Saturday, 5 April 2025

केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

*केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व तहसीलदार के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही रद्द की। कोर्ट इस मामले में यह फैसला दिया कि दुर्भावना या बाहरी प्रभाव के आरोपों के बिना गलत अर्ध-न्यायिक आदेश अकेले अनुशासनात्मक कार्रवाई को उचित नहीं ठहरा सकते। कोर्ट ने कहा कि जब आदेश सद्भावनापूर्वक (हालांकि गलत) पारित किया गया तो यह अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का औचित्य नहीं रखता, जब तक कि आदेश बाहरी कारकों या किसी भी तरह के रिश्वत से प्रभावित न हो।


जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता (जब वह तहसीलदार था) के खिलाफ आदेश पारित करने के 14 साल बाद कथित गलत आदेश पारित करने के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई। संक्षेप में मामला 1997 में तहसीलदार के रूप में अपीलकर्ता ने मप्र भूमि राजस्व संहिता, 1959 की धारा 57(2) के तहत अर्ध-न्यायिक आदेश पारित किया, जिसमें उचित प्रक्रिया (नोटिस, पंचायत संकल्प, पटवारी रिपोर्ट) के बाद कुछ निजी पक्षों के पक्ष में भूमि का निपटान किया गया। आदेश को अंतिम रूप दिया गया, क्योंकि इसे कभी चुनौती नहीं दी गई।


हालांकि, 2009 में उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और 2011 में आरोप पत्र जारी किया गया, जिसमें राज्य को नुकसान पहुंचाने वाले अवैध बंदोबस्त का आरोप लगाया गया। आरोप पत्र को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने मप्र हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अर्ध-न्यायिक कृत्यों के लिए न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 के तहत सुरक्षा की मांग की। साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि आरोप पत्र में बाहरी प्रभाव या भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं है, जिसके लिए 14 साल की अत्यधिक देरी के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।


अस्पष्ट देरी का हवाला देते हुए एकल खंडपीठ ने आरोप पत्र खारिज कर दिया। हालांकि, खंडपीठ ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.के. धवन (1993) पर भरोसा करते हुए एकल जज के आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि लापरवाही/अर्ध-न्यायिक कृत्यों के कारण अनुचित पक्षपात हो सकता है, जिसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई की आवश्यकता हो सकती है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। हाईकोर्ट की खंडपीठ का निर्णय दरकिनार करते हुए जस्टिस मसीह द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया कि भ्रष्टाचार, बाहरी प्रभाव या बेईमानी के आरोपों के बिना केवल "गलत आदेश" अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही को उचित नहीं ठहरा सकते।


कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य, (2019) 10 एससीसी 640 का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए केवल गलत आदेश नहीं, बल्कि कदाचार का सबूत भी आवश्यक है। 


कृष्ण प्रसाद वर्मा के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया, "न्यायिक अधिकारियों द्वारा गलत आदेश दिए जाने पर स्वतः ही अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब तक कि बाहरी प्रभावों के आधार पर कदाचार के आरोप न हों। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित पक्षों को कानून के तहत उपलब्ध सभी उपचारों का लाभ उठाने का अधिकार होगा। यह भी दोहराया गया कि जब तक कदाचार, बाहरी प्रभावों, किसी भी तरह की रिश्वत आदि के स्पष्ट आरोप न हों, तब तक केवल इस आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जानी चाहिए कि न्यायिक अधिकारी द्वारा गलत आदेश पारित किया गया है या केवल इस आधार पर कि न्यायिक आदेश गलत है।" 


मामले के तथ्यों पर कानून लागू करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की: 


“वर्तमान मामले में हमारा विचार है कि आरोपपत्र में अपीलकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोप गलत आदेश की श्रेणी में आते हैं, जो बाहरी कारकों या किसी भी प्रकार की रिश्वत से प्रभावित नहीं प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदेश बिना किसी बेईमानी के सद्भावनापूर्वक पारित किया गया है। इसके अलावा, कारण बताओ नोटिस में उल्लिखित तथ्य ऐसी किसी भी अनुचितता का संकेत नहीं देते हैं। भूमि बंदोबस्त आदेश पारित करते समय अपीलकर्ता द्वारा तहसीलदार के रूप में प्रयोग की गई शक्ति को ऐसी प्रकृति का नहीं माना जा सकता, जिसके लिए उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की आवश्यकता हो। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया, अपीलकर्ता के वकील द्वारा जिस निर्णय पर भरोसा किया गया, वह इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है। परिणामस्वरूप, पहला प्रश्न अपीलकर्ता के पक्ष में उत्तरित किया जाता है।” उपर्युक्त को देखते हुए न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया और एकल पीठ द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए विवादित आदेश रद्द कर दिया। 


