Monday, 20 October 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया 15 Oct 2025

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में फर्जी जाति प्रमाण पत्र का इस्तेमाल करने के आरोपी पूर्व विधायक के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया  15 Oct 2025 

 सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (14 अक्टूबर) को मध्य प्रदेश के गुना के आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए धोखाधड़ी से अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र हासिल करने के आरोपी पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह और अन्य के खिलाफ आपराधिक मामला बहाल किया। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर पीठ का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें प्रथम दृष्टया मामला होने के बावजूद मिनी-ट्रायल किया गया था। खंडपीठ ने कहा कि एक बार जब किसी शिकायत में धोखाधड़ी, जालसाजी और षड्यंत्र के प्रथम दृष्टया अपराध का खुलासा होता है तो मामले की सुनवाई होनी चाहिए और रद्द करने के चरण में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। 

 शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि राजेंद्र सिंह, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से सामान्य वर्ग से संबंधित बताया गया, उन्होंने 2008 में एक फर्जी अनुसूचित जाति (सांसी) प्रमाण पत्र प्राप्त किया, जिससे उन्हें गुना (एससी आरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने और जीतने का मौका मिला। बाद में एक उच्चाधिकार प्राप्त जांच समिति ने यह पाते हुए प्रमाणपत्र रद्द किया कि यह अवैध रूप से और अनिवार्य प्रक्रियाओं का पालन किए बिना जारी किया गया था। समिति के आदेश को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट और अंततः 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। 

 इसके बाद 2014 में निजी आपराधिक शिकायत दर्ज की गई, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी), 467, 468, 471 (जालसाजी से संबंधित अपराध) और 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया। हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए जस्टिस विश्वनाथन द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया: “हमने निर्णय के पूर्वार्ध में शिकायत का सारांश प्रस्तुत किया। जैसा कि ऊपर संक्षेप में दिए गए कथनों से स्पष्ट है, शिकायत और निर्विवाद दस्तावेजों को पढ़ने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्त राजेंद्र सिंह के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468 और 471 तथा अभियुक्त अमरीक सिंह, हरवीर सिंह और श्रीमती किरण जैन के विरुद्ध IPC की धारा 420, 467, 468, 471 सहपठित धारा 120बी के अंतर्गत कोई अपराध प्रथम दृष्टया नहीं बनता। इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतिम निर्णय मुकदमे में आगे के सबूतों पर निर्भर करेगा।” 

अदालत ने आगे कहा, "शिकायत में स्पष्ट रूप से आरोप लगाया गया कि राजेंद्र सिंह और अमरीक सिंह सामान्य वर्ग से हैं। हमेशा खुद को सामान्य वर्ग का बताते रहे हैं और केवल आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के उद्देश्य से ही उन्होंने चुनाव की पूर्व संध्या पर जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए दस्तावेज, हलफनामे और पंचनामा प्रस्तुत किए। हमने संज्ञान लेने के आदेश का भी अवलोकन किया। ट्रायल जज ने सावधानीपूर्वक अपने विवेक का प्रयोग किया और अनाज से भूसा अलग किया और प्रस्तुत कारणों से बारह अभियुक्तों में से केवल चार प्रतिवादियों-अभियुक्तों के विरुद्ध ही संज्ञान लिया।" तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और मामले को ट्रायल कोर्ट की फाइल में इस निर्देश के साथ वापस कर दिया गया कि मुकदमा एक वर्ष के भीतर पूरा किया जाए। 

Cause Title: KOMAL PRASAD SHAKYA VERSUS RAJENDRA SINGH AND OTHERS


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-restores-criminal-case-against-ex-mla-for-allegedly-using-fake-caste-certificate-in-election-306973

Sunday, 19 October 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट 15 Oct 2025

मोटर एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल मृतक के साथी को मुआवजा दे सकता है: एमपी हाईकोर्ट  15 Oct 2025 

 मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह कहा है कि मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स ट्रिब्यूनल (Motor Accident Claims Tribunal) ऐसे सहवासिता (cohabitant) को मुआवजा प्रदान कर सकता है जो मृतक के साथ पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था, बशर्ते कि दावा करने वाला यह साबित कर सके कि उनका संबंध दीर्घकालिक, स्थिर और विवाह जैसी प्रकृति का था और वह आर्थिक रूप से मृतक पर निर्भर था, भले ही उनका विवाह औपचारिक रूप से नहीं हुआ हो। न्यायालय ने ट्रिब्यूनल का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें मृतक के पिता को मुआवजा दिया गया था और अपीलकर्ता के दावे को खारिज किया गया था। 

