Wednesday, 4 March 2020

यदि किसी अन्य कानून के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से सूचना प्राप्त की जा सकती है, तो (RTI) आरटीआई अधिनियम का सहारा नहीं लिया जा सकता है



  • *यदि किसी अन्य कानून के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से सूचना प्राप्त की जा सकती है, तो (RTI) आरटीआई अधिनियम का सहारा नहीं लिया जा सकता है*

  • कोर्ट दस्तावेजों की प्रतियां आरटीआई कानून के बजाय, कोर्ट नियमों के तहत आवेदन करके पाई जा सकती हैंः सुप्रीम कोर्ट

  • सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार 4 मार्च 2020 को कहा कि न्यायिक पक्ष में सूचनाओं की प्राप्य/ प्रमाणित प्रतियों को हाईकोर्ट नियमों के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा और ऐसी सूचनाओं को पाने के लिए आरटीआई एक्ट के प्रावधानों का सहारा नहीं लिया जाएगा। जस्टिस भानुमती, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने मुख्य सूचना आयुक्त बनाम गुजरात हाईकोर्ट व अन्य के मामले में कहा कि अदालत के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने के लिए अदालत के नियमों के तहत आवेदन करना चाहिए। मामले में मुख्य सूचना आयोग और गुजरात सूचना आयोग ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि उच्च न्यायालय के जिन नियमों के तहत दस्तावेजों की प्रमाणित प्रति जारी की जाती है, वो सूचना के अधिकार के प्रावधानों से प्रबल होंगे। उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि जब कोई व्यक्ति एक प्रति की मांग करता है तो वह उच्च न्यायालय के नियमों के अनुसार जारी होना चाहिए। गुजरात हाईकोर्ट रूल्स, 1993 के नियम 151 के अनुसार, तीसरे पक्ष को दस्तावेजों की प्रतिलिपि प्रदान करने के लिए, उन्हें प्रमाणित प्रतियां मांगने के कारणों को बताते हुए एक हलफनामा दायर करना आवश्यक है। इसलिए, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या उपरोक्त नियम और आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों के बीच किसी प्रकार की विसंगति है। एक अन्य मुद्दा यह था: जब सूचना/प्रमाणित प्रतियां प्रदान करने के लिए दो मशीनरी हो- एक उच्च न्यायालय के नियमों के तहत और दूसरी आरटीआई अधिनियम के तहत, तब उच्च न्यायालय के नियमों में किसी असंगतता के अभाव में, प्रमाणित प्रति/सूचना प्राप्त करने के लिए क्या आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों का सहारा लिया जा सकता है? इन मुद्दों का जवाब देते हुए पीठ ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं: "आरटीआई अधिनियम के गैर‌ विरोधाभासी खंड (Non Obstante Clause) का मतलब भारत के संविधान के अनुच्छेद 225 के तहत तैयार किए गए उच्च न्यायालय के नियमों और आदेशों का निहित निरसन नहीं है, केवल असंगतता के मामले में उनका एक अधिरोही प्रभाव है। एक विशेष अधिनियम या नियम बाद के सामान्य अधिनियमों द्वारा अधिरोहित नहीं हो सकता क्योंकि बाद का अधिनियम एक गैर विरोधाभासी खंड के साथ उपलब्‍ध होता है, जब तक कि दोनों कानूनों के बीच स्पष्ट असंगतता न हो।" "गुजरात उच्च न्यायालय नियम का नियम 151 में तीसरे पक्ष के लिए शर्त रखता है कि उन्हें सूचना/दस्तावेज की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने के लिए या आवेदन/हलफनामा दायर करने के लिए आवश्यक आदेश प्राप्त करने के लिए उन कारणों को बताना होगा, जिनके लिए सूचना चाहिए, यह आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत नहीं है, लेकिन सूचना प्राप्त करने के लिए परिपाटी या फीस के भुगतान आदि के रूप में एक अलग प्रक्रिया का पालन करता है। आरटीआई अधिनियम और अन्य कानून के प्रावधानों के बीच अंतर्निहित असंगतता की अनुपस्थिति में, आरटीआई अधिनियम का अधिरोही प्रभाव लागू नहीं होगा।" "जब सूचना प्राप्त करने या प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी मशीनरी मौजूदा है, जो हमारे विचार में, एक बहुत ही सरल प्रक्रिया है, जो कि आवश्यक अदालती शुल्क के साथ एक आवेदन/शपथ पत्र दाखिल करना और उन कारणों को बताना है, जिनके लिए प्रमाणित प्रतियों की आवश्यकता है , हम आरटीआई अधिनियम की धारा 11 को लागू करने और बोझिल प्रक्रिया को अपनाने का कोई औचित्य नहीं पाते हैं। इसमें समय और राजकोषीय संसाधनों का अपव्यय होगा, जिससे आरटीआई अधिनियम की प्रस्तावना खुद बचने का इरादा रखती है। " "मुकदमेबाज की कार्यवाही से जुड़े दस्तावेजों और अन्य सूचनाओं की गोपनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से और उचित संतुलन बनाए रखने के लिए, हाईकोर्ट के नियम तीसरे पक्ष पर आवेदन/शपथ पत्र दायर करने के लिए जोर देते हैं ताकि दस्तावेजों की जानकारी/प्रमाणित प्रतियां प्राप्त की जा सकें।" पीठ ने *रजिस्ट्रार सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया बनाम आरएस मिश्रा (2017) 244 डीएलटी 179* मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के दृष्टिकोण से भी सहमति व्यक्त की, जिसमें यह कहा गया था कि  *"यदि किसी अन्य कानून के तहत प्रदान किए गए तंत्र के माध्यम से सूचना प्राप्त की जा सकती है, तो आरटीआई अधिनियम का सहारा नहीं लिया जा सकता है।"*  इस दृष्टिकोण का बाद में कर्नाटक हाईकोर्ट ने अनुसरण किया। बेंच ने कहा- "हम दिल्ली उच्च न्यायालय के विचारों से पूरी तरह सहमत हैं। जब उच्च न्यायालय के नियम एक तंत्र प्रदान करते हैं, जिसके जरिए आवेदन/शपथ पत्र दाखिल करके जानकारी/प्रमाणित प्रतियां प्राप्त की जा सकती हैं, तो आरटीआई अधिनियम के प्रावधानों का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए।"
  • केस का नाम: मुख्य सूचना अधिकारी बनाम हाईकोर्ट ऑफ गुजरात
  • केस नं : CIVIL APPEAL NO (S) .1966-1967 Of 2020
  • कोरम: जस्टिस भानुमति, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय
  • https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/copies-of-court-documents-can-be-obtained-only-by-applying-under-court-rules-and-not-rti-sc-153475


