Sunday 13 October 2024

उपासक बिना किसी व्यक्तिगत हित के सरकारी भूमि पर मंदिर के विध्वंस को रोकने के लिए निषेधाज्ञा का दावा नहीं कर सकते

 उपासक बिना किसी व्यक्तिगत हित के सरकारी भूमि पर मंदिर के विध्वंस को रोकने के लिए निषेधाज्ञा का दावा नहीं कर सकते: दिल्ली हाईकोर्ट 

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि मंदिर के उपासक, जिसका मंदिर की संपत्ति पर कोई व्यक्तिगत हित नहीं है, उसको दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) की भूमि पर अवैध रूप से निर्मित मंदिर के विध्वंस को रोकने के लिए राहत नहीं दी जा सकती। जस्टिस तारा वितस्ता गंजू की एकल पीठ ट्रायल कोर्ट के आदेश को अपीलकर्ता की चुनौती पर विचार कर रही थी, जिसने DDA के खिलाफ स्थायी और अनिवार्य निषेधाज्ञा के साथ-साथ हर्जाने के लिए उनका मुकदमा खारिज कर दिया। अपीलकर्ता ने दावा किया कि वह स्थानीय निवासी है और पार्क में स्थित शिव मंदिर का उपासक है। 

केस टाइटल: अवनीश कुमार बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण और अन्य। (आरएफए 403/2023 और सीएम आवेदन 37124/2024)


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आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में अनावश्यक अभियोजन, न्यायालय कानून के सही सिद्धांतों को लागू करने में असमर्थ: सुप्रीम कोर्ट

 आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में अनावश्यक अभियोजन, न्यायालय कानून के सही सिद्धांतों को लागू करने में असमर्थ: सुप्रीम कोर्ट

हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड (HUL) के सीनियर अधिकारियों के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में न्यायालयों के साथ-साथ पुलिस को भी आत्महत्या के लिए उकसाने के सिद्धांतों के गलत इस्तेमाल के खिलाफ चेतावनी दी।

"समय के साथ न्यायालयों का चलन यह रहा है कि इस तरह के इरादे को पूरी तरह से सुनवाई के बाद ही समझा या समझा जा सकता है। समस्या यह है कि न्यायालय केवल आत्महत्या के तथ्य को देखते हैं और इससे अधिक कुछ नहीं। हमारा मानना ​​है कि न्यायालयों की ओर से ऐसी समझ गलत है। यह सब अपराध और आरोप की प्रकृति पर निर्भर करता है।"

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने कहा, 

"न्यायालय को पता होना चाहिए कि रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों पर आत्महत्या के लिए उकसाने के कानून के सही सिद्धांतों को कैसे लागू किया जाए। आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में कानून के सही सिद्धांतों को समझने और लागू करने में न्यायालयों की अक्षमता के कारण अनावश्यक अभियोजन की स्थिति बनती है।"

न्यायालय ने कहा कि धारा 306 आईपीसी के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का अपराध किया गया या नहीं, यह पता लगाने के लिए बुनियादी परीक्षण यह जानना है कि क्या प्रथम दृष्टया भी यह संकेत देने के लिए कुछ है कि आरोपी ने कृत्य के परिणामों, यानी आत्महत्या का इरादा किया था। इस मामले में अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया कि उन्होंने बैठक में मृतक (एचयूएल में सेल्समैन) को परेशान और अपमानित किया और उसे नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के लिए कहा था।

अपीलकर्ताओं की ओर से इस तरह की कार्रवाई ने मृतक को आत्महत्या करने के लिए चरम कदम उठाने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उसे यह बुरा लगा। हाईकोर्ट ने अपीलकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक मामला रद्द करने से इनकार कर दिया। हाईकोर्ट के अनुसार, मृतक ने अपीलकर्ताओं द्वारा उत्पीड़न और अपमान के रूप में उकसावे के कारण आत्महत्या की। इसके बाद अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

न्यायालय के विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या अपीलकर्ताओं ने मृतक को उकसाया, जिसके कारण अंततः उसने आत्महत्या कर ली।हाईकोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सीनियर एडवोकेट गगन गुप्ता और एओआर निखिल जैन ने तर्क दिया कि धारा 306 आईपीसी की अपेक्षित शर्तें पूरी नहीं की गईं, क्योंकि अपीलकर्ताओं का मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने का इरादा नहीं था।

हाईकोर्ट का निर्णय खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि जब तक अभियुक्त द्वारा प्रत्यक्ष और भयावह प्रोत्साहन/उकसाने का कोई मामला साबित नहीं हो जाता, तब तक आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई अपराध नहीं बनाया जा सकता।

“आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध की पुष्टि तभी होगी जब मृतक ने आत्महत्या की हो, क्योंकि आरोपी ने उसे आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था।”

अदालतों द्वारा जांचे जाने वाले कारक

मामले के तथ्यों पर वापस आते हुए अदालत ने पाया कि हाईकोर्ट का पूरा दृष्टिकोण गलत है।

अदालत के अनुसार, हाईकोर्ट को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए मामले की जांच करनी चाहिए थी:

“(1) बैठक की तिथि, यानी 03.11.2006 को क्या अपीलकर्ताओं ने असहनीय उत्पीड़न या यातना की स्थिति पैदा की, जिससे मृतक ने आत्महत्या को ही एकमात्र विकल्प समझा? इसका पता लगाने के लिए हमारे द्वारा संदर्भित मृतक सहकर्मियों के दो बयान पर्याप्त हैं।

(2) क्या अपीलकर्ताओं पर मृतक की भावनात्मक कमजोरी का फायदा उठाकर उसे बेकार या जीवन के अयोग्य महसूस कराने का आरोप है, जिससे वह आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो गया?

