लालाराम मीणा न्यायाधीष भोपाल
Suitability
Test 2013
ए-सिविल प्रक्रिया संहिता 1908
89 न्यायालय के बाहर विवादों का निपटारा -
(1) जहां न्यायालय को ऐसा लगे कि एक समझौते का तत्व विद्यमान है जो पक्षकारों के लिये स्वीकार्य हो सकता है तो न्यायालय समझौते की शर्तो को निष्चित करेगा और उन्हें पक्षकारों की टिप्पणी (विचार) के लिये सौंपेगा तथा पक्षकारों की टिप्पणियों की प्राप्ति के बाद न्यायालय सम्भावित समझौते की शर्तों को दुबारा निष्चित कर उसे
(क) माध्यस्थम् (विवाचन)(आर्वीटेशन)
(ख) सुलह
(ग) न्यायिक समझौते (निपटारे) के साथ साथ लोक अदालत के माध्यम से समझौता या
(घ) मध्यस्थता (बीच बचाव) (मिडीएशन) के लिये निर्देषित करेगा।
96 मूल डिक्री की अपील -
(1) वहां के सिवाय जहां इस संहिता के पाठ में या तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से अन्यथा उपबन्धित है, ऐसी हर डिक्री की, जो आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग करने वाली किसी न्यायालय द्वारा पारित की गई है, अपील उस न्यायालय में होगी जो ऐसी न्यायालय के विनिष्चयों की अपीलों को सुनने के लिये प्राधिकृत है।
(2) एक पक्षीय पारित मूल डिक्री की अपील हो सकेगी।
(3) पक्षकारों की सहमति से जो डिक्री न्यायालय ने पारित की है उसकी कोई अपील नहीं होगी।
(4) लघुवाद न्यायालयों द्वारा संज्ञेय वाद में किसी डिक्री से कोई अपील, यदि ऐसी डिक्री की रकम या उसका मूल्य 10000 रूपये से अधिक नहीं है तो केवल विधि के प्रष्न के संबंध में ही होगी।
104 वे आदेष जिनकी अपील होगी।
(1) निम्न आदेषों की अपील होगी
(चच) धारा 35(क) के अधीन प्रतिकारात्मक खर्चे का आदेष
(चचक) धारा 91 या धारा 92 के अधीन, यथा स्थिति, धारा 91 या धारा 92 में निर्दिष्ट प्रकृति के बाद को संस्थित करने के लिये इजाजत देने से इंकार करने वाला आदेष (लोक न्यूसेंस, लोक पूर्त कार्य)
(छ) धारा 95 के अधीन गिरफतारी, प्रतिकर के आदेष।
(ज) इस संहिता के उपबंधों में से किसी के भी अधीन ऐसा आदेष जो जुर्माना अधिरोपित करता है या किसी व्यक्ति की गिरफतारी या सिविल न्यायालय में निरोध निर्दिष्ट करता है वहां के सिवाय जहां ऐसी गिरफतारी या निरोध किसी डिक्री के निष्पादन में हैः
(झ) नियमों के अधीन किया गया कोई ऐसा आदेष जिसकी अपील नियमों द्वारा अभिव्यक्त रूप से अनुज्ञात है, और इस संहिता के पाठ में या तत्समय प्रवृत किसी विधि द्वारा अभिव्यक्त रूप से अन्यथा उपबन्धित के सिवाय किन्हीं भी अन्य आदेषों की अपील नहीं होगी।
परन्तु खण्ड(चच) में विनिर्दिष्ट किसी भी आदेष की कोई भी अपील केवल इस आधार पर ही होगी कि कोई आदेष किया ही नहीं जाना चाहिए था या आदेष कम रकम के संदाय के लिये किया जाना चाहिए था।
इस धारा के अधीन अपील में पारित किसी भी आदेष की कोई अपील नहीं होगी।
आदेष
7-10 वाद पत्र का लौटाया जानाः-
1. नियम 1(क) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, वाद पत्र वाद के किसी भी प्रक्रम में उसे न्यायालय में उपस्थित किये जाने के लिये लौटा दिया जायेगा जिसमें वाद संस्थित किया जाना चाहिए था।
2. वाद पत्र के लौटाये जाने पर प्रक्रिया न्यायाधीष वाद पत्र के लौटाये जाने पर, उस पर उसके उपस्थित किये जाने की और लौटाए जाने की तारीख, उपस्थित करने वाले पक्षकार का नाम ओर उसके लौटाये जाने के कारणों का संक्षिप्त पृष्ठांकित करेगा।
7-11 वाद प़़त्र का नामंजूर किया जाना -
(क) जहां वह वाद हेतुक प्रकट नहीं करता हैः
(ख) जहां दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन कम किया गया है और वादी मूल्यांकन को ठीक करने के लये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर जो न्यायालय से नियत किया है ऐसा करने में असफल रहता है।
(ग) जहां दावाकृत अनुतोष का मूल्यांकन ठीक है किन्तु वाद पत्र अपर्याप्त स्टाम्प पत्र पर लिखा गया है और वादी अपेक्षित स्टाम्प पत्र के देने के लिये न्यायालय द्वारा अपेक्षित किये जाने पर उस समय के भीतर जो न्यायालय ने नियत किया है, ऐसा करने में असफल रहता है।
(घ) जहां वाद पत्र के कथन से यह प्रतीत होता है कि वाद विधि द्वारा वर्जित है।
(ड़) जहां वाद दो प्रतियों में नहीं दिया गया है।
(च) जहां वादी नियम 9 के प्रावधानों की (सभी प्रतिवादियों को प्रति देने के) अनुपालना में असफल रहता है।
14-1 विवाद्यकों की विरचना:-
(1) विवाद्यक तब पैदा होते हैं जब कि तथ्य या विधि की कोई तात्विक प्रतिपादना एक पक्षकार द्वारा प्रतिज्ञात और दूसरे पक्षकार द्वारा प्रत्याख्यात की जाती है।
(2) तात्विक प्रतिपादनाएं विधि या तथ्य की वे प्रतिपादनाएं हैं जिन्हें वाद लाने का अपना अधिकार दर्षित करने के लिये वादी को अभिकथित करना होगा या अपनी प्रतिरक्षा गठित करने के लिये प्रतिवादी को अभिकथित करना होगा।
(3) एक पक्षकार द्वारा प्रतिज्ञात और दूसरे पक्षकार द्वारा प्रत्याख्यात हर एक तात्विक प्रतिपादना एक सुभिन्न विवाद्यक विषय होगी।
(4) विवाद्यक दो किस्म के होते हैं:-
(क) तथ्य विवाद्यक।
(ख) विधि विवाद्यक।
(5) वाद की प्रथम सुनवाई में वाद पत्र और डब्ल्य0ू एस0 पढ़ने के पष्चात उभय पक्ष की सुनवाई करने के पष्चात विवाद्यकों की विरचना करने के लिये अग्रसर होगा।
(6) प्रतिवादी वाद को पहली सुनवाई में कोई प्रतिरक्षा नहीं करता वहंा विवाद्यक विरचना करना अपेक्षित नहीं है।
14-2 न्यायालय द्वारा सभी विवाद्यकों पर निर्णय सुनाया जाना -
(1) प्रारंभिक विवाद्यक पर निपटरा हो सके तब भी सभी विवाद्यकों पर निर्णय सुनाया जायेगा।
(2) जहां तथ्य व विधि विवाद्यक दोनों एक ही वाद में पैदा हो वहां मामले का निपटारा केवल विधि विवाद्यक के आधार पर किया जा सकता है वहा यदि वह विवाद्यक -
(क) न्यायालय की अधिकारिता, अथवा
(ख) तत्समय प्रवृत्ति किसी विधि द्वारा श्रेष्ठ बाद के वर्जन, से संबंधित है तो वह पहले उस विवाद्यक का विचारण करेगा।
17(1) न्यायालय समय दे सकेगा और सुनवाई स्थगित कर सकेगा।
17(2) यदि पक्षकार नियत दिन पर उपसंजात होने में असफल रहते हैं तो प्रक्रिया।
17(3) पक्षकार में से किसी पक्षकार के साक्ष्य, आदि पेष करने में असफल रहने पर भी न्यायालय आगे कार्यवाही कर सकेगा।
18(4) साक्ष्य लेखबद्ध करना।
18(5) जिन मामलों में अपील हो सकती है उनमें साक्ष्य कैसे लिखा जाएगा।
18(13)जिन मामलों में अपील नहीं हो सकती है उन मामलों में साक्ष्य का ज्ञापन।
18(19)कमीषन पर कथनों को अभिलिखित करवाने की शक्ति।
21(58)कुक्र की गई संपत्ति पर दावों का और ऐसी संपत्ति की कुर्की के बारे में आक्षेपों का न्याय निर्णयन।
21(59)विक्रय को रोकना।
21(90)विक्रय को अनियमितता या कपट के आधार पर अपास्त कराने के लिये आवेदन।