Saturday, 29 February 2020

न्यायिक अधिकारियों की अखंडता उच्च स्तर की हो और एक भी भूल की अनुमति नहीं : सुप्रीम कोर्ट

न्यायिक अधिकारियों की अखंडता उच्च स्तर की हो और एक भी भूल की अनुमति नहीं : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दिए गए अपने फैसले में न्यायिक अधिकारियों की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के विषय पर कानून की व्याख्या की है। जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि न्यायिक अधिकारियों की अखंडता के संबंध में प्रतिकूल प्रविष्टियों के मामले में ' वॉश ऑफ ' का सिद्धांत लागू नहीं होता है। किसी न्यायिक अधिकारी की अखंडता एक उच्चस्तर पर होनी चाहिए और यहां तक ​​कि एक भी भूल की अनुमति नहीं है, झारखंड के न्यायिक अधिकारी द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने कहा, जो अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किए गए थे। इस मामले में एक मुद्दा यह था कि चूंकि न्यायिक अधिकारियों को विभिन्न उच्च पदों पर पदोन्नत किया गया है, इसलिए पदोन्नति से पहले का उनके रिकॉर्ड के कोई मायने नहीं रहते हैं। अनिवार्य सेवानिवृत्ति के संबंध में सिद्धांतों पर चर्चा करने वाले विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए पीठ ने सिद्धांतों को इस प्रकार प्रस्तुत किया: (i) न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश प्रकृति में दंडात्मक नहीं है; (ii) न्यायिक अधिकारी के अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश का कोई सिविल परिणाम नहीं है; (iii) अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए एक न्यायिक अधिकारी के मामले पर विचार करते समय न्यायिक अधिकारी के पूरे रिकॉर्ड को ध्यान में रखा जाना चाहिए, हालांकि बाद के और समकालीन रिकॉर्ड को अधिक वजन दिया जाना चाहिए; (iv) इसके बाद की पदोन्नति का मतलब यह नहीं है कि किसी न्यायिक अधिकारी को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त होने का निर्णय लेते समय पहले के प्रतिकूल रिकॉर्ड को नहीं देखा जा सकता है; (v) 'वॉश-ऑफ' सिद्धांत न्यायिक अधिकारियों के मामले में लागू नहीं होता है, विशेष रूप से अखंडता से संबंधित प्रतिकूल प्रविष्टियों के संबंध में; (vi) न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का प्रयोग बड़े परिश्रम और संयम के साथ करना चाहिए, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि न्यायिक अधिकारी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति आम तौर पर उच्च न्यायालय की उच्च शक्ति समिति की सिफारिश पर निर्देशित होती है। न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ कुछ आरोपों का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा कि स्क्रीनिंग समिति और स्थायी समिति द्वारा निष्कर्षों पर दखल देने की आवश्यकता नहीं है  

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/judicial-officers-integrity-must-be-of-a-higher-order-and-even-a-single-aberration-is-not-permitted-153290

Friday, 28 February 2020

व्यर्थ मामलों पर वकीलों की हड़ताल को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार दिया

व्यर्थ मामलों पर वकीलों की हड़ताल को सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार दिया 


सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तराखंड में वकीलों द्वारा पाकिस्तान के स्कूल में बम विस्फोट, नेपाल में भूकंप और कुछ वकीलों के परिवार के सदस्यों की मौत जैसे मामलों पर हड़ताल को "अवैध" करार दिया है। जस्टिस एम आर शाह ने शुक्रवार को अपने फैसले के हिस्से को पढ़ते हुए कहा कि उत्तराखंड के तीन जिलों में पिछले 35 वर्षों से अधिक समय से चल रही यह प्रथा अदालत की अवमानना ​​है। इन तीन जिलों में देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर शामिल हैं। पीठ ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया और राज्य बार निकायों को फैसले पर ध्यान देने और हड़ताली वकीलों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का आह्वान किया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि वकीलों द्वारा की गई हड़ताल अवैध हैं, अदालत के पिछले आदेशों का उल्लंघन करते हैं और न्याय तक पहुंच में बाधा भी डालते हैं। जब हड़ताल के कारणों को शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाया गया, तो इसने इस तरह के "मजाक" का सहारा लेने के लिए हड़ताली वकीलों को फटकार लगाई थी इसमें उच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि यह हड़ताल अक्षम्य है और अक्सर ऐसे कारणों से भी होती है जो अदालतों के कामकाज से दूर तक भी नहीं जुड़े होते हैं। उच्च न्यायालय ने अपने 2019 के फैसले में कहा था, "पाकिस्तान के एक स्कूल में बम विस्फोट, श्रीलंका के संविधान में संशोधन, अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद, वकील की हत्या / हमला, नेपाल में भूकंप, वकीलों के निकट संबंधियों की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हुए, अन्य राज्य बार संघों के वकीलों में एकजुटता व्यक्त करना, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आंदोलनों का नैतिक समर्थन, भारी बारिश .. और यहां तक ​​कि कवि-सम्मलेन के लिए भी हड़ताल होती है।" उच्च न्यायालय ने विधि आयोग की 266 वीं रिपोर्ट का भी हवाला दिया था जिसमें कहा गया था कि 2012 से 2016 के बीच, उत्तराखंड में देहरादून जिले में वकील इस अवधि के दौरान 455 दिनों के लिए हड़ताल पर थे, उसके बाद हरिद्वार जिले में 515 दिन हड़ताल पर रहे। जिला बार एसोसिएशन सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील में आए थे, जिसमें सुनवाई की आखिरी तारीख पर टिप्पणी की गई थी कि चीजें ढह गई हैं। "आप एक मजाक कर रहे हैं। अधिवक्ता के परिवार के सदस्य की मृत्यु हो जाती है और पूरे बार हड़ताल पर चले जाएंगे? यह क्या है, "पीठ ने अपने आदेश को बरकरार रखते हुए कहा था उच्च न्यायालय ने विधि आयोग की 266 वीं रिपोर्ट का भी हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि 2012 से 2016 के बीच, उत्तराखंड में अधिवक्ता देहरादून जिले में इस अवधि के दौरान 455 दिनों के लिए हड़ताल पर थे, उसके बाद हरिद्वार जिले में 515 दिन हड़ताल रही। जिला बार एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हाईकोर्ट के फैसले पर अपील की थी जिसमें सुनवाई की आखिरी तारीख पर टिप्पणी की गई थी कि चीजें ध्वस्त हो चुकी हैं। पीठ ने अपने आदेश को सुरक्षित रखते हुए कहा था, " आप मजाक कर रहे हैं। वकील के परिवार के सदस्य की मृत्यु हो गई है और पूरी बार हड़ताल पर चली जाएगी? यह क्या है।" 


Thursday, 27 February 2020

(सेक्‍शन 340 सीआरपीसी) क्या सेक्शन 195 सीआरपीसी के तहत ‌श‌िकायत दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच अन‌िवार्य है?


*(सेक्‍शन 340 सीआरपीसी) क्या सेक्शन 195 सीआरपीसी के तहत ‌श‌िकायत दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच अन‌िवार्य है?*

*सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच करेगी फैसला*

क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले दंड प्र‌क्रिया संहिता की धारा 340 संभावित आरोपी को प्रारंभिक जांच और सुनवाई का अवसर प्रदान करती है? सुप्रीम की दो जजों की बेंच, जिसमें जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस मोहन एम शांतनगौदर शामिल हैं, ने ये सवाल बड़ी बेंच के हवाले किया है। बेंच ने प्रारंभिक जांच की व्यापकता और दायरे पर भी सवाल उठाया है। मौजूदा मामले में, डिप्टी कमिश्नर-कम-चीफ सेल्स कमिश्नर, तरन तारन ने, सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट, पट्टी को निर्देश दिया था कि वे एक पक्षकार के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज करवाएं। उनका आरोप था‌ कि पक्षकार ने तहसील कर्मियों की मिलीभगत से एसडीएम-कम-सेल्स कमिश्नर के समक्ष एक अपील में जाली दस्तावेज जमा किए हैं। हालांकि हाईकोर्ट ने यह कहते हुए उक्त प्राथमिकी को रद्द कर दिया था ‌कि डिप्टी कमिश्नर-कम-चीफ सेल्स कमिश्नर ने अपील की सुनवाई में, सीआरपीसी की धारा 340, साथ में पढ़ें धारा 195 के संदर्भ में, ना खुद जांच की थी और ना ही अपने अधीनस्थ प्राधिकरण को अभियुक्त के खिलाफ ऐसी जांच करने का आदेश दिया था।
         हाईकोर्ट ने माना एफआईआर इन प्रावधानों से प्रभावित हुई, क्योंकि यह बिना किसी जांच के दर्ज की गई थी और प्रतिवादी को भी अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया, इसलिए एफआईआर को खारिज कर दिया गया। धारा 340 सीआरपीसी के प्रावधानों के मुताब‌िक, यदि न्यायालय की राय है कि धारा 195 की उप-धारा (1) के खंड (बी) में उल्लिखित किसी अपराध की जांच की जानी चाहिए, यदि प्रतीत होता है कि अपराध किया गया है, या उस अदालत में कार्यवाही के संबंध में, या जैसा मामला हो, कोर्ट की कार्यवाही में सबूत के रूप में पेश दस्तावेज के संदर्भ में, कोर्ट को, प्रारंभिक जांच के बाद, यदि कोई हो, जैसा आवश्यक लगे, जांच के नतीजों को दर्ज करे और फिर लिख‌ित ‌शिकायत दर्ज करवाए। हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई करते हुए पीठ ने तीन जजों के दो पीठों द्वारा इस संबंध में उठाए गए परस्पर विरोधी विचारों का उल्लेख किया। कोर्ट ने कहा, प्रावधान को स्वंतत्र रूप से पढ़ने पर, यह स्पष्ट है कि धारा 195 (1) (बी) में उल्लिखित अपराध के संबंध में शिकायत दर्ज करने से पहले मामले की प्रारंभिक जांच कराना (या नहीं करना) कोर्ट पर निर्भर करता है।
        *प्रीतिश बनाम महाराष्ट्र राज्य में (2002) 1 एससीसी 253* के मामले में यह कहा गया है कि उन व्यक्तियों को सुनवाई का अवसर प्रदान करने की कोई वैधानिक आवश्यकता नहीं है, जिनके खिलाफ न्यायालय अभियोजन की कार्यवाही शुरू करने के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज कर सकती है। यह देखा गया है कि अगर अदालत को ऐसे नतीजों पर पहुंचने के लिए प्रारंभिक जांच करना आवश्यक लगता है तो ऐसा करने के लिए वह स्वतंत्र है, हालांकि ऐसी किसी प्रारंभिक जांच के अभाव में, कोर्ट के नतीजे, जिन्हें उसने अपनी राय के संबंध में इस्तेमाल किया है, ‌निष्प्रभावी नहीं होंगे।
           हालांकि, *शरद पवार बनाम जगमोहन डालमिया, (2010) 15 एससीसी 290* के मामले में, तीन न्यायाधीशों की एक अन्य पीठ ने कहा था कि जैसा धारा 340 सीआरपीसी के तहत विचार किया गया है, प्रारंभिक जांच करना आवश्यक है और साथ ही संभावित अभियुक्त को सुनवाई का अवसर प्रदान करना भी आवश्यक है।
               *अमरसंग नाथजी बनाम हार्दिक हर्षदभाई पटेल, (2017) 1 एससीसी 113* के मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने *प्रीतिश मामले* में लिए गए विचार का ही अनुकरण किया। तीन जजों की दो बेंच के निर्णयों में इन परस्पर विरोधी विचारों को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा: किसी भी घटना में, यह देखते हुए कि *शरद पवार (सुप्रा)* मामले में तीन जजों की बेंच के फैसले में ऐसा कोई कारण नहीं बताया गया है कि उन्होंने सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच की आवश्यकता के संबंध में *प्रीतिश (सुप्रा)* मामले में एक कोऑर्डिनेटेड बेंच द्वारा व्यक्त की गई राय से अलग राय क्यों दी है। *इकबाल सिंह मारवाह (सुप्रा)* के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की टिप्पणियों को देखते हुए हमें यह आवश्यक लगता है कि मौजूदा *मामले को विचारार्थ बड़ी बेंच के समक्ष प्रस्तुत किया जाए,* विशेष रूप से निम्नलिखित प्रश्नों के जवाब के लिए :---
(i) क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले दंड प्र‌क्रिया संहिता की धारा 340 संभावित आरोपी को प्रारंभिक जांच और सुनवाई का अवसर प्रदान करती है?
(ii) ऐसी प्रारंभिक जांच की व्यापकता और दायरा क्या है?
         पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की *धारा 195 (3) के तहत 'न्यायालय' शब्द का अर्थ सिविल, राजस्व या आपराधिक न्यायालय है, और इसमें केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम के तहत गठित न्यायाधिकरण भी शामिल है।*
केस टाइटल: पंजाब बनाम जसबीर सिंह केस नं: CRIMINAL APPEAL NO.335 OF 2020 कोरम: जस्टिस अशोक भूषण और मोहन एम शांतनगौदर