केस टाइटल: अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्र

देश राज्य और अन्य।


Tuesday, 25 March 2025

एनआई एक्ट 148| राशि का 20% जमा करने की शर्त पूर्ण नहीं; असाधारण मामला बनाने पर राहत दी जाती है : सुप्रीम कोर्ट

एनआई एक्ट 148| राशि का 20% जमा करने की शर्त पूर्ण नहीं; असाधारण मामला बनाने पर राहत दी जाती है : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजा को निलंबित करने की शर्त के रूप में निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 148 के तहत न्यूनतम 20% राशि जमा करना एक पूर्ण नियम नहीं है। न्यायालय ने कहा, जब कोई अपीलीय अदालत एक अभियुक्त की सीआरपीसी की धारा 389 के तहत प्रार्थना पर विचार करती है जिसे निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, वह इस पर विचार कर सकती है कि क्या यह एक असाधारण मामला है जिसमें जुर्माना/मुआवजा राशि का 20% जमा करने की शर्त लगाए बिना सजा को निलंबित करने की आवश्यकता है।

जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने कहा कि यदि अपीलीय अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि यह एक असाधारण मामला है, तो उक्त निष्कर्ष पर पहुंचने के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए। इस मामले में आरोपियों को धारा 138 एनआई एक्ट के तहत दोषी ठहराया गया और अपील में, धारा 148 एनआई अधिनियम पर भरोसा करते हुए, सत्र न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को मुआवजे की राशि का 20% जमा करने की शर्त के अधीन धारा 389 सीआरपीसी के तहत राहत दी। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इस आदेश पर मुहर लगा दी। हाईकोर्ट के मुताबिक सीआरपीसी की धारा 389 के तहत सजा के निलंबन से राहत अभियुक्त को मुआवज़ा/जुर्माना राशि का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश देकर ही प्रदान की जा सकती है।

अपील में, अदालत ने सुरिंदर सिंह देसवाल उर्फ कर्नल एसएस देसवाल और अन्य बनाम वीरेंद्र गांधी (2019) 11 SCC 341 मामले में की गई टिप्पणियों पर गौर किया और कहा: "इस न्यायालय का मानना है कि एनआई अधिनियम की धारा 148 की एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या की जानी चाहिए। इसलिए, आम तौर पर, अपीलीय अदालत को धारा 148 में प्रदान की गई जमा राशि की शर्त लगाना उचित होगा। हालांकि, ऐसे मामले में जहां अपीलीय न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि 20% जमा करने की शर्त अन्यायपूर्ण होगी या ऐसी शर्त लगाने से अपीलकर्ता को अपील के अधिकार से वंचित होना पड़ेगा, विशेष रूप से दर्ज किए गए कारणों से अपवाद किया जा सकता है।"

यह तर्क दिया गया कि न तो सत्र न्यायालय के समक्ष और न ही हाईकोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ताओं द्वारा कोई दलील दी गई थी कि इन मामलों में एक अपवाद बनाया जा सकता है और जमा की आवश्यकता या राशि का न्यूनतम 20% समाप्त किया जा सकता है। अदालत ने कहा , "जब कोई आरोपी सीआरपीसी की धारा 389 के तहत सजा के निलंबन के लिए आवेदन करता है, तो वह आम तौर पर बिना किसी शर्त के सजा के निलंबन से राहत के लिए आवेदन करता है। इसलिए, जब अपीलकर्ताओं द्वारा एक व्यापक आदेश मांगा जाता है, तो अदालत को विचार करना होगा मामला अपवाद में आता है या नहीं.. इन मामलों में, सत्र न्यायालय और हाईकोर्ट दोनों गलत आधार पर आगे बढ़े हैं कि न्यूनतम 20% राशि जमा करना एक पूर्ण नियम है जो किसी भी अपवाद को समायोजित नहीं करता है।