21(91)विक्रय का इस आधार पर अपास्त कराने के लिये क्रेता द्वारा आवेदन कि उसमें निर्णीत ऋणी का कोई विक्रय हित नहीं था।
39(1) वे दषाएं जिनमें अस्थाई व्यादेष दिया जा सकेगा।
39(2) संविदा भंग की पुनरावृत्ति या जारी रखना अवरूद्ध करने के लिये व्यादेष।
आदेष 41 मूल डिक्रियों की अपीलें
41(1) अपील का प्रारूप/ज्ञापन के साथ क्या क्या दिया जायेगा।
41(2) आधार जो अपील के लिये जा सकेंगे।
41(3) ज्ञापन का नामंजूर किया जाना या संषोधन
41(3-क) विलम्ब की माफी के लिये आवेदन।
41(4) कई वादियों या प्रतिवादियों में से एक पूरी डिक्री को उलटवा सकेगा जहां ऐसे आधार पर दी गई है जो उन सभी के लिये सामान्य हैं।
41(5) अपील न्यायालय द्वारा रोका जाना।
41(6) डिक्री के निष्पादन के लिये आदेष की दषा में प्रतिभूति।
41(8) डिक्री के निष्पादन में किये गये आदेष की अपील में शक्तियों का प्रयोग।
41(9) अपील के ज्ञापन का रजिस्टर में चड़ाया जाना।
41(10) अपील न्यायालय अपीलार्थी से खर्चों के लिये प्रतिभूमि देने की अपेक्षा कर सकेगा।
41(11) निचले न्यायालय को सूचना भेजे बिना अपील खारिज करने की शक्ति।
41(11-क) प्रत्येक अपील नियम 11 के अधीन 60 दिन के भीतर समाप्त करने का प्रयास किया जायेगा।
41(12) अपील की सुनवाई के लिये दिन।
41(14) अपील की सुनवाई के दिन की सूचना का प्रकाषन।
41(16) अपील शुरू करने का अधिकार।
41(17) अपीलार्थी के व्यतिक्रम के लिये अपील का खारिज किया जाना।
41(19) व्यतिक्रम के लिये खारिज की गई अपील को पुनः ग्रहण करना।
41(20) सुनवाई को स्थगित करने और ऐसे व्यक्तियों को जो हितबद्ध प्रतीत होते हैं, प्रत्यर्थी बनाये जाने के लिये निर्दिष्ट करने की शक्ति।
41(21) उन प्रत्यर्थी के आवेदन पर पुनः सुनवाई जिसके विरूद्ध एकपक्षीय डिक्री की गई है।
41(22) सुनवाई में प्रत्यर्थी डिक्री के विरूद्ध ऐसे आक्षेप कर सकेगा मानो उसने पृथक अपील की हो।
41(23) मामलों का अपील न्यायालय द्वारा प्रतिप्रेषण।
41(24) जहां अभिलेख में साक्ष्य पर्याप्त है वहां अपील न्यायालय मामले का अंतिम रूप से अवधारण कर सकेगा।
41(25) अपील न्यायालय कहां विवाद्यकों की विरचना कर सकेगा और उन्हें उस न्यायालय को विचारण के लिये निर्दिष्ट कर सकेगा जिनकी डिक्री की अपील की गई है।
41(26) निष्कर्ष और साक्ष्य का अभिलेख में सम्मिलित किया जाना।
निष्कर्ष पर आक्षेप
41(26-क) प्रतिप्रेषण के आदेष में अगली सुनवाई का उल्लेख किया जाना।
41(27) अपील न्यायालय में अतिरिक्त साक्ष्य का पेष किया जाना।
41(28) अतिरिक्त साक्ष्य लेने की रीति।
41(29) विषय बिन्दुओं का परिभाषित और लेखबद्ध किया जाना।
41(30) अपील का निर्णय कब और कहां सुनाया जाएगा।
41(31) निर्णय की अन्तर्वस्तु, तारीख और हस्ताक्षर।
41(32) निर्णय क्या निदेष दे सकेगा।
41(33) अपील न्यायालय की शक्ति।
41(34) विसम्मति का लेखबद्ध किया जाना।
41(35) डिक्री की तारीख और अन्तर्वस्तु।
41(36) पक्षकारों को निर्णय और डिक्री की प्रतियों का दिया जाना।
41(37) डिक्री की प्रमाणित प्रति उस न्यायालय को भेजी जायेगी जिसकी डिक्री की अपील की गई थी।
43(1) आदेषों की अपीलें।
बी-परिसीमा अधिनियम 1763
3 परिसीमा द्वारा वर्जन -
1. धारा 4 से 24 तक अन्तर्विष्ट उपबंधों के अध्यधीन यह है कि विहित काल के पष्चात संस्थित वाद, की गई अपील और किया गया आवेदन खारिज कर दिया जायेगा। यद्यपि प्रतिरक्षा के तौर पर परिसीमा की बात उठाई न गई हो।
5 विहित काल का कतिपय दषाओं में विस्तारण कोई भी अपील या आवेदन, जो सी.पी.सी. के आदेष 21 के उपबंधों में से किसी के अधीन के आवेदन से भिन्न हो, विहित काल के पष्चात ग्रहण किया जा सकेगा। यदि अपीलार्थी या आवेदक न्यायालय का यह समाधान कर दे कि उसके पास ऐसे काल के भीतर अपील या आवेदन न करने के लिये पर्याप्त हेतुक था।
6 विधिक निर्योग्यता।
7 कई व्यक्तियों में से एक की निर्योग्यता।
8 विषेष अपवाद धारा 6 या धारा 7 की कोई भी बात शुफा अधिकारों को प्रवर्तित कराने के वादों को लागू नहीं होती और न किसी वाद अथवा आवेदन के परिसीमा काल की निर्योग्यता के अंत से या उससे ग्रस्त व्यक्ति की मृत्यु से तीन वर्ष से अधिक विस्तारित करने वाली समझाी जायेगी।
9 समय का निरन्तर चलते रहना।
10 न्यासियों तथा उनके प्रतिनिधियों के विरूद्ध वाद।
11 जिन राज्य क्षेत्रों पर इस अधिनियम का विस्तार है उनके बाहर की गई संविदाओं के आधार पर वाद।
12 विधिक कार्यवाहियो का अपवर्जन।
13 उन दषाओं में समय का अपवर्जन जहां कि अकिंचन के रूप में वाद लाने या अपील करने की इजाजत के लिये आवेदन किया गया हो।
14 बिना अधिकारिता वाले न्यायालय में सदभावपूर्वक की गई कार्यवाही में लगे समय का अपवर्जन।
27 सम्पत्ति पर के अधिकार का निर्वापित होना।
29 व्याकृतियों 1. संविदा अधिनियम की धारा 25 पर प्रभाव नहीं डालेंगी।
2. अन्य विधि में परिसीमा काल दिया है तो वह लागू होगा।
3. विवाह और विवाह विच्छेद विषयक किसी तत्समय प्रवृत विधि में अन्यथा उपबन्धित के सिवाय लागू नहीं होगी।
4. सुखाचार अधिनियम के विस्तार वाले राज्यक्षेत्रों मे लागू नहीं
अनु. 64 स्थावर संपत्ति के कब्जे के लिये जो पूर्ववर्ती कब्जे के आधार पर हो ओर हक के आधार पर न हो। जबकि वादी सम्पति पर कब्जा रखते हुए बेकब्जा कर दिया गया है। परिसीमा काल बारह वर्ष होगा बेकब्जा के दिनांक से।
अनु. 65 हक के आधार पर स्थावर संपत्ति या उसमें किसी हित के कब्जे के लिये वाद:-परिसीमा काल बारह वर्ष है जब प्रतिवादी का कब्जा वादी के प्रतिकूल हो जाता है।
अनु. 137 जिसके लिये अन्यत्र कोई परिसीमा काल उपबन्धित नहीं है वहां: तीन वर्ष का परिसीमाकाल होगा। जब आवेदन करने का अधिकार प्रोद्भूत होता है।
सी-विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963
5 विनिर्दिष्ट स्थावर संपत्ति का प्रत्युद्वरण - जो व्यक्ति, किसी विर्निदिष्ट स्थावर संपत्ति के कब्जे का हकदार है, वह सी.पी.सी. द्वारा उपबन्धित प्रकार से उसका प्रत्युद्वरण कर सकेगा।
6 स्थावर संपत्ति से बेकब्जा किये गये व्यक्ति द्वारा वाद -
(1) कोई व्यक्ति अपनी स्थावर संपत्ति से विधि विरूद्ध रूप से बेकब्जा कर दिया जाये वह उसका कब्जा वाद द्वारा प्रत्युद्वत कर सकेगा।
(2) इस धारा के अधीन कोई भी वाद
(क) बेकब्जा किये जाने की तारीख से छह माह के अवसान के पष्चात अथवा
(ख) सरकार के विरूद्ध नहीं लाया जायेगा।
(3) इस धारा के अधीन पारित किसी भी आदेष या डिक्री से न तो कोई अपील होगी, और न कोई पुनर्विलोकन ही अनुज्ञात होगा।
(4) इस धारा की कोई भी बात किसी भी व्यक्ति को ऐसी संपत्ति पर अपना हक स्थापित करने के लिये वाद लाने से और उसके कब्जे का प्रत्युद्वरण करने से वर्जित नहीं करेगी।
7 विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति का प्रत्युद्वरण।