 मामले की पृष्ठभूमि: अपीलकर्ता, जो मृतक की विधवा भाभी थी, ने मुआवजा मांगा था यह कहते हुए कि वह और उसकी बेटी मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थीं। उनका तर्क था कि उनके पति की मृत्यु के बाद, मृतक ने स्थानीय रिवाजों के अनुसार उसे अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार किया और वे पति-पत्नी की तरह खुले रूप से रहते थे। गांव के सरपंच ने भी इस संबंध में प्रमाण पत्र जारी किया था। हालांकि, ट्रिब्यूनल ने अपीलकर्ता को कानूनी उत्तराधिकारी (legal heir) के रूप में मान्यता नहीं दी और मृतक के पिता को 2,38,500 रुपये का मुआवजा दिया। नाराज अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया। 

 अपीलकर्ता ने यह भी कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मुआवजा देने के लिए उनका वैवाहिक स्थिति महत्वपूर्ण नहीं है और ट्रिब्यूनल ने उनके आर्थिक निर्भरता और मृतक के साथ वास्तविक संबंध (de facto relationship) को नजरअंदाज किया। बीमा कंपनी ने अपील का विरोध किया और कहा कि चूंकि अपीलकर्ता मृतक की कानूनी पत्नी नहीं थी, इसलिए वह मुआवजे की पात्र नहीं है। "क्या मृतक की गैर-कानूनी पत्नी और उसकी बेटी, जो मृतक की संतान नहीं है, मोटर एक्सीडेंट क्लेम्स के तहत मुआवजे की पात्र हैं?" 

 कोर्ट का निर्णय: न्यायालय ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत मृत्यु से संबंधित मुआवजा दावा मृतक के कानूनी प्रतिनिधियों (legal representatives) और उनके द्वारा अधिकृत एजेंट द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 'कानूनी प्रतिनिधि' की परिभाषा में मृतक की संपत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले विरासतदार या कोई भी व्यक्ति जो मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर है शामिल है। 

N. Jayasree v Cholamandalam MS General Insurance Co Ltd के मामले का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि अधिनियम 'कानूनी उत्तराधिकार' की तुलना में आर्थिक निर्भरता और प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता देता है। 

 जस्टिस हिमांशु जोशी ने कहा,"उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए, यह अदालत मानती है कि ट्रिब्यूनल मृतक के उस सहवासिता को मुआवजा दे सकता है जो पति-पत्नी की तरह जीवन व्यतीत करता था। यह न्याय के सिद्धांत के अनुसार, मृतक पर उसकी निर्भरता को मान्यता देता है। हालांकि, सहवासिता को यह साबित करना होगा कि वह स्थिर, दीर्घकालिक संबंध में थी, मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी और संबंध विवाह जैसी प्रकृति का था, भले ही वह औपचारिक न हो।" न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए मामले को ट्रिब्यूनल में अपीलकर्ता और मृतक के पिता दोनों के दावे पर फिर से विचार करने के लिए भेज दिया और आदेश दिया कि तीन महीने के भीतर नया मुआवजा आदेश पारित किया जाए।


https://hindi.livelaw.in/madhya-pradesh-high-court/motor-accident-tribunal-compensation-deceaseds-cohabitant-madhya-pradesh-high-court-307053

Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

Order VII Rule 11 CPC | आदेश 7 नियम 11 में वादपत्र की अस्वीकृति का निर्णय केवल वादपत्र के कथनों के आधार पर होगा: सुप्रीम कोर्ट

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट 17 Oct 2025

संतानहीन मुस्लिम विधवा को मृतक पति की संपत्ति में एक चौथाई हिस्सेदारी का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट  17 Oct 2025 

सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले की पुष्टि की, जिसमें एक मुस्लिम विधवा को उनके मृत पति की संपत्ति में ¾ हिस्सेदारी से वंचित किया गया था। कोर्ट ने कहा कि यदि मुस्लिम पत्नी के कोई संतान नहीं है, तो वह केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार होती है। 

साथ ही, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मृतक के भाई द्वारा किए गए बिक्री समझौते से विधवा के वारिस होने के अधिकार प्रभावित नहीं होते, क्योंकि ऐसा समझौता मालिकाना हक स्थानांतरित या समाप्त नहीं करता। 