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/section-340-crpc-is-preliminary-inquiry-mandatory-before-a-complaint-us-195-crpc-is-made-sc-refers-to-larger-bench-153201?infinitescroll=1

Wednesday, 19 February 2020

न्यायिक सेवा भर्ती में न्यायिक सेवा बार प्रैक्टिस नहीं माना, बार में प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता न्यायिक शाखा में ताजा दृष्टिकोण लाते हैं : सुप्रीम कोर्ट

*न्यायिक सेवा भर्ती में  न्यायिक  सेवा अवधि बार  प्रैक्टिस  नहीं, बार में प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ता न्यायिक शाखा में ताजा दृष्टिकोण लाते हैं : सुप्रीम कोर्ट*

 न्यायिक अधिकारियों पर यह निर्णय देते हुए कि वो जिला जजों के पद पर सीधी भर्ती के लिए आवेदन करने के लिए योग्य नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बार में एक सफल वकील के अनुभव को न्यायिक अधिकारियों से कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है। पी रामकृष्णम राजू बनाम भारत संघ और अन्य (2014) में SC के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि "बार में एक सफल वकील द्वारा प्राप्त अनुभव और ज्ञान को कभी भी किसी भी दृष्टिकोण से एक न्यायिक अधिकारी द्वारा प्राप्त अनुभव को देखते हुए कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है।" "हमारी राय में, एक वकील के रूप में अनुभव भी महत्वपूर्ण है, और उन्हें अपने कोटा से वंचित नहीं किया जा सकता है, जो उच्चतर न्यायिक सेवा में केवल 25 प्रतिशत रखा जाता है| " जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस विनीत सरन और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ ने धीरज मोर बनाम दिल्ली उच्च न्यायालय मामले में कहा। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने फैसले में कहा, "बार से भर्ती का भी एक उद्देश्य होता है ... बार के सदस्य भी अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ बनते हैं और विशेषज्ञता हासिल करते हैं और विभिन्न अदालतों में पेश होने का अनुभव रखते हैं।" न्यायमूर्ति रवींद्र भट ने अपनी अलग लेकिन सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि संविधान निर्माता "बहुत सचेत थे कि अभ्यास अधिवक्ता स्वतंत्रता को दर्शाते हैं और संभावित रूप से एक उपयोगी विशेषता प्रदान करते हैं, अर्थात कानून और संविधान की व्याख्या के लिए उदार दृष्टिकोण रखते हैं, इसलिए न्यायपालिका की मजबूती, साथ ही साथ समाज की संपूर्णता के लिए ये आवश्यक है।" न्यायमूर्ति भट ने आगे कहा कि संविधान निर्माताओं ने इस बात की परिकल्पना की है कि अधिवक्ताओं की प्रैक्टिस को न्यायपालिका के हर स्तर पर नियुक्तियां दी जानी चाहिए ताकि एक सफल पेशेवर के रूप में उनके "ताजा दृष्टिकोण" का लाभ उठाया जा सके। यह कहा गया था : "संविधान निर्माताओं ने, इस अदालत की राय में, जानबूझकर इच्छा व्यक्त की कि बार के सदस्यों को तीनों स्तरों पर नियुक्ति के लिए विचार किया जाना चाहिए, जैसे कि जिला न्यायाधीश, उच्च न्यायालय और यह अदालत। यह इसलिए था क्योंकि वकील कानून की अदालतों में अभ्यास कर रहे हैं। उन लोगों के साथ एक सीधा संबंध है जिन्हें उनकी सेवाओं की आवश्यकता है; अदालतों के कामकाज के बारे में उनके विचार, एक निरंतर गतिशीलता, इसी तरह, बार में प्राप्त अनुभव के आधार पर, उनके विचार, न्यायिक शाखा को नए दृष्टिकोण के साथ व्यक्त करते हैं। विशिष्ट रूप से तैनात एक पेशेवर के रूप में, एक वकील का एक त्रिपक्षीय संबंध होता है: एक जनता के साथ, दूसरा