8 जिस व्यक्ति का कब्जा है किन्तु स्वामी के नाते नहीं है, उसका उन व्यक्तियों को जो अव्यवहित कब्जे के हकदार हैं पारित करने का दायित्व।
34 प्रास्थिति की या अधिकार की घोषणा के बारे में न्यायालय का विवेकाधिकार।
35 घोषणा का प्रभाव।
38 शाषवत व्यादेष कब अनुदत्त किया जाता है -
(1) शाष्वत व्यादेष वादी को उसके पक्ष में विद्यमान बाध्यता के, चाहे वह अभिव्यक्त हो या विवक्षित, भंग का निवारण करने के लिये अनुदत्त किया जा सकेगा।
41 व्यादेष कब नामंजूर किया जाता है।
डी-म.प्र. स्थान नियंत्रण अधिनियम 1961
12 अभिधारियों की बेदखली पर निर्बन्धन -
(1) किसी अन्य विधि या संविदा में अन्तर्विष्ट किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, किसी अभिधारी के विरूद्ध, किसी स्थान से उनकी बेदखली के लिये सिविल न्यायालय में कोई वाद निम्नलिखित आधारों में से किसी एक या अधिक आधारों पर ही फाईल किया जायेगा अन्यथा नहीं अर्थात
(ए) भाड़े की संपूर्ण बकाया का मांग की सूचना के बाद भी दो माह के भीतर भुगतान न किया हो।
(बी) विधि विरूद्ध तथा उपभाड़े पर स्थान या उसका भाग दे दिया हो।
(सी) न्यूसेन्स पैदा किया हो या अंषगत कार्य जिससे स्वामी के हित पर प्रतिकूल प्रभाव हो। (स्वत्व से इन्कार)
(डी) अभिधारी ने लगातार 6 माह तक निर्धारित प्रयोजन के लिये उपयोग नहीं किया हो।
(ई) स्वयं या कुटुम्ब के किसी सदस्य या जिसके फायदे के लिये स्थान हो उसकी निवास हेतु वास्तविक आवष्यकता के लिये।
(एफ) स्वयं या व्यस्क पुत्रों या अविवाहित पुत्री या जिसके फायदे के लिये स्थान धारित है के लिये काराबार चालू रखने या प्रारंभ करने के लिये।
(जी) वह स्थान निवास के लिये असुरक्षित या अनुपयुक्त हो गया है।
(एच) निर्माण या पुनर्निर्माण के लिये।
(आई) अभिधारी ने अपने निवास के लिये उपयुक्त स्थान बना लिया है।
(जे) सेवा या नियोजन में नहीं रहा हो।
(के) अभिधारी ने स्थान को सारवान नुकसान पहुंचाया है।
(एल) बेंचने के लिये संविदा कर ली हो।
(एम) भूस्वामी की अनुमति के बिना तात्विक परिवर्तन वाला सन्निर्माण कर दिया हो।
(एन) जहां खुली भूमि है वहां मकान बनाने की आवष्यकता हो।
(ओ) भाड़े के अतिरिक्त वाले स्थान पर कब्जा करना।
(पी) अनैतिक या अवैध प्रयोजन के लिये उपयोग किया।
2- उप अभिधारी ने उप अभिग्रहीत की सूचना भू-स्वामी को उपबंधों के अधीन दे दी हो, वहां उसे प्रत्यर्थी बनाना होगा।
3- धारा 12(1)(ए) का आधार नहीं रहेगा यदि धारा 13 द्वारा अपेक्षित अनुसार किराया संदेय कर देता है।
परन्तु पुनः तीन माह का व्यतिक्रम करता है तो पुनः आधार मिल जायेगा।
4- जहां स्वामी ने अन्तरण द्वारा उस स्थान को अर्जित किया हो वहां(ई) और(एफ) का आधार नहीं रह जायेगा। जब तक एक वर्ष की कालावधि न बीत गई हो।
5- निवास की आवष्यकता के आदेष से दो मास के बाद ही कब्जा प्राप्त कर सकेगा।
6- जहां बेदखली का आदेष कारवार के लिये (एफ) में दिया है वहां कब्जा -
(क) आदेष से दो माह के अवसान के पूर्व कब्जा नहीं लेगा।
(ख) यदि स्थान ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, उज्जैन आदि म.प्र. राज्य की अधिसूचित क्षैत्र का है तो
(एक) निम्नलिखित दषाओं में वार्षिक मानक भाडे की रकम के दुगने के बराबर राषि देय होगी।
(क) ठीक पूर्ववर्ती दस वर्ष से व्यापार के लिये उपयोग किया है तो तथा।
(ख) अभिधारी ने छोड़ा और उतरवर्ति ने विरासत में कब्जा प्राप्त किया है।
(दो) अन्य दषाओं में वार्षिक मानक भाड़े की रकब के बराबर राशि देय होगी।
13 (1) अभिधारी भाड़े के समतुल्य राषि का निक्षेप या संदाय यथास्थिति उस वाद, अपील या कार्यवाही का विनिष्चयन होने तक मासानुमास प्रत्येक उत्तरवर्ती मास की 15 तारीख तक करता रहेगा।
(2) बकाया किराये के संबंध में कोई अभिवचन किसी पष्चातर्ती प्रक्रम पर ग्रहण नहीं करेगा।
(3) यह विवाद हो कि भाड़ा किस व्यक्ति को देय है तो न्यायालय में रकम जमा करने का आदेष दिया जा सकेगा।
(4) यदि न्यायालय उपधारा 3 में उठाये गये विवाद को मिथ्या या तुच्छ समझता है तो न्यायालय बेदखली के विरूद्ध प्रतिरक्षा काट दी जाने का आदेष दे सकेगा और वाद की सुनवाई के लिये अग्रसर होगा।
(6) यदि अभिधारी बकाया किराया जमा करने में चूक करता है तो न्यायालय उसकी प्रतिरक्षा काटने का आदेष दे सकेगा और कार्यवाही की सुनवाई करने के लिये अग्रसर होगा।
ई-न्यायालय फीस अधिनियम 1870
7(चार)(क) बिना बाजार मूल्य की जंगम संपत्ति के वादों में -जंगम सम्पत्ति के वादों में, जहां विषय वस्तु का कोई बाजार मूल्य नहीं है उदाहरणार्थ हक संबंधी दस्तावेजों के मामले में।
7(चार) ग घोषणात्तमक डिक्री और परिणामिक अनुतोष के वादों में-घोषणात्मक डिक्री या आदेष अभिप्राप्त करने के वादों में जहां पारिणामिक अनुतोष प्रार्थित है।
7(चार)(घ) व्यादेष के वादों में-व्यादेष अभिप्राप्त करने के वादों में।
7(चार)(ड़) सुखाचार के वादों में - भूमि से उद्भूत होने वाले किसी फायदे के अधिकार के (जिसके लिये जहां अन्य उपबंध नहीं है) वादो में और
7(चार)(च) लेखाओं के वादों में -लेखाओं के वादों में वाद पत्र या अपील के ज्ञापन में लिये गये इप्सित अनुतोष के मूल्यांकन की रकम के अनुसार एक सौ रूपये की न्यूनतम फीस सहित उन सभी वादों में वादी ईप्सित अनुतोष की रकम का कथन करेगा।
अनुसूची 2 अनुच्छेद 17
17 निम्नलिखित वादों में से हरएक में वाद पत्र या अपील का ज्ञापन
(1) ऐसे सिविल न्यायालयों में जो लेटर्स पेटेण्ट द्वारा स्थापित नहीं है, किसी का या किसी राजस्व न्यायालय का संक्षिप्त विनिष्चय या आदेष परिवर्तित या अपास्त कराने के लिये वाद,
(2) राजस्व संदायी संपदाओं के स्वामियों के नामों के रजिस्टर में की कोई प्रविष्टी परिवर्तित या रद्द करने के लये वाद
(3) घोषणात्मक डिक्री अभिप्राप्त करने के लिये वाद, जहां कोई परिणामिक अनुतोष प्रार्थित नहीं है।
(4) पंचाट अपास्त कराने के लिये वादः
(5) दत्तक ग्रहण अपास्त कराने के लिये वादः
(6) हर अन्य वाद जिसमें विवादग्रस्त विषय वस्तु का मूल घन के रूप में प्राक्कलित करना संभव नहीं है और जिसके लिये इस अधिनियम द्वारा अन्यथा उपबंधित नहीं है तब
सीजे ।। में 500 रूपये
सीजे । में 1000 रूपये
एडीजे या डीजे में 2000 रूपये नियत कोर्ट फीस देय है।
एफ-स्टाम्प अधिनियम 1899
33 लिखतों की परीक्षा ओर परिबद्ध किया जाना-
1- जिसके समक्ष उसकी राय में शुल्क से प्रभार्य कोई लिखत उसके कृत्यों के पालन में पेष की जाती है या आ जाती है, उस दषा में उसे परिबद्ध करेगा, जिसमें कि यह प्रतीत होता है कि ऐसी लिखत सम्यक रूप से स्टाम्पित नहीं है।
2-हर लिखत की जांच करेगा कि जब वह निष्पादित की गई थी तब क्या वह भारत में प्रवृतविधि द्वारा अपेक्षित मूल्य और विवरण के स्टाम्प से स्टाम्पित थी।
