के लिए, "कठोर दायित्व सिद्धांत" के तहत, एक पक्ष तब उत्तरदायी नहीं होगा जब कोई खतरनाक पदार्थ, दुर्घटना से या अन्य परिस्थितियों में "एक्ट ऑफ गॉड" के चलते उसके परिसर से बाहर निकल जाए और लोगों को क्षति पहुंचाए। ऐसी परिस्थति में उसे पीड़ित पक्ष को मुआवजे का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके अलावा, यदि क्षति या नुकसान, वादी की स्वयं की गलती से हुआ या उस नुकसान या क्षति या उसके परिणाम सहने के लिए वादी ने स्वयं सहमती दी थी, या किसी तीसरे पक्ष के द्वारा की गयी गलती के चलते भी कठोर दायित्य से छूट प्रतिवादी द्वारा मांगी जा सकती है। राइलैंड्स बनाम फ्लेचेर के वाद से निकला है कठोर दायित्व का सिद्धांत खतरनाक गतिविधियों के लिए कठोर दायित्व का सिद्धांत, ब्रिटिश उच्च न्यायालय के जस्टिस ब्लैकबर्न के ऐतिहासिक फैसले राइलैंड्स बनाम फ्लेचेर 1866 एलआरआई पूर्व 265 से उत्पन्न हुआ था। इस मामले में तथ्य यह थे कि प्रतिवादी, जो एक मिल के मालिक थे, ने मिल को पानी की आपूर्ति करने के लिए एक जलाशय (Reservoir) का निर्माण किया। इस जलाशय का निर्माण, पुरानी कोयला खदानों पर (के ऊपर) किया गया था, और मिल मालिक के पास यह संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि इन पुरानी सुरंगों से होते हुए वादी की एक कार्यशील कोयले की खान जुडी हुई है। गौरतलब है कि, इस जलाशय को स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्टर्स ने बनाया था (जिन्होंने मिल मालिक को सुरंग वाली बात नहीं बताई थी)। जब इस जलाशय में पानी भरा गया तो पानी नीचे चला गया और सुरंग से होते हुए वादी की खदानों में बाढ़ आ गई। जस्टिस ब्लैकबर्न ने मिल मालिक को इस सिद्धांत पर उत्तरदायी माना कि "वह व्यक्ति जो अपने उद्देश्यों के लिए, अपनी भूमि पर कुछ ऐसा लाता है और उसे इकट्ठा करता है, जो यदि वहां से एस्केप (escape) कर जाये तो रिष्टि/Mischief/नुकसान/क्षति पहुँचाने की संभावना रखता है, तो उस व्यक्ति को ऐसी चीज़ को अपनी जिम्मेदारी पर रखना चाहिए, और अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो सभी नुकसानों के लिए वह प्रथम दृष्टया जवाबदेह है, जो उस चीज़ के एस्केप करने का स्वाभाविक परिणाम होगा। मामले की अपील [(1868) LR 3 HL 330] पर इस 'नो फाल्ट दायित्य' (जोकि बिना गलती के व्यक्ति को जवाबदेह बनता है) सिद्धांत की हाउस ऑफ लॉर्ड्स (जस्टिस केर्न्स) द्वारा पुष्टि की गई थी, हालाँकि इस सिद्धांत को केवल गैर-प्राकृतिक उपयोगकर्ताओं तक सीमित रखा था। यानी कि यहाँ प्रतिवादी ने चूँकि जलाशय ऐसी जगह बनाया था जो एक जलाशय बनाने के लिए उचित जगह नहीं तो यह एक गैर-प्राकृतिक उपयोग हुआ। कठोर दायित्व सिद्धांत से पूर्ण दायित्व सिद्धांत की ओर भारत में भी अदालतों द्वारा कठोर दायित्व का सिद्धांत उपयोग में लिया जाता था, जहाँ पर उद्योगों के मालिकों द्वारा गैर प्राकृतिक चीज़ों के अपने भूमि पर उपयोग पर यह सिद्धांत लागू किया जाता और उन्हें जवाबदेह बनाया जाता था, भले ही उनकी कोई गलती रही हो या नहीं। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के ओलियम गैस रिसाव मामले [एम. सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया AIR 1987 SC 1086] का फैसला करते हुए भारत जैसी औद्योगिक अर्थव्यवस्था में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए, 'कठोर दायित्व सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को अपर्याप्त पाया था और इसे 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) के साथ बदल दिया था। इस मामले में यह देखा गया था कि 'कठोर दायित्व' सिद्धांत (Strict Liability Principle), कंपनियों को अपने दायित्व/जवाबदेही से बचने के कई मौके प्रदान करता है, वहीँ पूर्ण दायित्व सिद्धांत, उन्हें बिना किसी बचाव या छूट के जवाबदेह बनाता है। गौरतलब है कि ओलियम लीक मामले के बाद से भारत में 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) ने कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को लगभग खत्म कर दिया [उद्योग द्वारा लापरवाही के मामलों में] और अब यह सिद्धांत गैस लीक जैसे मामलों में लागू करना उचित नहीं मालूम पड़ता है। जैसा कि ओलियम लीक मामले में अदालत ने कहा था, कि एक खतरनाक उद्यम का "समुदाय के लिए प्रति पूर्ण कर्तव्य" होता है, वह यह दिखाता है कि एक खतरनाक उद्योग को किसी भी छूट का दावा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। उसे अनिवार्य रूप से मुआवजे का भुगतान करना ही चाहिए, चाहे आपदा/नुकसान/क्षति उसकी लापरवाही के कारण हुई हो या नहीं। अदालत ने ओलियम गैस लीक मामले में साफ़ कहा था कि, "यदि इस तरह की गतिविधि के कारण कोई नुकसान होता है, तो उद्यम को, इस तथ्य की परवाह किए बिना इस नुकसान की भरपाई करने के लिए पूरी तरह उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए, कि उद्यम ने सभी उचित देखभाल की थी और यह नुकसान बिना किसी लापरवाही के हुआ।" अंत में, यह कहा जा सकता है कि जहाँ देश में 1986 के बाद से ही अदालतों द्वारा 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) पर जोर दिया जाने लगा है, वहीँ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की वाईजैग गैस लीक मामले को लेकर की गयी टिपण्णी (उद्योग के कठोर दायित्व को लेकर) काफी हद तक चौंकाने वाली है।

रेल प्रशासन दुर्घटना/अनपेक्षित घटना के मामलों में कब देता है मुआवजा 13 May 2020


रेल प्रशासन दुर्घटना/अनपेक्षित घटना के मामलों में कब देता है मुआवजा 13 May 2020 

 एक बेहद दर्दनाक हादसे में, बीते 8 मई 2020 को नांदेड़ डिवीजन में बदलापुर और करमद स्टेशनों के बीच 16 प्रवासी मज़दूर एक माल गाड़ी की चपेट में आकर मारे गए थे। यह दर्दनाक हादसा तब हुआ जब रेलवे लाइन पर ये श्रमिक सो रहे थे। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, जहाँ चौदह मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई थी वहीँ दो अन्य मजदूरों ने बाद में दम तोड़ दिया था। ये मज़दूर मध्यप्रदेश लौटने के लिए "श्रमिक स्पेशल" ट्रेन में सवार होने के लिए जालौन से भुसावल की ओर जा रहे थे। कथित तौर पर, लगभग 20 श्रमिक, जालना से भुसावल तक पैदल जा रहे थे, जो लगभग 150 किलोमीटर दूर है। कुछ आराम करने के लिए लगभग 45 किलोमीटर चलने के बाद वे रुक गए और रेलवे पटरियों पर ही सो गए। इसके बाद यह दर्दनाक हादसा हुआ जब सुबह करीब 5:15 बजे एक मालगाड़ी उनके ऊपर से गुजरी जिससे इनकी मृत्यु हो गयी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लिया था मामले पर स्वतः संज्ञान