अदालत के साथ और तीसरा, उसके या उसके मुवक्किल के साथ। एक वकील, जिसे कानून को सीखा हुआ कहा जाता है, का दायित्व है, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपने मुवक्किल के मामले को उचित तरीके से आगे बढ़ाए और अदालत की सहायता करें। कानूनी पेशे के सदस्य होने के कारण, अधिवक्ताओं को विचारशील नेता भी माना जाता है। इसलिए, संविधान निर्माताओं ने इस बात की परिकल्पना की थी कि न्यायिक प्रणाली के प्रत्येक पायदान पर, बार के सदस्यों की सीधी नियुक्ति के एक घटक का सहारा लिया जाना चाहिए। " यह मामला जनवरी 2018 में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा किए गए संदर्भ से उत्पन्न हुआ था, जिसमें सेवारत न्यायिक अधिकारी, जो वकील के रूप में सात साल के अभ्यास की योग्यता को पूरा करते हैं (या न्यायिक अधिकारी और वकील के रूप में 7 साल का संयुक्त अनुभव), भारत के संविधान के अनुच्छेद 233 (2) के तहत जिला न्यायाधीश के पद पर सीधी भर्ती के लिए पात्र हैं। पीठ ने यह कहते हुए संदर्भ का उत्तर दिया कि अनुच्छेद 233 में नियुक्ति की दो अलग-अलग धाराएं हैं - एक, अनुच्छेद 233 (1) के तहत पदोन्नति द्वारा, और दूसरी अनुच्छेद 233 (2) के तहत सीधी भर्ती द्वारा। यह माना गया कि अनुच्छेद 233 (2) के तहत "अभ्यास" का अर्थ है नियुक्ति की तारीख पर भी निरंतर अभ्यास। यह अनुच्छेद 233 (2) में ' अभ्यास में रहा है' अभिव्यक्ति के उपयोग पर आधारित था। "संदर्भ ' अभ्यास में रहा है' जिसमें इसका उपयोग किया गया है, यह स्पष्ट है कि प्रावधान एक ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जो न केवल कटऑफ की तारीख पर एक वकील या अधिवक्ता रहा है, बल्कि नियुक्ति के समय भी ये जारी है, " कोर्ट ने कहा। सेवा में शामिल होने वाले दो नावों में सवार नहीं हो सकते न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने फैसले में कहा कि सेवारत न्यायिक अधिकारी 25% प्रत्यक्ष भर्ती कोटा के लिए दावा कर सकते हैं। एक बार जब वे न्यायिक धारा में शामिल हो गए, तो वे सेवा नियमों से बंधे हुए हैं। "यह उनके लिए अधीनस्थ सेवाओं में शामिल नहीं होने के लिए खुला था। वे जिला न्यायाधीश के पद के खिलाफ उच्च न्यायिक सेवा के लिए एक वकील होने का दावा कर सकते थे। हालांकि, एक बार जब वे सेवा में आ गए और न्यायिक सेवा में शामिल होने से पहले बार में सात साल का अनुभव था, तो भी वो वकीलों के लिए विशेष रूप से 25% कोटा के लिए दावे को संतुष्ट नहीं करते क्योंकि भर्ती के लिए अलग-अलग शाखाएं और अलग-अलग कोटा निर्धारित हैं," निर्णय में कहा गया है। जब कोई व्यक्ति किसी विशेष धारा से जुड़ता है, अर्थात् अपनी इच्छा से न्यायिक सेवा करता है, तो वह "दो नावों में सवार नहीं हो सकता।" जिला न्यायाधीशों के 75% पद अधीनस्थ अधिकारियों की पदोन्नति शाखा के लिए आरक्षित हैं जबकि सीधी भर्ती का कोटा 25% रखा गया है। इस आधार पर, अदालत ने कहा कि न्यायिक अधिकारियों को जिला न्यायाधीश बनने के अवसर से वंचित करने वाली शिकायत स्थायी नहीं है। "संविधान के निर्माताओं ने कल्पना की थी और पिछले सात दशकों से देश में प्रशासित कानून स्पष्ट रूप से बताते हैं कि भर्ती के पूर्वोक्त तरीके और दो अलग-अलग स्रोत, एक सेवारत से और दूसरे बार से पहचाने जाते हैं। हमें यह भी नहीं मिलता है। न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि न्यायिक सेवा में शामिल उम्मीदवारों की ओर से वकालत का समर्थन करने वाले एकल निर्णय ने उनके दावे को दांव पर लगा दिया, जो कि अधिवक्ताओं / वादकारियों के लिए आरक्षित पदों के खिलाफ है।