3- राज्य सरकार अवधारित कर सकेगी कि (क) किन कार्योलयों को लोक कार्यालय समझा जायेगा तथा (ख) किन व्यक्तियों को लोक कार्यालय का भारसाधक समझा जायेगा।
35 सम्यक रूप से स्टाम्पित न की गई लिखतें साक्ष्य, आदि में अग्राह हैं। परन्तु
(क) जो अपर्याप्त रूप से स्टाम्पित है, ऐसे शुल्क को पूरा करने के लिये अपेक्षित रकम और साथ साथ पांच रूपये की शास्ति अथवा जब उसके उचित शुल्क या कमी वाले भाग के दस गुनी रकम, पांच रूपये से अधिक हो तब ऐसे शुल्क या भाग के दस गुने के बराबर राषि दे दिये जाने पर साक्ष्य में ग्राह्य होगी।
(घ) दाण्डिक न्यायालयों की किसी कार्यवाही में किसी लिखत को साक्ष्य में ग्रहण किये जाने से निवारित नहीं करेगी।
(ड़) जबकि ऐसी लिखत सरकार द्वारा या उसकी ओर से निष्पादित की गई है या कलेक्टर का प्रमाण पत्र लगा है तो ग्रहण की जा सकेगी।
(च) कोई ऐसी लिखत जो विनियम पत्र या वचन पत्र नहीं है, जो अपर्याप्त रूप से स्टाम्पित है, ऐसे शुल्क को पूरा करने के लिये अपेक्षित रकम के दे दिये जाने पर रजिस्ट्रीकृत या अधिप्रमाणित की जायेगी।
36 लिखत का ग्रहण कहां प्रष्नगत नहीं किया जाएगा - जहां की कोई लिखत साक्ष्य में गृहीत की गई है, वहां धारा 61 में यथा उपबन्धित के सिवाय ऐसा ग्रहण इस आधार पर कि लिखत सम्यक रूप से स्टाम्पित नहीं की गई है, उसी वाद या प्रक्रिया के किसी भी प्रक्रम में प्रष्नगत नहीं किया जाएगा।
38 परिबद्ध की गई लिखतें कैसे निपटाई जायेगी -
(1) जहां कि धारा 33 के अधीन किसी लिखत को परिबद्ध करने वाले व्यक्ति को विधि द्वारा या पक्षकारों की सम्मति से साक्ष्य लेने का अधिकार है और ऐसी लिखत को धारा 35 द्वारा यथा उपबन्धित किसी शास्ति के या धारा 37 द्वारा यथा उपबन्धित किसी शुल्क और शास्ति की रकम का कथन करते हुए एक लिखित प्रमाण पत्र कलेक्टर को भेजेगा और ऐसी रकम कलेक्टर को या ऐसे व्यक्ति को, जिसे इस निमित नियुक्त करे, भेजेगा।
(2) अन्य हर मामले में किसी लिखत को इस प्रकार परिबद्ध करने वाला व्यक्ति उसकी मूल प्रति कलेक्टर के पास भेजेगा।
जी-मोटरयान अधिनियम 1988
140 त्रुटि न होने के सिद्वांत पर कतिपय मामलों में प्रतिकर का संदाय करने का दायित्व।
1- दुर्घटना के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु या स्थाई निःषक्तता हुई है वहां यान का स्वामी प्रतिकर का संदाय के लिये दायी होंगे।
2- ऐसे प्रतिकर की रकम मृत्यु पर 50,000 व स्थाई निःषक्तता पर 25000 होगी।
3- यान के स्वामियों की दोषपूर्ण कार्य, उपेक्षा या व्यतिक्रम को प्रमाणित करने की आवष्यकता नहीं है।
4- प्रतिकर की मात्रा ऐसी मृत्यु या स्थाई निःषक्तता के उत्तर दायित्व में ऐसे व्यक्ति के अंष के आधार पर कम नहीं की जायेगी।
5- इस धारा के अन्तर्गत प्रतिकर देने के बाद भी तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि के अधीन प्रतिकर का संदाय करने का भी दायी होगा।
परन्तु किसी अन्य विधि के अधीन किये जाने वाले प्रतिकर की ऐसी रकम को इस धारा या धारा 163क के अधीन संदेय प्रतिकर की रकम में से घटा दिया जायेगा।
163क संरचना सूत्र के आधार पर प्रतिकर के संदाय की बावत् विषेष उपबंध
1- इस अधिनियम में अथवा तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि या विधि का बल रखने वाली किसी लिखत में किसी बात के होते हुए भी, मोटर यान का स्वामी या प्राधिकृत बीमाकर्ता, मोटर यान के उपयोग से हुई दुर्घटना के कारण हुई, मृत्यु या स्थाई निःषक्तता की दषा में, यथास्थिति, विधिक वारिसों या आहत व्यक्ति को, दूसरी अनुसूची में उपवर्णित प्रतिकर का संदाय करने के लिये दायी होगा। स्पष्टीकरण इस आधार के प्रयोजन के लिये ‘‘स्थाई निःषक्तता’’ का वही अर्थ ओर विस्तार है जो कर्मकार प्रतिकर अधिनियम 1923 में है।
2- इस धारा में धारा 140 के अनुसार यान के स्वामी या अन्य व्यक्ति के दोषपूर्ण कार्य या उपेक्षा या व्यतिक्रम को प्रमाणित नहीं करना होता है।
3- केन्द्रीय सरकार दूसरी अनुसूची में अधिसूचना द्वारा संषोधन कर सकेगी।
166 प्रतिकर के लिये आवेदन।
(1) धारा 165(1) में विनिर्दिष्ट प्रकार की दुर्घटना से उद्भूत प्रतिकर के लिये आवेदन निम्न द्वारा किया जा सकेगा-
(क) उस व्यक्ति द्वारा जिसे क्षति हुई है, या
(ख) सम्पति के स्वामी द्वारा या
(ग) मृतक के सभी या किसी विधिक प्रतिनिधि द्वारा या
(घ) जिस व्यक्ति को क्षति पहुंची है उसके द्वारा अथवा सम्यक रूप से प्राधिकृत किसी अभिकर्ता द्वारा अथवा मृतक के सभी या किसी विधि प्रतिनिधि द्वारा किया जा सकेगा।
परन्तु - जहां मृतक के सभी विधिक प्रतिनिधियों की ओर से आवेदन नहीं दिया है वहां उन्हें आवेदन में प्रत्यार्थियों के रूप में पक्षकार बनाया जायेगा।
2- दावा उस अधिकरण को जिसकी उस क्षेत्र पर अधिकारिता थी जिसमें दुर्घटना हुई है, अथवा जहां दावाकर्ता निवास करता है या कारोबार करता है अथवा जहां प्रतिवादी निवास करता है, किया जायेगा।
(4) दावा अधिकरण धारा 158(6) के अधीन पुलिस या स्वामी द्वारा उसको भेजी गई दुर्घटना की किसी रिपोर्ट को इस अधिनियम के अधीन प्रतिकर के लिये आवेदन के रूप में मानेगा।
एच-माध्यस्थम और सुलह अधिनियम 1996
9 न्यायालय द्वारा अंतरिम उपाय आदि।
11 माध्यस्थों की नियुक्ति।
34 माध्यस्थम पंचाट को अपास्त करने के लिये आवेदन पत्र।
आई-दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973
190 मजिस्ट्रेटों द्वारा अपराधों का संज्ञान।
193 अपराधों का सेषन न्यायालयों द्वारा संज्ञान।
197 न्यायाधीषों और लोक सेवकों का अभियोजन।
311 आवष्यक साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्ति की परीक्षा करने की शक्ति।
319 अपराध के दोषी प्रतीत होने वाले अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध कार्यवाही करने की शक्ति।
320 अपराधों का शमन 1 - 298, 323, 334, 335, 341, 342, 343, 344, 346, 352, 355, 358, 379, 403, 407, 411, 414, 417, 419, 421, 422, 423, 424, 426, 427, 428, 429, 430, 447, 448, 451, 482, 483, 486, 491, 497, 498, 500, 501, 502, 504, 506, 508
2- न्यायालय की अनुज्ञा से - 312, 325, 337, 338, 357, 381, 406, 408, 418, 420, 494, 500, 509
3- दुष्प्रेरण, प्रयास या धारा 34 या 149 का शमन किया जा सकेगा।
4-(क) बालक, जड़ या पागल की ओर से संविदा करने के सक्षम।
4-(ख) जो मर जाता है की ओर से विधिक प्रतिनिधि।
5- अपील में।
6- पुनरीक्षण में।
7- पूर्वदोषसिद्धी के कारण शमन नहीं किया जायेगा।
8- शमन का प्रभाव दोषमुक्ति होगा।
321 अभियोजन वापस लेना।
357 प्रतिकर देने का आदेष।
391 अपील न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य ले सकेगा या उसके लिये जाने का निदेष दे सकेगा।
