Saturday, 12 July 2025

पिता सामान्य जाती से ओर माता मात्र पिछड़ी एससी जाति की मां से पालन-पोषण होने पर भी जातीय उत्पीड़न न झेलने पर आरक्षण का लाभ नहीं

पिता सामान्य जाती से ओर माता मात्र पिछड़ी एससी जाति की मां से पालन-पोषण होने पर भी जातीय उत्पीड़न न झेलने पर आरक्षण का लाभ नहीं

बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक स्टूडेंट की याचिका खारिज करते हुए कहा कि यदि किसी अंतरजातीय विवाह से जन्मे बच्चे ने अपनी पिछड़ी जाति के माता-पिता के साथ रहते हुए भी कोई सामाजिक भेदभाव या अपमान का सामना नहीं किया है तो उसे उस जाति के तहत आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस डॉ. नीला गोखले की खंडपीठ ने सुजल मंगल बिरवडकर की याचिका खारिज की। याचिका में जिला जाति प्रमाण पत्र जांच समिति के 15 अप्रैल 2024 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता को चांभार (अनुसूचित जाति) के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया गया था। Also Read - संदिग्ध को जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, राज्य और न्यायालयों का दायित्व है कि इसका उल्लंघन न हो: बॉम्बे हाईकोर्ट याचिकाकर्ता के पिता हिंदू अगरी (गैर-एससी जाति) और मां चांभार (एससी जाति) समुदाय से हैं। 2016 में माता-पिता का तलाक हो गया, जिसके बाद सुजल ने अपनी मां का उपनाम अपनाया और खुद को चांभार के रूप में पहचानने लगा। हालांकि जांच समिति ने पाया कि याचिकाकर्ता ने कभी अपनी मां की जाति के कारण कोई सामाजिक अपमान या वंचना नहीं झेली। अदालत ने कहा, “भले ही याचिकाकर्ता का पालन-पोषण उसकी मां ने अकेले किया हो लेकिन उसके जीवन में किसी भी तरह की वंचना दिखाई नहीं देती। याचिकाकर्ता ने अपने पिता की ऊंची जाति का लाभ उठाया और स्कूली जीवन में उसकी जाति हिंदू अगरी दर्ज रही। उसकी मां मुंबई पोर्ट सेंट्रल पुलिस में कार्यरत रहीं। रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे यह साबित हो कि याचिकाकर्ता की मां को कोई ऐसा अपमान झेलना पड़ा हो, जिसका असर याचिकाकर्ता पर पड़ा हो।” अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता को अच्छी शिक्षा मिली, उसके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ और उसे जीवन में शुरू से ही बेहतर अवसर मिले। इस आधार पर अदालत ने याचिका खारिज कर दी। 

केस टाइटल: सुजल मंगल बिरवडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य [रिट याचिका क्र. 13016 / 2024]


https://hindi.livelaw.in/bombay-high-court/justice-revati-mohite-dere-justice-dr-neela-gokhale-inter-caste-marriage-caste-certificates-296724

केवल पत्नी की दलीलों में दोष बताकर पति भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

*केवल पत्नी की दलीलों में दोष बताकर पति भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट*

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता-पति द्वारा दायर आपराधिक पुनर्विचार आवेदन खारिज करते हुए रेखांकित किया कि भरण-पोषण का दावा करने वाली निराश्रित पत्नी को केवल उसकी दलीलों में दोषों के आधार पर पीड़ित नहीं किया जा सकता है। पति ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसने सीआरपीसी की धारा 127 के तहत भरण-पोषण राशि कम करने के उसके आवेदन को खारिज कर दिया था। जस्टिस प्रेम नारायण सिंह की एकल न्यायाधीश पीठ ने *सुनीता कछवाहा एवं अन्य बनाम अनिल कछवाहा, (2015) मामले में सुप्रीम कोर्ट* के फैसले का जिक्र करने के बाद कहा कि भरण-पोषण के मामलों में 'अति तकनीकी रवैया' नहीं अपनाया जा सकता है।

अदालत ने आदेश में कहा, “…अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ निराश्रित पत्नी को केवल उसकी गलती के आधार पर प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के भरण-पोषण के मामलों में अति तकनीकी रवैया नहीं अपनाया जा सकता। ऐसे में याचिकाकर्ता इस बहाने से बच्चे और पत्नी के भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकती कि उसने अपनी दलीलों और मामले की कार्यवाही में कुछ गलती की।” सुनीता कछवाहा और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत कार्यवाही प्रकृति में सारांश है और ऐसी कार्यवाही के लिए पति और पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद की बारीकियों का विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने तब सीआरपीसी की धारा 125 के तहत आवेदन में यह अंतिम निष्कर्ष निकाला था कि गलती किसकी है और किस हद तक अप्रासंगिक है।