*पीठ के निष्कर्ष पीठ ने संदर्भ का उत्तर इस प्रकार दिया :---*

(i) राज्य की न्यायिक सेवा में सदस्यों को पदोन्नति या सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।

(ii) किसी राज्य का राज्यपाल नियुक्ति, पदोन्नति, पदस्थापन और स्थानांतरण के लिए प्राधिकारी होता है, पात्रता अनुच्छेद 234 और 235 के तहत बनाए गए नियमों द्वारा शासित होती है।

(iii) अनुच्छेद 232 (2 ) के तहत, एक वकील या सात साल की प्रैक्टिस करने वाले एक वकील को जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, यदि वह पहले से ही संघ या राज्य की न्यायिक सेवा में नहीं है।

(iv) अनुच्छेद 233 (2) के प्रयोजन के लिए, एक अधिवक्ता को कटऑफ की तारीख और जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के समय कम से कम 7 साल के लिए अभ्यास जारी रखना होगा। न्यायिक सेवा के सदस्य सेवा में शामिल होने से पहले 7 साल का अभ्यास का अनुभव या वकील और न्यायपालिका के सदस्य के रूप में 7 वर्षों का संयुक्त अनुभव होने के कारण, जिला न्यायाधीश के रूप में सीधी भर्ती के लिए आवेदन करने के पात्र नहीं हैं।

v) उच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक सेवा अधिकारियों को सीधी भर्ती के माध्यम से अधिवक्ताओं के लिए आरक्षित पदों के विरुद्ध जिला जज के पद के लिए दावा करने से रोक दिए गए नियम,संविधान के विपरीत नहीं कहे जा सकते और भारत के संविधान का अनुच्छेद 233 अनुच्छेद 14, 16 के अनुरूप है।

 vi) प्रत्यक्ष भर्ती के माध्यम से जिला न्यायाधीश के पद के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने के लिए न्यायिक अधिकारी की पात्रता प्रदान करने वाले विजय कुमार मिश्रा (सुप्रा) में निर्णय को कानून को सही ढंग से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। इसलिए उसे पलटा जाता है। "

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/practicing-advocates-experience-gained-at-bar-injects-judicial-branch-with-fresh-perspectives-sc-152966

Tuesday, 18 February 2020

शादी टूटने से बच्चे के प्रति माता पिता की ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट

शादी टूटने से बच्चे के प्रति माता पिता की ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शादी टूटने के बाद भी किसी दंपति की पैतृक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती है। बच्चे की कस्टडी के मामलों में चाहे कोई भी अभिभावक जीते, लेकिन बच्चा हमेशा हारता है। ये बच्चे ही हैं जो इस लड़ाई में सबसे भारी कीमत चुकाते हैं ,क्योंकि वे उस समय टूट जाते हैं जब न्यायिक प्रक्रिया द्वारा न्यायालय उन्हें माता-पिता में से जिसे न्यायालय उचित समझता है, उसके साथ जाने के लिए कहता है। एक वैवाहिक विवाद के मामले में दायर सिविल अपील पर विचार करते हुए जस्टिस ए.एम खानविल्कर और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने यह टिप्पणी की। अपील पर सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों द्वारा दी गई दलीलों पर विचार करने के बाद पीठ ने कहा कि- इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि बच्चे के अधिकारों का सम्मान करने की आवश्यकता है, क्योंकि वह माता-पिता दोनों के प्यार का हकदार है। भले ही शादी टूट जाए तो भी यह माता-पिता की जिम्मेदारी खत्म होने का संकेत नहीं है। एक वैवाहिक विवाद में सबसे ज्यादा पीड़ित बच्चा होता है। इस न्यायालय के निर्णयों की श्रृंखला द्वारा भी यह अच्छी तरह से तय किया गया है कि बच्चे की कस्टडी के मामलों को तय करते समय, प्राथमिक और सर्वोपरि विचार हमेशा बच्चे की भलाई है। यदि किसी भी तरीके से बच्चे की भलाई होती है तो तकनीकी आपत्तियां उसके रास्ते में नहीं आ सकतीं। हालांकि बच्चे की भलाई के लिए निर्णय लेते समय सिर्फ एक पति या पत्नी के विचार को ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। न्यायालयों को कस्टडी के मामलों पर सर्वोपरि विचार करना चाहिए जो कि कस्टडी की लड़ाई में पीड़ित बच्चे के हित में हो। न्यायालय ने यह भी कहा कि वैवाहिक मामलों में सबसे पहले मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से वैवाहिक विवादों को सुलझाने के लिए सारे प्रयास किए जाते हैं, जो कि व्यक्तिगत विवादों को सुलझाने के लिए वैकल्पिक प्रक्रिया के प्रभावी तरीकों में से एक है। परंतु मध्यस्थता की प्रक्रिया के माध्यम से अगर हल निकालना संभव न हो सके तो इस तरह के व्यक्तिगत विवादों को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए न्यायालय को अपनी न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से और प्रयास करने चाहिए। पीठ ने कहा कि ''निर्णय में देरी निश्चित रूप से किसी व्यक्ति को बहुत नुकसान पहुंचाती है और उसे उसके उन अधिकारों से वंचित करती है जो कि संविधान के तहत संरक्षित हैं। चूंकि हर गुजरते दिन के साथ बच्चा अपने माता-पिता के प्यार और स्नेह से वंचित होने की भारी कीमत चुकाता है, जबकि इन सबके लिए उसकी कोई गलती नहीं थी, परंतु हमेशा बच्चा हारता है, जिसकी भरपाई किसी तरह के मुआवजा देकर नहीं की जा सकती।''

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दूसरी अपील में तथ्यों के निष्कर्ष में कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता जब तक कि तथ्य के निष्कर्ष विकृत न हों : सुप्रीम कोर्ट 