397 पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग करने के लिये अभिलेख मंगाना।
401 उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण की शक्तियां
436 किन मामलों में जमानत ली जायेगी।
436(क) अधिकतम अवधि जिसके लिये विचाराधीन कैदी निरूद्ध किया जा सकता है।
437 अजमानतीय अपराध की दषा में कब जमानत ली जा सकेगी।
437(क) अगले अपीलीय न्यायालय मे अभियुक्त के उपसंजात होने की अपेक्षा करने के लिये जमानत।
438 गिरफारी की आषंका करने वाले व्यक्ति की जमानत मंजूर करने के लिये निदेष/सिद्धराम सतलिंगरपा महेत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य ए.आई.आर 2011 एस.सी. 312
439 जमानत के बारे में उच्च न्यायालय या सेषन न्यायालय की विषेष शक्तियां।
जे-भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872
27 अभियुक्त से प्राप्त जानकारी में से जिनती एतदद्वारा पता चले हुए तथ्य से स्पष्टतया संबंधित है साबित की जा सकेगी। देवमन उपाध्य वि0 उ0प्र0राज्य मे धारा 27 को संवेधानिक वताया है।
64 दस्तावेजों का प्राथमिक साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना।
65 अवस्थाएं जिनमें दस्तावेजों के संबंध में द्वितीयक साक्ष्य दिया जा सकेगा।
65(क)इलेक्ट्रानिक अभिलेख से संबंधित साक्ष्य के बारे में विषेष उपबंध।
65(ख)इलेक्ट्रानिक अभिलेखों की ग्राह्यता।
66 द्वितीयक साक्ष्य पेष करने की सूचना के बारे में नियम।
67 जिस व्यक्ति के बारे में अभिकथित है कि उसने पेष किये गये दस्वेजों को हस्ताक्षर किया था या लिखा था उस व्यक्ति के हस्ताक्षर और हस्तलेख का साबित किया जाना।
67(क)इलेक्ट्रानिक चिन्हक के बारे में सबूत।
68 ऐसी दस्तावेज के निष्पादन का साबित किया जाना जिसका अनुप्रमाणित होना विधि द्वारा अपेक्षित है।
69 जब किसी अनुप्रमाणक साक्षी का पता न चले तब सबूत।
70 अनुप्रमाणित दस्तावेज के पक्षकार द्वारा निष्पादन की स्वीकृति।
71 जबकि अनुप्रमाणक साक्षी निष्पादन का प्रत्याख्यान करता है तब सबूत।
72 उन दस्तावेजों का साबित किया जाना जिसका अनुप्रमाणित होना विधि द्वारा अपेक्षित नहीं है।
73 हस्ताक्षर, लेख या मुद्रा की तुलना अन्यों से जो स्वीकृत या साबित हैं।
101 सबूत का भार।
102 सबूत का भार किस पर होता है।
103 विषिष्ट तथ्य के बारे में सबूत का भार।
115 बिबंध।
116 अभिधारी का और कब्जाधारी व्यक्ति के अनुज्ञप्तिधारी का बिबंध।
136 न्यायाधीष साक्ष्य की ग्राह्यता के बारे में निष्चय करेगा।
145 पूर्वतन लेखबद्ध कथनों के बारे में प्रतिपरीक्षा।
147 साक्षी को उत्तर देने के लिये कब विवष किया जाये।
148 न्यायालय विनिष्चिन करेगा कि कब प्रष्न पूछा जायेगा और साक्षी को उत्तर देने के लिये कब विवष किया जायेगा।
155 साक्षी की विष्वसनीयता पर अधिक्षेप।
157 उस तथ्य के बारे में पष्चातवर्ती अभिसाक्ष्य की सम्पुष्टि करने के लिये साक्षी के पूर्वतन कथन साबित किये जा सकेंगे।
165 प्रष्न करने या पेष करने का आदेष देने की न्यायाधीष की शक्ति।
के-भारतीय दण्ड विधान 1860
57 दण्डावधियों की भिन्ने: आजीवन कारावास को बीस वर्ष के कारावास के तुल्य गिना जायेगा।
60 दण्डादिष्ट कारावास के कतिपेय मामलों में संपूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या सादा हो सकेगा।
63 जुर्माने की रकम - अमर्यादित है किन्तु अत्यधिक नहीं होगी।
64 जुर्माना न देने पर कारावास का दण्डादेष -जुर्माना देने के व्यतिक्रम में अतिरिक्त कारावास होगा।
65 जबकि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्ट किये जा सकते हैं, तब जुर्माना न देने पर करावास की अवधि - 1/4 तक
66 जुर्माना न देने पर किस भांति का कारावास दिया जाये जिससे अपराधीको उस अपराध के लिये दण्डादिष्ट किया जा सकता है।
67 जुर्माना न देने पर कारावास, जबकि अपराध केवल जुर्माने से दण्डनीय हो सादा होगा। 50/- दो माह, 100/- चार माह तथा अधिकतम 6 माह हो सकेगा।
68 जुर्माना देने पर कारावास का पर्यवसान हो जाना।
69 जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिये जाने की दषा में कारावास का पर्यवसान।
70 जुर्माने का 6 वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान में उद्ग्रहणीय होना व संपत्ति को दायित्व से मृत्यु उन्मुक्त नहीं करती।
71 कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिेय दण्ड की अवधि।
72 कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिये दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है।
302 हत्या के लिये दण्ड जो कोई हत्या करेगा, वह मृत्यु या आजीवान कारावास सेे दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
304 हत्या की कोटि में न आने वाले आपराधिक मानव वध के लिये दण्ड - जो कोई ऐसा आपराधिक मानव वध करेगा, जो हत्या की कोटि में नहीं आता है, यदि वह कार्य जिसके द्वारा मृत्यु कारित की गई है, मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु होना संभाव्य है, कारित करने के आषय से किया जाये तो वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक हो सकेगी। दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से दण्डनीय होगा।
अथवा यदि वह कार्य इस ज्ञान के साथ कि उससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है, किन्तु मृत्यु या ऐसी शारीरिक क्षति, जिससे मृत्यु कारित करना संभाव्य है, कारित करने के किसी आषय के बिना किया जाये, तो वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दण्डित किया जायेगा।
304(बी) दहेज मृत्यु 1. जहां किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के 7 वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्षित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था। वहां ऐसी मृत्यु को ‘‘दहेज मृत्यु’’ कहा जायेगा ओर ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जायेगा।
2- जो कोई दहेज मृत्यु कारित करेगा वह कारावास से जिसकी अवधि 7 वर्ष से कम नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी दण्डित किया जायेगा।
306 आत्म हत्या का दुष्प्रेरण - यदि कोई व्यक्ति आत्म हत्या करे, तो जो कोई ऐसी आत्म हत्या का दुष्प्रेरण करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। 113(क) भारतीय साक्ष्य अधिनियम में उपधारणा -किसी विवाहित स्त्री द्वारा आत्म हत्या के दुष्प्रेरण के बारे में उपधारणा।
307 हत्या करने का प्रयत्न जो कोई किसी कार्य को ऐसे आषय या ज्ञान से और ऐसी परिस्थितियों में करेगा कि यदि वह उस कार्य द्वारा मृत्युकारित कर देता है तो वह हत्या का दोषी होता है। दण्ड 10 वर्ष तक और जुर्माना से यदि उपहति होती है तो आजीवन कारावास से या ऐसे दण्ड से दण्डनीय होगा जैसा एतस्मिनपूर्व वर्णित है।