इसके हादसे के पश्च्यात, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए मुख्य सचिव, महाराष्ट्र सरकार और जिला मजिस्ट्रेट, औरंगाबाद को नोटिस जारी किया। NHRC ने यह भी कहा कि, "उनकी (श्रमिकों की) थका देने वाली यात्रा के दौरान उनके आश्रय या पड़ाव के लिए कुछ व्यवस्था की जा सकती थी और दर्दनाक त्रासदी को रोका जा सकता था।" हालाँकि, वह बात जिसपर यहाँ गौर किया जाना चाहिए वह यह है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने इस मामले में रेल प्रशासन को नोटिस न जारी करते हुए मुख्य सचिव, महाराष्ट्र सरकार और जिला मजिस्ट्रेट, औरंगाबाद को नोटिस जारी किया। इसका कारण बेहद स्पष्ट है कि यह हादसा, रेल अधिनियम, 1989 एवं सम्बंधित नियमों के मुताबिक, न तो रेल प्रशासन के कारण हुआ, और न ही रेल प्रशासन ऐसी दुर्घटनाओं के मामलों में प्रतिकर (Compensation) देता है। यही कारण है कि महाराष्ट्र सरकार ने पीड़ितों के परिवारों के लिए मुआवजे की घोषणा की है, न कि रेल प्रशासन ने। हालांकि, कार्यपालिका ऐसे मामलों में मुआवजे/प्रतिकर का भुगतान करने के लिए स्वतंत्र है (जैसे कि महाराष्ट्र सरकार ने किया), यदि उन्हें ऐसा करना आवश्यक लगे तो और यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार, 12-मई-2020 को इस हादसे में मारे गए 16 प्रवासी मजदूरों में से प्रत्येक के परिजनों को 2-2 लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने की मंजूरी दी है। इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के मुताबिक, सूत्रों ने उन्हें बताया है कि पीएम राष्ट्रीय राहत कोष से यह प्रतिकर/मुआवजा दिया जाएगा। वहीँ, गंभीर रूप से चोटिल लोगों को 50,000-50,000 रुपये दिए जाएंगे। हालाँकि, ऐसी कोई भी घोषणा रेल प्रशासन की तरफ से नहीं की गयी है। मौजूदा लेख में हम यह जानेंगे कि आखिर रेल प्रशासन कब रेल-दुर्घटना के मामलों में प्रतिकर (Compensation) देता है। हम यह भी समझेंगे कि रेल अधिनियम, 1989 के अंतर्गत 'दुर्घटना' किसे कहा जाता है, जिसके चलते रेल प्रशासन पर प्रतिकर देने का दायित्व पैदा होता है। तो चलिए इस लेख की शुरुआत करते हैं। रेल प्रशासन किन मामलों को मानता है दुर्घटना? यदि हम रेल अधिनियम, 1989 पर नजर डालें तो हम यह पाएंगे कि इस अधिनियम का 'अध्याय 13', 'दुघर्टना के कारण यात्रियों की मृत्यु और क्षति के लिए रेल प्रशासन के दायित्व' के विषय में बात करता है। इस अध्याय की प्रथम धारा, धारा 123 है, जो परिभाषाओं के सम्बन्ध में प्रावधान करती है। इस धारा का खंड (क़) यह कहता है कि - "दुघर्टना" से धारा 124 में वर्णित प्रकार की दुघर्टना अभिप्रेत है [(a) "accident" means an accident of the nature described in section 124;]। यानी कि इस धारा का खंड (क) केवल इतना कहता है कि 'दुर्घटना', उन मामलों को कहा जायेगा जो धारा 124 में वर्णित हैं। अब धारा 124 यह बताती है कि रेल रेल प्रशासन के दायित्व की सीमा क्या होगी। इस धारा को यदि भागों में समझा जाए तो यह धारा सर्वप्रथम दुर्घटना के विषय में यह कहती है कि रेल प्रशासन प्रतिकर (Compensation) देने के लिए बाध्य है, "जब किसी रेल के कायर्करण के अनुक्रम (course of working) में कोई दुघर्टना होती है, जो या तो ऐसी रेलगाड़ियों के बीच टक्कर हो जिनमे एक