इसलिए पीठ ने हाईकोर्ट को मामले पर नये सिरे से विचार करने का निर्देश दिया। जम्बू भंडारी बनाम मप्र राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड - 2023 लाइव लॉ (SC) 776 - 2023 INSC 822 निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881; धारा 148 - आम तौर पर, धारा 148 में दिए गए अनुसार जमा की शर्त लगाना अपीलीय न्यायालय के लिए उचित होगा। हालांकि, ऐसे मामले में जहां अपीलीय न्यायालय संतुष्ट है कि 20% जमा की शर्त अन्यायपूर्ण होगी या ऐसी शर्त लगाना अनुचित होगा। यह अपीलकर्ता को अपील के अधिकार से वंचित करने के बराबर है, विशेष रूप से दर्ज किए गए कारणों से अपवाद किया जा सकता है। (पैरा 5-6)

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973; धारा 389 - निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट , 1881; धारा 148 - जब कोई अपीलीय अदालत एक अभियुक्त की सीआरपीसी की धारा 389 के तहत प्रार्थना पर विचार करती है जिसे निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, वह इस पर विचार कर सकती है कि क्या यह एक असाधारण मामला है जिसमें जुर्माना/मुआवजा राशि का 20% जमा करने की शर्त लगाए बिना सजा को निलंबित करने की आवश्यकता है- यदि अपीलीय न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि यह एक असाधारण मामला है, तो उक्त निष्कर्ष पर पहुंचने के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए। जब कोई आरोपी सीआरपीसी की धारा 389 के तहत आवेदन करता है। सजा के निलंबन के लिए, वह आम तौर पर बिना किसी शर्त के सजा के निलंबन से राहत देने के लिए आवेदन करता है। इसलिए, जब अपीलकर्ताओं द्वारा व्यापक आदेश की मांग की जाती है, तो न्यायालय को इस पर विचार करना होगा कि मामला अपवाद में आता है या नहीं। (पैरा 7-10)


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/section-148-ni-act-deposit-of-minimum-20-amount-is-not-an-absolute-rule-can-be-relaxed-if-exceptional-case-is-made-out-supreme-court-237684


Friday, 14 March 2025

एमपी में दो से अधिक संतानों पर बर्खास्तगी पर हाईकोर्ट का बड़ा फैसला

मपी में दो से अधिक संतानों पर बर्खास्तगी पर हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, 14/03/2025

MP Highcourt एमपी में सरकारी सेवा में दो से अधिक संतान होने पर बर्खास्तगी पर जबलपुर हाईकोर्ट का महत्त्वपूर्ण निर्णय सामने आया है। इस मामले में मप्र हाईकोर्ट ने एक शिक्षक को राहत दी है। कोर्ट ने उनकी बर्खास्तगी का आदेश स्थगित कर दिया है। याचिकाकर्ता नसीर खान मैहर में मिडिल स्कूल के शिक्षक थे। दो से अधिक संतान पर सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा याचिकाकर्ता को छह मार्च, 2025 को सेवामुक्त कर दिया गया था जिससे हाईकोर्ट ने राहत दी। सुनवाई के दौरान कोर्ट में पूर्व के समान मामलों के आदेशों का भी हवाला दिया गया।

मप्र हाईकोर्ट MP Highcourt ने दो से अधिक संतान होने के आधार पर सेवा से बर्खास्तगी के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। जस्टिस विशाल मिश्रा की सिंगल बेंच ने आयुक्त लोक शिक्षण, जिला शिक्षा अधिकारी मैहर व अन्य को तलब किया। याचिकाकर्ता नसीर खान के मामले में यह निर्णय दिया गया।

मैहर में मिडिल स्कूल के शिक्षक नसीर खान को सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा 10 मार्च 2000 को जारी परिपत्र के आधार पर 6 मार्च, 2025 को सेवामुक्त कर दिया गया। इसके अनुसार ऐसे उम्मीदवार जिसके दो से अधिक जीवित संतान हैं, जिनमें से एक का जन्म 26 जनवरी, 2001 या उसके बाद हो, वह किसी सेवा या पद पर नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा।

हाईकोर्ट में कहा गया कि इसमें उम्मीदवार लिखा है, जबकि वह 1998 से नौकरी में था। याचिका पर बहस के दौरान हाई कोर्ट के पूर्व के समान मामलों के आदेशों का भी हवाला दिया गया।

Thursday, 27 February 2025

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने नियुक्ति से पहले आपराधिक रिकॉर्ड छिपाने के लिए सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने नियुक्ति से पहले आपराधिक रिकॉर्ड छिपाने के लिए सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सिविल जज वर्ग-II अतुल ठाकुर की बर्खास्तगी को बरकरार रखा है, क्योंकि उन्होंने अपने सत्यापन फॉर्म में