326 खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना। दण्ड आजीवान कारावास 10 वर्ष तक हो सकेगा और जुर्माने से।
एल-पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881
धारा 138- लेखों में जमा राषि अपर्याप्त होने आदि के कारण चैकों का अनादृत हो जाना:-
जहां किसी व्यक्ति द्वारा किसी बैंक में संधारित अपने खाते में से अपने किसी ऋण अथवा अन्य दायित्व से भागतः या पूर्णतः उन्मोचित होने के लिये कोई चैक दिया जाता है और वह चैक खाते में अपर्याप्त राषि होने के कारण बैंक द्वारा बिना भुगतान किये वापस लौटा दिया जाता है तो अपराध होगा।
दण्डः- दो वर्ष तक का कारावास अथवा चैक की राषि से दुगुनी तक का जुर्माना।
परन्तुः -
क. वह चैक जारी होने की तिथी से 6 माह के अंदर अथवा उसके विधिमान्य रहने की अवधि के अंदर जो भी पूर्व में हो बैंक में पेष नहीं कर दिया जाता।
ख. बैंक से चैक के अनादृत होकर लौटने की जानकारी प्राप्त होने की तिथी से 30 दिन के अंदर चैक के लेखीवाल को लिखित में धनराषि की मांग का सूचना पत्र देकर मांग नहीं करता।
ग. लेखीवाल उस सूचना की प्राप्ति के 15 दिन के अंदर उस व्यक्ति को जो चैक के अधीन राषि प्राप्त करने वाले धारक को उस राषि का संदाय करने में असफल नहीं रहता।
धारा 139- धारक के पक्ष में किसी ऋण अथवा अन्य दायित्व के उन्मोचन में चैक दिये जाने की उपधारणा होगी।
धारा 141- कम्पनिों द्वारा अपराध:- कम्पनी का प्रभारी और कंपनी के कारोबार के संचालन के लिये उत्तरदायी व्यक्ति है।
धारा 142- अपराधों का प्रसंज्ञान:-
क. चैक के धारक के लिखित परिवाद पत्र पर
ख. वाद हेतुक उत्पन्न होने की तिथी से एक माह के अंदर पेष कर दिया जाना चाहिए। (पर्याप्त कारण होने पर न्यायालय समय बड़ा सकता है)
ग. महानगर मजिस्ट्रेट अथवा जे.एम.एफ.सी. द्वारा विचारण।
एम-संविधान
अनुच्छेद 14- विधि के समक्ष समता- राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
इस अनुच्छेद में दो वाक्यांषों का प्रयोग किया गया है - एक है ‘‘विधि के समक्ष समता’’ तथा दूसरा है - ‘‘विधियों का समान संरक्षण’’। विधि के समक्ष समता वाक्यांष लगभग सभी लिखित संविधान में पाया जाता है जो नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान करते हैं। संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 7 में उक्त दोनों वाक्यांष प्रस्युक्त किये गये हैं। यह अनुच्छेद 7 कहता है कि ‘‘विधि के समक्ष सभी समान है और बिना किसी विभेद के सभी विधि के संरक्षण के अधिकारी हैं।’’
विधि के समक्ष समता वाक्यांष ब्रिटिष संविधान से लिया गया है जिसे प्रो. डायसी के अनुसार ‘विधि-षासन’ (त्नसम व िस्ंू) कहते हैं। दूसरा वाक्यांष अमेरिका के संविधान से लिया गया है।
‘विधि के समक्ष समता एक नकारात्मक वाक्यांष है। जिसका तात्पर्य है ‘‘ समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के साथ विधि द्वारा दिये गये विषेषाधिकारों तथा अधिरोपित कर्तव्यों दोनों कै मामले में समान व्यवहार किया जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति देष की साधारण विधि के अधीन होगा।’’
‘विधि का समान संरक्षक’ वाक्यांष समानता का स्वीकारात्मक रूप है जिसका तात्पर्य है ‘‘समान परिस्थिति वाले प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करना’’ अर्थात समान कानूनों को लागू करना। स्टेट आफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार ए.आई.आर. 1952 सुप्रीम कोर्ट 75 के मामले में मुख्य न्यायाधिपति पांतजली शास्त्री ने बताया कि ‘‘विधि का समान संरक्षण’’ ‘‘विधि के समक्ष समता’’ का ही उप सिद्वांत है।
अनुच्छेद 21 - प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षणः- किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं। प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों से ज्येष्ठ है।
संविधान के 86 वें संषोधन अधिनियम 2002 द्वारा संविधान में अनुच्छेद 21 के पष्चात एक नया अनुच्छेद 21क जोड़ कर षिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार बना दिया गया है। अनुच्छेद 21क यह उपबन्धित करता है कि ‘राज्य ऐसी रीति से जैसा कि विधि बनाकर निर्धारित करे। छह वर्ष की आयु से चैदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिये निःषुल्क और अनिर्वाय षिक्षा उपलब्ध करेगी।
गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1750) एस.सी.आर 88 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था कि अनुच्छेद 21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करता है, विधान मण्डल के विरूद्ध नहीं। किन्तु मेनका गांधी बनाम भारत संघ ए.आई.आर 1978 एस.सी. 597 के मामले में एस.एसी ने गोपालन के मामले को उलट दिया है और निर्णय दिया कि अनुच्छेह 21 केवल कार्यपालिका के कृत्यों के विरूद्ध ही नहीं बल्कि विधायिका के विरूद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है। विधान मण्डल द्वारा पारित किसी विधि के अधीन विहित प्रक्रिया जो किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता से वंचित करती है, उचित ऋतु और युक्तियुक्त अर्थात नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होनी चाहिए।
एन-विद्युत अधिनियम 2003
प्रभावशील-10-6-2003 कुल धाराऐं 185
धारा 135 - विद्युत की चोरी:- 3 वर्ष या अर्थदण्ड।
चोरी 10 किलो वाट से कम है तो चोरी के कारण वित्तीय अभिलाभ के तीन गुना से कम नहीं होगा। 10 किलोवाट से अधिक की चोरी है तो अभिलाभ के तीन गुना से कम नहींहोगा।
धारा 136 विद्युत लाइनों और सामग्रियों की चोरी:-दण्ड तीन वर्ष -अर्थदण्ड
धारा 137 चुराई गयी संपत्ति प्राप्त करना दण्ड 3 वर्ष -अर्थदण्ड
धारा 138 - मीटरों तथा अनुज्ञाप्तिधारी के संकर्मो में बाधा डालना दण्ड 3 वर्ष 10,000 तक अर्थदण्ड
धारा 139 - लापरहवाही पूर्वक विद्युत बर्बाद करना या संकर्मों को क्षति पहुंचाना। दण्ड केवल 10,000 तक जुर्माना।
धारा 140 - संकर्मो को आशय पूर्वक क्षति शास्ति 10000 तक
धारा 145 - व्यवहार न्यायालय का अधिकारिता नहीं रखना।
धारा 150 - दुष्प्रेरण - अपराध के लिये उपबंधित दण्ड से।
धारा 151 - अपराधों का संज्ञान: इस प्रयोजन हेतु समुचित सरकार या समुचित आयोग या उनके द्वारा अधिकृत उनके कोई अधिकारी या प्रमुख विद्युत निरीक्षक या विद्युत निरीक्षक या अनुज्ञप्तिधारी या उत्पादन कंपनी जैसी स्थिति हो के द्वारा किये लिखित परिवाद पर। अपराध संज्ञेय और आजमानतीय होंगे। पुलिस रिपोर्ट पर भी विशेप न्यायालय संज्ञान ले सकेगा।
धारा 152 - अपराधों का षमन करना:- प्रति के.व्ही.