 मामला चंद खान की संपत्ति से संबंधित था, जो बिना उत्तराधिकारी और संतान के निधन हो गया। उनकी विधवा, ज़ोहरबी (अपीलकर्ता), ने दावा किया कि मुस्लिम कानून के तहत उन्हें संपत्ति का तीन-चौथाई हिस्सा मिलना चाहिए। मृतक के भाई (प्रतिवादी) ने तर्क दिया कि मृतक द्वारा जीवनकाल में संपन्न किए गए बिक्री समझौते के तहत संपत्ति का एक हिस्सा पहले ही हस्तांतरित हो गया था, इसलिए इसे वारिसी पूल से बाहर रखा जाना चाहिए। ट्रायल कोर्ट ने यह मान लिया, लेकिन अपीलेट कोर्ट और हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि बिक्री समझौते से मालिकाना हक पैदा नहीं होता। 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट की धारा 54 के तहत, बिक्री का समझौता स्वयं में अचल संपत्ति का मालिकाना हक नहीं देता। चूंकि कोई रजिस्टर्ड सेल डीड नहीं बनाई गई थी, मृतक की मृत्यु तक संपत्ति उसी के नाम रही, और इसलिए यह मौरुक्का (matruka) संपत्ति का हिस्सा बनी, जिसे कानूनी वारिसों में बांटना था। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने मुस्लिम कानून के तहत मौरुक्का और उत्तराधिकार की अवधारणा पर विस्तृत चर्चा की। 

उन्होंने बताया कि मौरुक्का में मृतक मुस्लिम द्वारा छोड़ी गई सभी चल और अचल संपत्तियाँ शामिल होती हैं। वितरण से पहले, वैध वसीयत (जो अधिकतम एक-तिहाई तक हो सकती है) और मृतक के ऋण चुकाए जाते हैं। शेष संपत्ति फिर कुरान में निर्धारित हिस्सों के अनुसार वारिसों में बाँटी जाती है। 

 कोर्ट ने कहा कि कुरान के अध्याय IV, आयत 12 के अनुसार, विधवा को यदि संतान नहीं है तो पति की संपत्ति का एक-चौथाई हिस्सा मिलता है, और यदि संतान है तो केवल एक-आठवां हिस्सा। इस मामले में चंद खान के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उनकी विधवा केवल ¼ हिस्सेदारी की हकदार थी। शेष हिस्सा अन्य वारिसों, जिनमें भाई भी शामिल हैं, में बाँटा गया। 

सुप्रीम कोर्ट ने विधवा की याचिका खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि मुस्लिम कानून के तहत वारिसों के लिए कुरान में निर्धारित हिस्सेदारी मान्य होती है। यदि विधवा के कोई संतान या पोते-पोती नहीं हैं, तो उन्हें ¼ हिस्सा मिलता है; यदि संतान है, तो हिस्सेदारी घटकर 1/8 हो जाती है। कोर्ट ने कहा,“मुस्लिम वारिस कानून यह दर्शाता है कि सभी वारिसों को तय हिस्सेदारी मिलती है और पत्नी को वारिस के रूप में 1/8 हिस्सा मिलता है, लेकिन यदि कोई संतान या पोता नहीं है, तो पत्नी को मिलने वाला हिस्सा 1/4 है।”


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/mohammedan-law-muslim-widow-husbands-estate-supreme-court-307291

Thursday, 16 October 2025

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम | अदालत से प्रमाणित वसीयत को राज्य चुनौती नहीं दे सकता: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह फैसला दिया कि यदि किसी हिंदू पुरुष ने वसीयत (Will) बनाई है, जो अदालत द्वारा वैध घोषित की जा चुकी है और जिसे प्रोबेट (Probate) भी मिल चुका है, तो राज्य सरकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 29 के तहत एस्कीट (Escheat) के सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकती। यह फैसला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस एस.सी. शर्मा की खंडपीठ ने दिया। मामला खेतीड़ी (राजस्थान) के राजा बहादुर सरदार सिंह की वसीयत से जुड़ा है, जिनका निधन 1987 में हुआ था। वसीयत (दिनांक 30 अक्टूबर, 1985) के अनुसार, उनकी सारी संपत्ति “खेतीड़ी ट्रस्ट” नामक एक लोकहितकारी चैरिटेबल ट्रस्ट को दी जानी थी।


https://hindi.livelaw.in/round-ups/supreme-court-monthly-round-up-september-2025-306954

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए

S. 223 CrPC/S. 243 BNSS | सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में जॉइंट ट्रायल के सिद्धांत निर्धारित किए 

16 Sept 2025  CrPCC की धारा 223 (अब BNSS की धारा 243) की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहां एक ही लेन-देन से उत्पन्न अपराधों में कई अभियुक्त शामिल हों, वहां संयुक्त सुनवाई स्वीकार्य है। अलग सुनवाई तभी उचित होगी जब प्रत्येक अभियुक्त के कृत्य अलग-अलग और पृथक करने योग्य हों। न्यायालय ने संयुक्त सुनवाई के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव रखे:- 

(i) CrPC की धारा 218 के अंतर्गत अलग सुनवाई का नियम है। संयुक्त सुनवाई की अनुमति तब दी जा सकती है, जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों या CrPC की धारा 219-223 की शर्तें पूरी होती हों। हालांकि, तब भी यह न्यायिक विवेकाधिकार का विषय है। 

(ii) संयुक्त या अलग सुनवाई आयोजित करने का निर्णय सामान्यतः कार्यवाही की शुरुआत में और ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए। 

(iii) ऐसे निर्णय लेने में दो सर्वोपरि विचारणीय बिंदु हैं: क्या संयुक्त सुनवाई से अभियुक्त के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा, और क्या इससे न्यायिक समय में देरी या बर्बादी होगी? 