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Monday, 24 February 2025

क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं, मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी - सुप्रीम कोर्ट

*क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं, मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी - सुप्रीम कोर्ट*

Supreme Court Decision : दहेज के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, हाईकोर्ट का फैसला पलटा

Supreme Court Decision :दहेज का मामला धारा 498ए के अंदर आता है। अगर कोई महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित करता है तो धारा 498ए के तहत कार्रवाई की जाती है। वहीं, धारा 498ए तहत केवल दहेत उत्पीड़न ही नहीं, अन्य मामले भी आते हैं। इसपर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया है। हाईकोर्ट की ओर से कुछ और फैसला दिया गया था।

*क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक मामला पहुंचा। जिसमें महिला ने उत्पीड़न का आरोप लगाया था। महिला की ओर से लगाए गए उत्पीड़न के आरोप पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान महिला से दहेज नहीं मांगा गया था।जिस वहज से पहले हाईकोर्ट ने एफआईआर को रद्द करा दिया था। फिर अब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court order) ने कहा है कि आपीसी की धारा 498ए के तहत क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं है। 

*498ए का दायरा सिर्फ दहेज मांगने तक सीमित नहीं*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 498ए का मूल उद्देश्य महिलाओं को पति और ससुराल पक्ष की क्रूरता से बचाना है। इसमें यह जरूरी नहीं कि क्रूरता सिर्फ दहेज की मांग से ही की गई हो। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के दौरान साफ किया कि धारा 498ए का दायरा सिर्फ दहेज मांगने तक सीमित नहीं है। 

*मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि अगर कोई महिला मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित की जाती है तो 498ए धारा लागू होगी। चाहे दहेज की मांग न की गई हो। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि अगर पति या ससुराल पक्ष का आचरण ऐसा है जिससे महिला को गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान हो सकता है, तो इसे क्रूरता माना जाएगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलता

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) से पहले मामला हाईकोर्ट में पहुंचा था। मामला आंध्र प्रदेश से जुड़ा है। हाईकोर्ट की ओर से व्यक्ति और उसके परिवार के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने का आदेश दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि क्योंकि दहेज की मांग नहीं की गई है तो इसलिए 498ए का मामला नहीं बनता है। परंतु, अब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्रूरता के अन्य रूप भी अपराध की श्रेणी में ही आते हैं। 

Saturday, 8 February 2025

गिरफ्तारी के बारे में रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी के आधार के बारे में गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करने के कर्तव्य का अनुपालन नहीं: सुप्रीम कोर्ट