1- औद्योगित सेवा - 20,000/-
2- वाणिज्यिक सेवा - 10,000/-
3- कृषि सेवा - 2,000/-
4- अन्य सेवाऐं - 4,000/-
धारा 153 - विषेष न्यायालयों का गठन - धारा 135 से 140 व 150 के लिये राज्य अधिसूचना द्वारा विषेष न्यायालयों का गठन कर सकेगी।
धारा 154 - विशेष न्यायालय की प्रक्रिया एवं शक्ति:- धारा 135 से 139 के दण्डनीय प्रत्येक अपराध का समरी रूप में परीक्षण कर सकेगा। समरी में 5 वर्ष तक का कारावास दे सकेगा।
धारा 155 - विषेष न्यायालय का सत्र न्यायालय की शक्तियों का रखना।
धारा 156 - अपील और पुनरीक्षण।
धारा 157 - पुनर्विलोकन की शक्ति है।
ओ-म.प्र. आबकारी अधिनियम 1915
धारा 47 अधिहरण का आदेष
1-जहां मजिस्ट्रेट अपने द्वारा विचार किये गये किसी मामले में यह विनिष्चय करे कि कोई वस्तु, धारा 46 के अधीन अधिहरण के दायी है तो वह उसके अधिहरण का आदेष देगा।
परन्तु जहां धारा 47क की उपधारा 3 के खण्ड (क) के अधीन कोई सूचना आबकारी आयुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट को दी जावे या प्राप्त की जाये तो वह अधिहरण के संबंध में यथा पूर्वाेक्त कोई आदेष जब तक पारित नहीं करेगा जब तक कि धारा 47 क के अधीन कलेक्टर के समक्ष वस्तु की बावत् लंबित कार्यवाहियां निपटा न दी जाये और यदि कलेक्टर ने धारा 47क की उपधारा(2) के अधीन उसके अधिहरण का आदेष दिया है तो मजिस्ट्रेट इस संबंध में कोई आदेष पारित नहीं करेगा।
उपधारा 2 - जब कि अपराध हुआ है किन्तु अपराधी ज्ञात न हो या पाया न जा सके तो मामले की जांच तथा उसका अवधारण कलेक्टर द्वारा किया जायेगा जो अधिहरण का आदेष दे सकेगा।
धारा 47(क) - अभिगृहीत किये गये मादक द्रव्यों, वस्तुओं, उपकरणों, यंत्रों, सामग्रियों, प्रवहणों आदि का अधिहरण।
धारा 47(ख) - अधिहरण के विरूद्ध आदेष की अपील 30 दिन के अंदर कलेक्टर को होगी।
धारा 47(ग) - अपील अधिकारी के आदेश के विरूद्ध सेषन न्यायालय के समक्ष 30 दिन में केवल ऐसे आदेष की अवैधता के आधार पर पुनरीक्षण हो सकेगी।
धारा 47(घ) - कतिपय परिस्थितियों के अधीन न्यायालय की अधिकारिता का वर्जन।
पी-म.प्र. भू-राजस्व संहिता 1959
44 अपील तथा अपीलीय अधिकारी-
1- प्रत्येक मूल आदेष की अपील हो सकेगी।
क. उपखण्डीय पदाधिकारियों के अधीनस्थ किसी भी राजस्व पदाधिकारी के आदेष से - उपखण्डीय पदाधिकारी को।
ख. एसडीओ का आदेष है तो कलेकटर को अपील होगी।
ग. बंदोबस्त पदाधिकारी के अधीनस्थ किसी भी राजस्व पदाधिकारी से - बन्दोबस्त पदाधिकारी को।
घ. ऐसे राजस्व पदाधिकारी द्वारा जिसके संबंध में धाारा 12 की उपधारा(3) अथवा धारा 21(2) के अधीन निर्देष दिया गया हो से - जिसे राज्य शासन निर्देषित करे।
ड. कलेक्टर से -आयुक्त को।
च. बन्दोबस्त प्राधिकारी से - बन्दोबस्त आयुक्त को।
छ. आयुक्त या बन्दोबस्त आयुक्त - मण्डल को अपील होगी।
2- प्रथम अपील से:-(द्वितीय अपील)
(एक) एसडीओ या कलेक्टर से - आयुक्त को द्वितीय अपील।
(दो) बन्दोबस्त अधिकारी से - बन्दोबस्त आयुक्त को।
(तीन) आयुक्त से - मण्डल को द्वितीय अपील होगी।
3- पुनर्विलोकन में किसी भी आदेष को परिवर्तित करने वाला या उलटने वाला आदेष, मूल आदेष की भांति ही अपील योग्य होगा।
45 कतिपय लम्बित कार्यवाहियों का बन्दोबस्त आयुक्त को अंतरण।
46 कतिपय आदेषों के विरूद्ध कोई अपील नहीं होगी।
(क) पुनर्विलोकन में धारा 5 लिमिटेषन एक्ट ग्रहण किया जाना।
(ख) पुनर्विलोकन के लिये किये गये आवेदन को नामंजूर करना।
(ग) स्टे के आवेदन को मंजूर या नामंजूर किया जाना।
(घ) अन्तरिम स्वरूप के आदेष का।
(ड़) धारा 104(2) पटवारी की नियुक्ति या धारा 106(1) आर.आई. की नियुक्ति कलेक्टर के आदेष की अपील नहीं होगी।
47 अपीलों की परिसीमा -
(क) 30 दिन -एस.डी.ओ., कलेक्टर, बन्दोबस्त अधिकारी, बन्दोबस्त आयुक्त को अपील।
(ख) 45 दिन -आयुक्त को अपील।
(ग) 60 दिन - मण्डल को अपील।
49 अपील प्राधिकारी की शक्ति।
50 पुनरीक्षण(रिवीजन)
1. मण्डल किसी भी समय स्वप्रेरणा से या किसी पक्षकार द्वारा किये गये आवेदन पर या कलेक्टर या बन्दोबस्त अधिकारी किसी भी समय स्वप्रेरणा से किसी ऐसे मामले का जो विनिष्चित किया जा चुका हो या किसी ऐसी कार्यवाही का जिसमें उसके अधीनस्थ किसी राजस्व अधिकारी द्वारा कोई आदेष पारित किया जा चुका हो और जिसमें कोई अपील न होती हो और यदि यह प्रतीत होता हो कि अधीनस्थ राजस्व अधिकारी -
(क) ने ऐसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो इस संहिता द्वारा उसमें निहित न की गई हो, या
(ख) इस प्रकार निहित की गई अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा है, या
(ग) ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने में अविधिपूर्ण या सारवान अनियमितता की है तो मण्डल या कलेक्टर या बन्दोबस्त अधिकारी मामले में ऐसा आदेष कर सकेगा जैसा वह उचित समझे।
(4) पुनरीक्षण आवेदन नहीं लेगा -
(क) अपीलनीय आदेष के विरूद्ध
(ख) धारा 210 चकबन्दी का आदेष बन्दोबस्त आयुक्त का आदेष के विरूद्ध
(ग) जब तक कि वह मण्डल को साठ दिन के भीतर प्रस्तुत न किया गया हो, ग्रहण नहीं किया जाएगाः
क्यू-सूूचना का अधिकार अधिनियम 2005
प्रभावशील-21-6-05 व 12-10-05
धारा 6 - सूचना अभिप्राप्त करने के लिये अनुरोध:- लिखित में या इलेक्ट्रानिक युक्ति के माध्यम से अंग्रेजी या हिन्दी में या उस क्षेत्र की राजभाषा में ऐसी फीस के साथ जो विहित की जाये देगा।
धारा 7 - अनुरोध का निपटारा - केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी अनुरोध प्राप्ति के 30 दिन के भीतर ऐसी फीस के संदाय पर जो विहित की जाये। सूचना उपलब्ध करायेगा या धारा 8 और धारा 9 में विनिर्दिष्ट कारणों में से किसी कारण से अनुरोध को अस्वीकार करेगा।
परन्तु जहां मांगी गई जानकारी का संबंध किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से है, वहां वह अनुरोध प्राप्त होने के अड़तालीस घण्टे के भीतर उपलब्ध कराई जायेगी।
धारा 8 - सूचना के प्रकट किये जाने से छूट।
धारा 12 - केन्द्रीय सूचना आयोग का गठन -
1- केन्द्रीय सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा केन्द्रीय सूचना आयोग के नाम से ज्ञात एक निकाय का गठन करेगी, जो ऐसी शक्तियों का प्रयोग और ऐसे कृत्यों का पालन करेगा, जो उसे अधिनियम के अधीन सौंपे जायें।
2- केन्द्रीय सूचना आयोग निम्न से मिलकर बनेगा -
क. मुख्य सूचना आयुक्त और
ख. दस से अनधिक, उतनी संख्या में केन्द्रीय सूचना आयुक्त, जितने आवष्यक समझे जावें।
3- मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा निम्न समित की सिफारिष पर की जायेगी।
अ-प्रधानमंत्री, अध्यक्ष होगा
ब-लोकसभा में विपक्ष का नेता और
स-प्रधानमंत्री द्वारा नामनिर्दिष्ट संघ मंत्री मण्डल का एक मंत्री।
4- केन्द्रीय सूचना आयोग के कार्यों का साधारण अधीक्षण, निदेषन और प्रबंधन, मुख्य सूचना आयुक्त में निहित होगा।
5- मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त विधि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, समाज सेवा, प्रबंध, पत्रकारिता, जनसंपर्क माध्यम या प्रषासन तथा शासन का व्यापक ज्ञान और अनुभव रखने वाले जनजीवन के प्रख्यात व्यक्ति होंगे।
6- वह संसद सदस्य या विधान मण्डल का सदस्य नहीं होगा या कोई अन्य लाभ का पद धारित नहीं करेगा या किसी राजनैतिक दल से संबद्ध नहीं होगा, कोई कारोबार या वृत्ति नहीं करेगा।
धारा 13 -1. पदावधि और सेवा शर्ते - सेवा 5 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक पद धारण कर सकेगा।
1. पुनर्नियुक्ति के लिये पात्र नहीं होगा।
2. संदेय वेतन और भत्ते तथा सेवा शर्तें -(क) मुख्य निर्वाचन आयुक्त व निर्वाचन आयुक्त की रहेंगी।
धारा 14- मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त को हटाया जाना
1. राष्ट्रपति के आदेष द्वारा साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर उसके पद से तभी हटाया जायेगा, जब उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति द्वारा उसे दिये गये किसी निर्देष पर जांच के पष्चात यह रिपोर्ट दी हो कि, यथास्थिति उसको उस आधार पर हटा दिया जाना चाहिये।
धारा 15 -राज्य सूचना आयोग का गठन।
धारा 16 -राज्य सूचना आयोग की पदावधि ओर सेवा शर्ते।
धारा 17-राज्य मुख्य सूचना आयुक्त या सूचना आयुक्त का हटाया जाना। राजपाल उच्चतम न्यायालय से निर्देश पर
धारा 18 - सूचना आयोगों की शक्तियां ओर कृत्य।
धारा 19 - अपीलः
1- लोक सूचना अधिकारी के विनिष्चय से 30 दिन के भीतर अपील कर सकेगा।
3- दूसरी अपील 90 दिन के भीतर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग को होगी।
6- अपील का निपटरा 30 दिन या कुल 45 दिन में किया जायेगा।
7- यथा स्थिति केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग का विनिष्चिय आबध कर होगा।
धारा 20 - शास्ति - प्रतिदिन 250 रूपये जो 25000 से अधिक नहीं होगी।
धाारा 21 सदभावपूर्वक की गई कार्यवाही के लिये संरक्षण।
धारा 23 न्यायालयों की अधिकारिता का वर्जन।
आर-घरेलु हिंसा से महिलाओं का संरक्षक 2005
अधिनियम 26.10.2006 से लागू
धारा 2(ए)- व्यथित व्यक्ति: से आषय उस स्त्री से है जो प्रत्यर्थी (रिस्पान्डंेट) के साथ पारिवारिक रिष्तेदारी में है अथवा रही है तथा जो रिस्पान्डेंट के द्वारा घरेलू हिंसा के किसी कार्य के अधीन रही होना अभिकथित है।
धारा 2(एफ)- आश्रय गृह से आषय कोई आश्रय/स्थल गृह जैसा कि इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिये आश्रय/स्थल गृह होना राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाये।
धारा 3 - घरेलू हिंसा की परिभाषा में:- शालैमौआ
3. शारीरिक दुरूपयोग। 2. लैगिंग दुरूपयोग, 3. मौखिक और भावनात्मक, 4. आर्थिक दुरूपयोग शामिल हैं।
धारा 8(1) संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति।
धारा 9 संरक्षण अधिकारियों के कर्तव्य और कृत्य।
धारा 12 मजिस्ट्रेट को अर्जी 1. दुःखी व्यक्ति, संरक्षक अधिकारी अथवा दुःखी व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति प्रस्तुत कर सकेगा।
धारा 14 परामर्ष देना या सलाह देना।
धारा 16 कार्यवाहियां बंद कमरे में की जाना।
धारा 18 संरक्षण आदेष। ।संनिआअप्र अन्त।
धारा 19 निवास आदेष।
धारा 20 आर्थिक अनुतोष/सहायता।
धारा 21 अभिरक्षा में देने का आदेष।
धारा 22 प्रतिकर (क्षतिपूर्ति) दिलाने का आदेष।
धारा 23 अन्तरिम और एकपक्षीय आदेष देने की शक्ति।
धारा 27 अधिकारिता(1) जे.एम.एफ.सी. या महानगर मजिस्ट्रेट
व्यथित व्यक्ति स्थायी या अस्थाई रूप से निवास करता है या कोई कारोबार करता है अथवा नियोजित है, अथवा रिस्पोन्डेंट (प्रत्यर्थी) निवास करता है या कारोबार करता है या नियोजित करता है, अथवा जहां वाद हेतुक उत्पन्न हुआ है।
(2) आदेष पूरे भारत में कहीं भी प्रवर्तनीय रहेगा।
धारा 29 - मजिस्ट्रेट के आदेष की 30 दिन के भीतर सेषन न्यायालय की अपील होगी।
धारा 31 - रिस्पोंडेंट (प्रत्यर्थी) द्वारा संरक्षक आदेष का भंग करने के लिये शास्ति - संरक्षण आदेष या अन्तरिम आदेष भंग करने पर दण्ड एक साल तक का कारावास या 20,000/- रूपये तक जुर्माना।
धारा 32 - संज्ञान और प्रमाण:- 1. धारा 31 की उपधारा (1) के अधीन अपराध संज्ञेय और गैर जमानतीय होगा। धारा 32(2) व्यथित व्यक्ति की अकेली परिसाक्ष्य पर न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकेगा कि धारा 31 की उपधारा(1) के तहत, अभियुक्त द्वारा अपराध कारित किया गया है।
धारा 33 - संरक्षण अधिकारी द्वारा कर्तव्य निर्वहन न करने के लिये शास्ति: एक वर्ष/20,000- रूपये।
धारा 37 - केन्द्र सरकार द्वारा नियम बनाने की शक्ति।
एस-नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत
नैसर्गिक न्याय का आधार प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है। उच्चतम न्यायालय ने ए.के. क्रेपाक बनाम भारत संघ ए.आई.आर. 1970 सुप्रीम कोर्ट 150, 156 के बाद में नैसर्गिक न्याय के क्षेत्र को विस्तृत करते हुए कहा कि ‘‘नैसर्गिक न्याय की संकल्पना में विगत कुछ वर्षों में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। इसके पूर्व यह सोचा जाता था कि इसमें दो नियम सम्मिलित है अर्थात 1. कोई भी व्यक्ति अपने मामले में निर्णायक नहीं हो सकता है। 2. प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाना चाहिए। इसके पष्चात एक तीसरा नियम प्रकट हुआ। न्यायिक कल्प मामलों में विनिष्चिय सदभाव, बिना पक्षपात के होने चाहिए न कि मनमाने अथवा अयुक्तियुक्त ढंग से हेाना चाहिए। अर्थात कारण सहित निर्णय होना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय ने सेट्रल इग्ंलेण्ड वाटर ट्रांसपोर्ट कंपनी बनाम ब्रजोनाथ गांगुली के मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 14 में प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत निहित है। प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत प्राकृतिक विधि पर आधारित है। जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की आवाज होती है। क्रियात्मक दृष्टि से प्राकृतिक न्याय का अर्थ शक्ति के उचित, निष्पक्ष और युक्तियुक्त प्रयोग से लिया जाता है।
मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1978 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्राकृतिक न्याय मानवतावादी सिद्धांत है जिसका अभिप्राय विधि में निष्पक्षता प्रदान करना है।यह भी निर्धारित किया कि प्राकृतिक न्याय न्यायिक, अद्र्वन्यायिक व प्रशासनिक प्राधिकारियों पर भी लागू है।
प्राकृतिक न्याय के मुख्य सिद्धांत निम्नानुसार हैः-
1- कोई व्यक्ति अपने मामले में निर्णायक नहीं हो सकता।
श्छमउव पद चतवचतपं बंनें रनकमग मेेम कमइमजश्
2- प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाना चाहिए। श्।नकप ंसजमतंउ चंतजमउश्
3- निर्णय सकारण होना चाहिए
4- जो व्यक्ति किसी मामले को सुनेगा वही निर्णय देगा।
5- पक्षों को प्रतिपरीक्षण का अवसर मिलना चाहिए।
LALARAM MEENA, ADJ, Bhopal (MP)