यात्रियों का वहन करने वाली रेलगाड़ी है अथवा यात्रियों का वहन करने वाली किसी रेलगाड़ी या ऐसी रेलगाड़ी का कोई भाग पटरी से उतर गया हो या कोई अन्य दुघर्टना हुई हो" अनपेक्षित घटनाएँ (Untoward Incidents) क्या हैं? गौरतलब है कि दुर्घटना के मामले के अलावा, रेल अधिनियम, 1989 की धारा 124-ए के तहत [जोकि 01-अगस्त-1994 से प्रभाव में है], रेल प्रशासन, उन रेल यात्रियों को जानमाल की हानि या चोट के लिए प्रतिकर का भुगतान करने के लिए भी उत्तरदायी बन गया है, जो किसी 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) का शिकार हुए हैं। अब यह 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) क्या है इस बात को अधिनियम की धारा 123 (ग़) (1) एवं (2) के अंतर्गत को परिभाषित किया गया है। इन मामलों में भी रेलवे प्रतिकर देने के लिए बाध्य है। इस धारा के अनुसार, 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) से अभिप्रेत है,— (1) यात्रियों को वहन करने वाली किसी रेलगाड़ी में या उस पर अथवा किसी रेल स्टेशन की परिसीमा के भीतर प्रतीक्षालय, यात्री सामान घर अथवा आरक्षण या बुकिंग कायार्लय में या किसी प्लेटफार्म पर या किसी अन्य स्थान में किसी व्यक्ति द्वारा,— (i) आतंकवादी और विध्वंसक क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 (1987 का 28) की धारा 3 की उपधारा (1) के अर्थ में कोई आतंकवादी कार्य किया जाना; (ii) कोई हिंसात्मक आक्रमण (Violent attack) किया जाना अथवा लूट (Robbery) या डकैती (Dacoity) किया जाना; (iii) बलवा (Rioting) किया जाना, गोली मारना (Shoot-out) या आग लगाया जाना (Arson); (2) यात्रियों को वहन करने वाली किसी रेलगाड़ी से किसी व्यक्ति का दुघर्टनावश गिर जाना।] संक्षेप में, रेल प्रशासन को केवल उन मामलों में ही प्रतिकर देने के लिया बाध्य किया जा सकता है जहाँ दुर्घटनाओं का स्वभाव, 'धारा 124' में उल्लिखित परिस्थितियों जैसा हो या 'धारा 123 (ग़) (1) एवं (2)' में उल्लिखित 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) जैसा हो। रेल का दुर्घटना एवं 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) के लिए प्रतिकर देने का दायित्व धारा 124 आगे यह भी बताती है कि यह प्रतिकर (Compensation) तब भी रेल प्रशासन द्वारा दिया जायेगा जब, "चाहे रेल प्रशासन की ओर से ऐसा कोई दोषपूर्ण कार्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम हुआ हो या न हुआ हो"। दुर्घटना के किन मामलों में रेलवे यह प्रतिकर देगा इसे हम ऊपर समझ ही चुके हैं। इस प्रतिकर की सीमा के बारे में आगे धारा 124 यह कहती है कि, "रेल प्रशासन, किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी दुघर्टना के परिणामस्वरूप मरने वाले यात्री की मृत्यु के कारण हुई हानि के लिए और ऐसी दुघर्टना के परिणामस्वरूप हुई वैयक्तिक क्षति तथा यात्री के स्वामित्व में ऐसे माल की, जो उसके साथ उस कक्ष में या उस रेलगाड़ी में हो, हानि, नाश, नुकसान, या क्षय के लिए, उस सीमा तक, जो विहित की जाए, और केवल उस सीमा तक ही, प्रतिकर देने के दायित्वाधीन होगा।" 