 Article 22(1) | गिरफ्तारी के बारे में रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी के आधार के बारे में गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करने के कर्तव्य का अनुपालन नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के बारे में व्यक्ति के रिश्तेदारों को सूचित करने से पुलिस या जांच एजेंसी को गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने के अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्व से छूट नहीं मिलती। अदालत ने कहा, "गिरफ्तार व्यक्ति की रिश्तेदार (पत्नी) को गिरफ्तारी के आधार के बारे में बताना अनुच्छेद 22(1) के आदेश का अनुपालन नहीं है।" इसके अलावा, कोर्ट ने राज्य के इस दावे को खारिज कर दिया कि रिमांड रिपोर्ट, गिरफ्तारी ज्ञापन और केस डायरी में गिरफ्तारी के बारे में विस्तृत जानकारी देना संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार प्रदान करने के संवैधानिक आदेश का पर्याप्त रूप से अनुपालन करता है। कोर्ट ने बताया कि ये दस्तावेज केवल गिरफ्तारी के तथ्य को दर्ज करते हैं, इसके पीछे के कारणों को नहीं। अदालत ने कहा, "रिमांड रिपोर्ट में गिरफ्तारी के आधार का उल्लेख करना, गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने की आवश्यकता का अनुपालन नहीं है।" अदालत ने कहा, "हाईकोर्ट के समक्ष (राज्य द्वारा) लिया गया रुख यह था कि अपीलकर्ता की पत्नी को गिरफ्तारी के बारे में सूचित किया गया। गिरफ्तारी के बारे में जानकारी गिरफ्तारी के आधार से पूरी तरह से अलग है। गिरफ्तारी के आधार गिरफ्तारी ज्ञापन से अलग हैं। गिरफ्तारी ज्ञापन में गिरफ्तार व्यक्ति का नाम, उसका स्थायी पता, वर्तमान पता, FIR और लागू धारा का विवरण, गिरफ्तारी का स्थान, गिरफ्तारी की तारीख और समय, आरोपी को गिरफ्तार करने वाले अधिकारी का नाम और उस व्यक्ति का नाम, पता और फोन नंबर शामिल है, जिसे गिरफ्तारी के बारे में जानकारी दी गई। हमने वर्तमान मामले में गिरफ्तारी ज्ञापन का अवलोकन किया। इसमें केवल ऊपर बताई गई जानकारी है, न कि गिरफ्तारी के आधार। गिरफ्तारी के बारे में जानकारी गिरफ्तारी के आधार के बारे में जानकारी से पूरी तरह से अलग है। गिरफ्तारी की सूचना मात्र से गिरफ्तारी के आधार प्रस्तुत नहीं किए जा सकते।" अदालत ने आगे कहा, “इस संबंध में 10 जून 2024 को शाम 6.10 बजे केस डायरी की प्रविष्टि पर भरोसा किया गया, जिसमें दर्ज है कि अपीलकर्ता को गिरफ्तारी के आधारों के बारे में सूचित करने के बाद गिरफ्तार किया गया। यह हाईकोर्ट के समक्ष और साथ ही इस न्यायालय में प्रथम प्रतिवादी के उत्तर में दलील नहीं दी गई थी। यह एक बाद का विचार है। हाईकोर्ट और इस कोर्ट के समक्ष दायर उत्तर में लिए गए रुख को देखते हुए केवल पुलिस डायरी में एक अस्पष्ट प्रविष्टि के आधार पर हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि अनुच्छेद 22(1) के अनुपालन का अनुमान लगाया जा सकता है। कोई भी समकालीन दस्तावेज रिकॉर्ड में नहीं रखा गया, जिसमें गिरफ्तारी के आधारों का उल्लेख किया गया हो। इसलिए डायरी प्रविष्टियों पर भरोसा करना पूरी तरह से अप्रासंगिक है।” 

केस टाइटल: विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य और अन्य, एसएलपी (सीआरएल) नंबर 13320/2024 

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/article-221-informing-relatives-about-arrest-isnt-compliance-of-duty-to-inform-arrestee-of-grounds-of-arrest-supreme-court-283328

आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में उत्पीड़न इतना गंभीर होना चाहिए कि पीड़ित के पास कोई और विकल्प न बचे: सुप्रीम कोर्ट

आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में उत्पीड़न इतना गंभीर होना चाहिए कि पीड़ित के पास कोई और विकल्प न बचे: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान अपीलकर्ताओं के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपों को खारिज करते हुए दोहराया कि कथित उत्पीड़न ऐसी प्रकृति का होना चाहिए कि पीड़ित के पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प न हो। इसके अलावा, मृतक को आत्महत्या करने में सहायता करने या उकसाने के आरोपी के इरादे को स्थापित किया जाना चाहिए। कई फैसलों पर भरोसा किया गया, जिसमें हाल ही में महेंद्र अवासे बनाम मध्य प्रदेश राज्य शामिल थे।

"IPC की धारा 306 के तहत अपराध बनाने के लिए, उस उकसाने के परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्ति की आत्महत्या के बारे में लाने के इरादे से आरोपी की ओर से धारा 107 आईपीसी द्वारा विचार किए गए विशिष्ट उकसाने की आवश्यकता है। आगे यह माना गया है कि मृतक को आत्महत्या करने के लिए सहायता करने या उकसाने या उकसाने का अभियुक्त का इरादा आईपीसी की धारा 306 को आकर्षित करने के लिए जरूरी है [देखें मदन मोहन सिंह बनाम गुजरात राज्य और अन्य, (2010) 8 SCC 628]। इसके अलावा, कथित उत्पीड़न से पीड़ित को अपने जीवन को समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं छोड़ना चाहिए था और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में आत्महत्या के लिए उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्यों का सबूत होना चाहिए।