(iv) एक मुकदमे में दर्ज साक्ष्य को दूसरे मुकदमे में शामिल नहीं किया जा सकता, जिससे मुकदमे के दो हिस्सों में विभाजित होने पर गंभीर प्रक्रियात्मक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। 

 (v) दोषसिद्धि या बरी करने के आदेश को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि संयुक्त या पृथक सुनवाई संभव है। हस्तक्षेप तभी उचित है जब पूर्वाग्रह या न्याय का हनन दर्शाया गया हो। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ विधायक मम्मन खान की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी, जिसमें 2023 के नूंह हिंसा मामले में उनके खिलाफ अलग से मुकदमा चलाने के निर्देश देने वाले निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा गया था, जिसमें कथित तौर पर छह लोग मारे गए थे। खान पर अन्य सह-आरोपियों के साथ इसी लेनदेन से उत्पन्न हिंसा को कथित रूप से भड़काने का मामला दर्ज किया गया। 

 हाईकोर्ट का फैसला खारिज करते हुए जस्टिस आर. महादेवन द्वारा लिखित फैसले में कहा गया कि खान के मामले में अलग से मुकदमा चलाने के ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखने में हाईकोर्ट ने गलती की। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का तर्क त्रुटिपूर्ण था, क्योंकि कोई अलग तथ्य नहीं है, साक्ष्य अविभाज्य हैं और खान के प्रति कोई पूर्वाग्रह प्रदर्शित नहीं किया गया, जिससे अलगाव को उचित ठहराया जा सके। कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जब अपराध एक ही लेन-देन का हिस्सा हों तो CrPC की धारा 223 के तहत संयुक्त मुकदमा उचित है, क्योंकि एकत्रित सामग्री और साक्ष्य एक ही कथित घटना से संबंधित हैं। 

 खंडपीठ ने कहा, "मौजूदा मामले में अपीलकर्ता के खिलाफ सबूत सह-अभियुक्तों के खिलाफ सबूतों के समान हैं। अलग-अलग मुकदमों में अनिवार्य रूप से उन्हीं गवाहों को फिर से बुलाना शामिल होगा, जिसके परिणामस्वरूप दोहराव, देरी और असंगत निष्कर्षों का जोखिम होगा। हाईकोर्ट ने अलगाव के आदेश की पुष्टि करते हुए इन परिणामों को समझने में विफल रहा और तथ्यात्मक परिस्थितियों के ऐसे अलगाव को उचित ठहराए जाने का मूल्यांकन किए बिना खुद को CrPC की धारा 223 की विवेकाधीन भाषा तक सीमित कर लिया। इसलिए हम मानते हैं कि बिना किसी कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त औचित्य के अपीलकर्ता के मुकदमे को अलग करना कानून की दृष्टि से अस्थिर है। अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अपीलकर्ता के अधिकार का उल्लंघन है।" 

Cause Title: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA


Wednesday, 15 October 2025

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

पुलिस को FIR दर्ज करने के लिए सूचना की सत्यता की जांच करने की आवश्यकता नहीं: सुप्रीम कोर्ट

  11 Sept 2025 सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि पुलिस को FIR दर्ज करते समय शिकायत की सत्यता या विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है; यदि शिकायत में प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य है। अदालत ने कहा, "यदि प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है तो FIR दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है, पुलिस को उक्त सूचना की सत्यता और विश्वसनीयता की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।" अदालत ने कहा कि रमेश कुमारी बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) (2006) 2 एससीसी 677 में यह निर्धारित किया गया कि "सूचना की सत्यता या विश्वसनीयता एफआईआर दर्ज करने के लिए पूर्व शर्त नहीं है।" जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त नीरज कुमार और इंस्पेक्टर विनोद कुमार पांडे के खिलाफ FIR दर्ज करने के दिल्ली हाईकोर्ट का निर्देश बरकरार रखते हुए ये टिप्पणियां कीं। यह निर्देश वर्ष 2000 में CBI में प्रतिनियुक्ति के दौरान धमकाने, रिकॉर्ड में हेराफेरी और जालसाजी के आरोपों के बाद दिया गया था।