मौजूदा मामले में सीआरपीसी की धारा 127 के तहत आवेदन को पहले *चतुर्भुज बनाम सीताबाई, (2008)* का हवाला देते हुए फैमिली कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया। फैमिली कोर्ट ने तब कहा था कि भले ही पत्नी परित्याग के बाद थोड़ी सी आय अर्जित करती है, लेकिन इसे इस आधार पर उसके गुजारा भत्ते को अस्वीकार करने के कारण के रूप में नहीं लिया जा सकता कि उसके पास अपनी आजीविका कमाने के लिए आत्मनिर्भर स्रोत है। पति ने तर्क दिया कि पत्नी वर्तमान में शिक्षक के रूप में काम कर रही है और वेतन के रूप में अच्छी रकम ले रही है। याचिकाकर्ता-पति ने यह भी तर्क दिया कि पत्नी ने दलीलों में जानबूझकर अपनी आय के बारे में विवरण छिपाया है।

चतुर्भज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि 'स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ' वाक्यांश का मतलब यह होगा कि परित्यक्त पत्नी को अपने पति के साथ रहने के दौरान साधन उपलब्ध होंगे और परित्याग के बाद पत्नी द्वारा किए गए प्रयासों को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा।” जस्टिस प्रेम नारायण सिंह ने कहा कि पत्नी की मुख्य जांच के दौरान उसने स्पष्ट रूप से कहा कि उसके पास आय का कोई साधन नहीं है, क्योंकि वह तब काम नहीं कर रही थी। अदालत ने कहा कि क्रॉस एक्जामिनेशन में इन बयानों का खंडन नहीं किया गया। पीठ ने आगे टिप्पणी की, केवल एमफिल की डिग्री के आधार पर प्रतिवादी-पत्नी अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है।

हालांकि याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसने अपनी इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ दी, इसलिए वह भारतीय महाविद्यालय, उज्जैन में कार्यरत अपनी पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं है, हाईकोर्ट ने *शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015)* पर भरोसा करते हुए अपने विश्लेषण में मतभेद किया, जहां शीर्ष अदालत ने माना कि गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी से बचने के लिए पति द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति को माफ नहीं किया जा सकता है। जस्टिस प्रेम नारायण सिंह ने स्पष्ट किया, "उपरोक्त कानून के अनुसार, यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि भले ही याचिकाकर्ता ने नौकरी छोड़ दी हो, वह अपनी पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण के लिए उत्तरदायी होगा।" अदालत ने *चंदर प्रकाश बोध राज बनाम शिला रानी चंद्र प्रकाश (1968)* मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के अनुपात पर भी संक्षेप में जोर दिया, जिसमें यह माना गया कि 'सक्षम युवा व्यक्ति को पर्याप्त पैसा कमाने में सक्षम माना जाना चाहिए, जिससे वह अपनी पत्नी और बच्चे का भरण-पोषण उचित ढंग से कर सके।' जहां तक मामले को फैमिली कोर्ट में वापस भेजने के संबंध में याचिका है, हाईकोर्ट ने कहा कि कार्यवाही के इस चरण में ऐसा कदम उचित नहीं होगा, खासकर जब दोनों पक्ष 2016 से मुकदमेबाजी में उलझे हुए हैं। हालांकि पक्षकार सीआरपीसी की धारा 127 के तहत किसी भी 'बदलते चरण' में ट्रायल कोर्ट से संपर्क करने का अधिकार है। सीआरपीसी की धारा 127 पति की परिस्थितियों में बदलाव के प्रमाण पर दिए जाने वाले भत्ते/भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण में बदलाव की बात करती है। वर्तमान याचिका ऐसे मामलों में हाईकोर्ट की पुनर्विचार शक्तियों को लागू करने के लिए पति द्वारा फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 19(4) आर/डब्ल्यू सीआरपीसी की धारा 397/401 के तहत दायर की गई। याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट पंकज सोनी और प्रतिवादी की ओर से एडवोकेट शन्नो शगुफ्ता खान उपस्थित हुईं। मामले की पृष्ठभूमि इससे पहले 2020 में फैमिली कोर्ट ने प्रतिवादी-पत्नी और विवाह से पैदा हुए बेटे को दिए जाने वाले भरण-पोषण की राशि को कम करने के लिए वर्तमान पुनर्विचार याचिकाकर्ता द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया था, यानी उनमें से प्रत्येक के लिए क्रमशः 7000/- रुपये और 3000/- रुपये। 2014 में विवाह संपन्न होने के बाद में पति और पत्नी के बीच कुछ विवाद के कारण वे अलग रहने लगे और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत दायर आवेदन के अनुसार फैमिली कोर्ट द्वारा 2018 में उपरोक्त भरण-पोषण राशि प्रदान की गई।


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