किसी तथ्य के निष्कर्ष में दूसरी अपील के दौरान तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, जब तक कि उन निष्कर्षों को विकृत न किया गया हो। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह बात कही। इस मामले में वादी ने दावा किया कि अपने पिता की मृत्यु के समय वह नाबालिग था और उसके भाइयों ने उससे कुछ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करा लिए और उसे नहीं पता था कि उन दस्तावेज़ों में क्या है और न ही उसने कोई दस्तावेज़ी क़रार किया है और न ही उसे यह समझ है कि उन दस्तावेज़ों में क्या है। अपने नाबालिग़ होने के समर्थन में उसने जो एकमात्र प्रमाण पेश किया है, वह उसका विद्यालय छोड़ने का प्रमाणपत्र (एसएलसी) था। निचली अदालत ने इस मामले को ख़ारिज करते हुए वादी के एसएलसी में जन्म तिथि पर भरोसा नहीं किया क्योंकि इसे स्कूल के हेडमास्टर ने जारी नहीं किया था और वादी ने स्कूल के हेडमास्टर से एसएलसी में दी गई तारीख़ को सत्यापित नहीं कराया था। प्रथम अपीलीय अदालत ने यह भी कहा कि वादी क़रार जिस समय हुआ उस समय नाबालिग नहीं था और इसलिए अपील को ख़ारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने दूसरी अपील पर एकमात्र जिस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर ग़ौर किया वह यह था कि निचली अदालत ने एसएलसी पर ग़ौर करने के बाद जो फ़ैसले दिए हैं उसमें किसी भी तरह की असंवैधानिकता नहीं अपनाई गई है। हाईकोर्ट ने दूसरी अपील पर सुनवाई को राज़ी हो गया। मामले के तथ्यों पर ग़ौर करते हुए न्यायमूर्ति एसए नज़ीर और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने कहा, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 74 के तहत इनमें ऐसे दस्तावेज़ शामिल हैं जो आधिकारिक एकक या अधिकरण के रिकॉर्ड में हैं। इस अधिनियम की धारा 76 किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह उचित फ़ीस चुकाकर सार्वजनिक दस्तावेज़ की कॉपी और प्रमाणपत्र प्राप्त कर सकता है, जिसके नीचे यह लिखा होना चाहिए कि यह उस दस्तावेज की सत्यापित प्रतिलिपि है। दस्तावेज़ की सत्यापित प्रतिलिपि सार्वजनिक दस्तावेज़ के सबूत के रूप में पेश किया जा सकता है। वादी ने इस अपील में प्रमाणपत्र की फ़ोटोकॉपी पेश की है और इस तरह के प्रमाणपत्र में यह नहीं बताता कि यह उक्त दस्तावेज़ की सत्यापित कॉपी है जैसा कि अधिनियम की धारा 76 में प्रावधान किया गया है। वादी ने अपने पिता द्वारा हस्ताक्षरित विद्यालय छोड़ने का प्रमाणपत्र पेश किया, जिस व्यक्ति ने स्कूल के रजिस्टर में यह जन्म तिथि दर्ज की है या जिस व्यक्ति ने एसएलसी पर उसके पिता के हस्ताक्षर को सत्यापित किया है उससे पूछताछ नहीं की गई है। स्कूल का कोई अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति ने उसके पिता के हस्ताक्षर को सत्यापित नहीं किया है। ख़ुद के दिए बयान के अलावा इस तरह के साक्ष्य नहीं हैं कि स्कूल के रजिस्टर में संबंधित अधिकारी ने जन्म तिथि दर्ज की है क्योंकि सिर्फ़ इसी वजह से भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 35 के तहत इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हाईकोर्ट को किसी और साक्ष्य से इस प्रमाणपत्र की सत्यता का पता नहीं चला है। हाईकोर्ट के फ़ैसले को निरस्त करते हुए पीठ ने कहा, "दोनों ही अदालतें, निचली और प्रथम अपीलीय अदालत ने विद्यालय छोड़ने के प्रमाणपत्र की जांच की है और बताया है कि जन्मतिथि का इस प्रमाणपत्र से सत्यापन नहीं होता। हो सकता है कि हाईकोर्ट निचली अदालत के रूप में इससे अलग राय व्यक्त करती पर एक बार जब दो अदालतों ने जो राय दी है वह किसी ठोस साक्ष्य को ग़लत पढ़े जाने के कारण नहीं है और न ही इसे क़ानून के किसी प्रवधान के तहत दर्ज किया गया है, न ही यह कहा जा सकता कि उचित तरीक़े और तार्किक ढंग से काम करने वाला जज इस तरह की राय नहीं दे सकता, तो यह नहीं कहा जा सकता कि हाईकोर्ट ने ग़लती की है। परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट के समक्ष क़ानून का कोई बड़ा मुद्दा खड़ा नहीं हुआ। इस तरह हम पाते हैं कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत ने जो तथ्य उद्घाटित किए थे और जिसको प्रथम अपीलीय अदालत ने सही माना था, उसमें हस्तक्षेप करके ग़लती की…हाईकोर्ट को तथ्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था।"

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/findings-of-fact-cannot-be-interfered-with-in-a-second-appeal-unless-findings-are-perverse-reiterates-sc-152897