वर्तमान मामले की उत्पत्ति पहले अपीलकर्ता के बेटे, जियाउल रहमान (अब मृतक) और शिकायतकर्ता के चचेरे भाई तनु (मृतक) के बीच संदिग्ध संबंध में निहित है। अपीलकर्ता द्वारा एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि तनु के रिश्तेदारों ने उसके बेटे को पीटा था। इस घटना के बाद, अपीलकर्ता के बेटे ने चोटों के कारण दम तोड़ दिया। इसके बाद, आरोपों के अनुसार, अपीलकर्ताओं ने तनु को अपमानित किया और तनु को प्रताड़ित किया, उसे अपने बेटे की मौत के लिए दोषी ठहराया। शिकायतकर्ता के अनुसार, इससे उसके चचेरे भाई ने आत्महत्या कर ली। शिकायतकर्ता द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला शुरू किया गया था। इसे चुनौती देते हुए, अपीलकर्ताओं ने इन कार्यवाहियों को रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया

हालांकि, हाईकोर्ट ने इसे रद्द करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि आत्महत्या और आरोपी के कृत्य के बीच एक निकट संबंध था। उच्च न्यायालय ने कहा कि मृतका एक अतिसंवेदनशील लड़की थी और वह बहुत उदास थी और अपमानित महसूस कर रही थी। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, वर्तमान अपील दायर की गई थी। इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा कि आरोप पत्र शिकायतकर्ता के बयानों के आधार पर दायर किया गया है। विशेष रूप से, जांच में किसी अन्य कोण का पता नहीं लगाया गया। अदालत ने दर्ज किया कि आरोप पत्र ने शिकायतकर्ता के संस्करण को एक सुसमाचार सत्य के रूप में स्वीकार किया।
"आज हमारे पास शिकायतकर्ता R-2 का एकतरफा संस्करण बचा है। क्या कुछ और भयावह था? अगर यह आत्महत्या भी थी तो असली वजह क्या थी? क्या मृतका तनु अपने दोस्त जियाउल रहमान के साथ जो हुआ उससे व्याकुल थी? अंडर-करंट और रिश्ते की अस्वीकृति को ध्यान में रखते हुए, क्या किसी अन्य कोने से आत्महत्या के लिए कोई उकसावा था? क्या मृतका तनु ने घटनाओं के बदसूरत मोड़ के कारण और इस तथ्य के कारण कि उसके परिवार के सदस्यों पर संदेह था, अपनी जान लेने की चरम कार्रवाई का सहारा लिया? हमारे पास आज कोई जवाब नहीं है।

आगे बढ़ते हुए, अदालत ने कहा कि आत्महत्या के लिए उकसाने के अवयवों का आरोप पत्र में दूर-दूर तक उल्लेख नहीं किया गया है। इसके अलावा, अपीलकर्ता द्वारा मौखिक कथनों को इस तरह की प्रकृति का नहीं कहा जा सकता है कि मृतक के पास उसके जीवन को समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। अदालत ने कहा, "आसपास की परिस्थितियां, विशेष रूप से तनु के परिवार के खिलाफ अपने बेटे जियाउल रहमान की मौत के लिए पहले अपीलकर्ता द्वारा एफआईआर दर्ज करना, प्रतिवादी नंबर 2 की ओर से किसी तरह अपीलकर्ताओं को फंसाने के लिए हताशा का एक तत्व इंगित करता है। इसे देखते हुए, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान कार्यवाही प्रक्रिया का दुरुपयोग करेगी और इस प्रकार उन्हें रद्द कर दिया। हालांकि, पुन: जांच की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए, अदालत ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को एक विशेष जांच दल का गठन करने और मृतक की अप्राकृतिक मौत की जांच करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि वर्तमान निष्कर्ष को प्रभावित किए बिना स्वतंत्र रूप से पुन: जांच की जाएगी। खंडपीठ ने कहा, ''उत्तर प्रदेश राज्य के पुलिस महानिदेशक, कानून एवं व्यवस्था को तनु की अप्राकृतिक मौत की जांच के लिए पुलिस उपमहानिरीक्षक स्तर के अधिकारी की अध्यक्षता में एक विशेष जांच दल गठित करने का निर्देश दिया जाता ..... हम विशेष जांच दल को रामपुर मनिहारन, जिला सहारनपुर में 2022 के अपराध संख्या 367 में दर्ज पहली सूचना रिपोर्ट को अप्राकृतिक मौत के रूप में मानने के लिए अधिकृत करते हैं। हम उन्हें उचित लगने पर एफआईआर फिर से दर्ज करने की स्वतंत्रता देते हैं। हम निर्देश देते हैं कि पुन: जांच रिपोर्ट आज से दो महीने की अवधि के भीतर सीलबंद लिफाफे में इस न्यायालय के समक्ष रखी जाएगी।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/abetment-of-suicide-harassment-victim-section-306-ipc-supreme-court-283361