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) क्या है इसे हम ऊपर समझ चुके हैं, जिसे रेल अधिनियम, 1989 की 'धारा 123 (ग़) (1) एवं (2)' में बताया गया है। और ऐसी घटना के लिए प्रतिकर देने का दायित्व और उसकी सीमा का उल्लेख हमे धारा 124A में मिलता है, यह धारा यह कहती है कि, "जब किसी रेल के कायर्करण के अनुक्रम में कोई अनपेक्षित घटना होती है तब चाहे रेल प्रशासन की ओर से ऐसा कोई दोषपूर्ण कार्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम हुआ हो या न हुआ हो, जिसका उस यात्री को जो उससे क्षतिग्रस्त हुआ है या उस यात्री के जिसकी मृत्यु हो गई है, आश्रित को उसके बारे में अनुयोजन करने और नुकसानी वसूल करने के लिए हकदार बनाता है, रेल प्रशासन, किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, ऐसी अनपेक्षित घटना के परिणामस्वरूप किसी यात्री की हुई मृत्यु, या उसको हुई क्षति द्वारा पहुंची हानि के लिए उस सीमा तक, जो विहित की जाए, और केवल उस सीमा तक ही, प्रतिकर देने के दायित्वाधीन होगा।" कब रेल प्रशासन प्रतिकर देने के लिए नहीं होगा दायित्वाधीन? गौरतलब है कि, धारा 124 के अंतर्गत तो रेल प्रशासन प्रतिकर देने के लिए दायित्वाधीन होगा (यदि उस धारा की समस्त शर्तें पूरी हो जाएँ)। लेकिन, धारा 124A यह स्पष्ट करती है कि कौनसी घटनाएँ, 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) नहीं मानी जाएगी इसलिए उन मामलों में, रेल प्रशासन प्रतिकर देने के लिए दायित्वाधीन नहीं होगा धारा 124A आगे यह कहती है कि, "परन्तु इस धारा के अधीन रेल प्रशासन द्वारा कोई प्रतिकर संदेय नहीं होगा, यदि यात्री की निम्नलिखित के कारण मृत्यु होती है या उसको क्षति होती है, अर्थात:— (क) उसके द्वारा आत्महत्या या किया गया आत्महत्या का प्रयत्न; (ख) उसके द्वारा स्वयं को पहुंचाई गई क्षति; (ग) उसका अपना आपराधिक कार्य; (घ) उसके द्वारा मत्तता या उन्मत्तता की हालत में किया गया कोई कार्य; (ङ) कोई प्राकृतिक कारण या बीमारी अथवा चिकित्सीय या शल्य चिकित्सीय उपचार जब तक कि ऐसा उपचार उक्त अनपेक्षित घटना द्वारा हुई क्षित के लिए आवश्यक नहीं हो जाता है। क्या इन श्रमिकों को मिलेगा प्रतिकर? धारा 123 (ग़) (1) एवं (2), धारा 124 एवं धारा 124A को पढने के पश्च्यात, हमे यह पता चल सकता है कि रेल प्रशासन, इन श्रमिकों को प्रतिकर देने के लिए बाध्य नहीं है, क्योंकि यह हादसा/दुर्घटना/ और इन श्रमिकों की मौत, रेल अधिनियम, 1989 के अनुसार एक 'दुर्घटना' या 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) नहीं है, जिसके चलते, रेल प्रशासन पर प्रतिकर देने का कोई दायित्व बनता हो। वास्तव में, श्रमिकों द्वारा रेल पटरियों पर चलना, रेल अधिनियम, 1989 की धारा 147 के अनुसार एक अपराध है। यह धारा किसी व्यक्ति के, किसी रेल पर या उसके किसी भाग में विधिपूर्ण अधिकार के बिना प्रवेश करने के कृत्य को छह मास तक के कारावास से या जुर्माने या दोनों से दण्डित करती है। और जैसा कि धारा 124A कहती है, रेल प्रशासन 'अनपेक्षित घटना' (Untoward Incident) के लिए तब बाध्य नहीं होगा जब, जब व्यक्ति द्वारा स्वयं को क्षति पहुंचाई जाए या उसका अपना आपराधिक कार्य हो। यही नहीं, पटरियों पर सोने के मामले और उसके पश्च्यात हुई दुर्घटना, रेलवे अधिनियम या उसके नियमों के अंतर्गत, रेलवे की गलती से होते हुए नहीं माने जाते और न ही ऐसे मामलों में रेलवे प्रशासन की ओर से कोई प्रतिकर देय होता है।