(3) क्या यह मृतक को उसके परिवार को नुकसान पहुंचाने या गंभीर वित्तीय बर्बादी जैसे गंभीर परिणामों की धमकी देने का मामला है, जिससे उसे लगा कि आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता है?

(4) क्या यह झूठे आरोप लगाने का मामला है, जिससे मृतक की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा हो और सार्वजनिक अपमान तथा गरिमा की हानि के कारण उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया हो।"

निर्णय के परिप्रेक्ष्य से न्यायालय ने नोट किया कि मृतक द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में अपीलकर्ताओं पर मुकदमा चलाना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं होगा।

न्यायालय ने कहा,

"हमारी राय में अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई भी मामला नहीं बनता है।"

तदनुसार, अपीलकर्ता के खिलाफ लंबित आपराधिक मामला रद्द कर दिया गया और विवादित निर्णय को अलग रखा गया।

केस टाइटल: निपुण अनेजा और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

Juvenile Justice Act | दोषसिद्धि और सजा के अंतिम होने के बाद भी किशोर होने की दलील दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

 Juvenile Justice Act | दोषसिद्धि और सजा के अंतिम होने के बाद भी किशोर होने की दलील दी जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति के खिलाफ दोषसिद्धि और सजा के फैसले और आदेश के अंतिम होने के बाद भी किशोर होने की दलील दी जा सकती है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एन कोटेश्वर सिंह की बेंच ने ऐसा कहते हुए हत्या के मामले में आरोपी को बरी किया, जिसने अपने खिलाफ दोषसिद्धि और सजा के आदेश के बाद किशोर होने की दलील दी थी।


कोर्ट ने कहा, “हालांकि (किशोर होने के लिए) आवेदन इस न्यायालय द्वारा दिए गए दोषसिद्धि के आदेश के बाद दायर किया गया, हम इस न्यायालय के ऊपर दिए गए फैसले और आपराधिक अपील संख्या 64/2012 में दिनांक 17.01.2004 के फैसले को ध्यान में रखते हैं, जिसका शीर्षक प्रमिला बनाम छत्तीसगढ़ राज्य है, कि किसी व्यक्ति के खिलाफ दोषसिद्धि और सजा के फैसले और आदेश के अंतिम होने के बाद भी किशोर होने का दावा करने के लिए आवेदन किया जा सकता है।” 

केस टाइटल: मध्य प्रदेश राज्य बनाम रामजी लाल शर्मा और अन्य

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कर्मचारी को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आधिकारिक सीनियर कब उत्तरदायी हो सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने समझाया

 कर्मचारी को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आधिकारिक सीनियर कब उत्तरदायी हो सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने समझाया


अदालत ने कहा, "इस तरह के मामलों में अदालत को जो परीक्षण अपनाना चाहिए, वह यह है कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्रियों के आधार पर यह पता लगाने का प्रयास किया जाए कि क्या प्रथम दृष्टया भी ऐसा कुछ है, जो यह संकेत देता हो कि आरोपी ने इस कृत्य के परिणाम, यानी आत्महत्या का इरादा किया था।" संक्षेप में अदालत का मतलब था कि जब तक धारा 306 आईपीसी के तत्व पूरे नहीं होते, तब तक कर्मचारी द्वारा झेले गए अपमान और उत्पीड़न को आत्महत्या करने के लिए उकसाना नहीं कहा जा सकता। अदालत ने वर्तमान मामले को दूसरी श्रेणी से जोड़ा, जहां मृतक की आरोपी से अपेक्षाएं कानून द्वारा निर्धारित की गईं। इसका मतलब यह है कि कर्मचारी को आवंटित आधिकारिक कार्य से संबंधित नियोक्ता और कर्मचारी के बीच छोटा झगड़ा या तीखी नोकझोंक कर्मचारी को आत्महत्या करने के लिए उकसाने के उद्देश्य से नहीं हो सकती। 

केस टाइटल: निपुण अनेजा और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

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Thursday 10 October 2024

S.419(4) BNSS केवल तभी जब शिकायतकर्ता अपराध का पीड़ित न हो, बरी किए जाने के विरुद्ध अपील करने की अनुमति आवश्यक: राजस्थान हाईकोर्ट

 *[S.419(4) BNSS] केवल तभी जब शिकायतकर्ता अपराध का पीड़ित न हो, बरी किए जाने के विरुद्ध अपील करने की अनुमति आवश्यक: राजस्थान हाईकोर्ट*

राजस्थान हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जहां शिकायतकर्ता अपराध का पीड़ित है, जैसा कि BNSS की धारा 2(Y) के तहत परिभाषित किया गया, उसे बरी किए जाने के विरुद्ध अपील करने की अनुमति मांगने के लिए हाईकोर्ट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि BNSS की धारा 419(4) के तहत प्रावधान किया गया।

धारा 419(4), BNSS यह प्रावधान करती है कि ऐसी स्थिति में जहां किसी मामले में बरी किए जाने का आदेश पारित किया जाता है, शिकायतकर्ता हाईकोर्ट द्वारा उस प्रभाव के लिए अपील करने की विशेष अनुमति दिए जाने के बाद हाईकोर्ट में उसके विरुद्ध अपील कर सकता है।

जस्टिस बीरेंद्र कुमार की पीठ ने स्पष्ट किया कि धारा 419(4) के तहत शिकायतकर्ता द्वारा अपील की अनुमति की आवश्यकता होती है। ऐसे मामलों में, जहां शिकायतकर्ता पीड़ित नहीं है। चूंकि आपराधिक कार्यवाही किसी भी संज्ञेय अपराध के होने की जानकारी रखने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा शुरू की जा सकती है। इसलिए यदि कोई शिकायत किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दर्ज की जाती है, जो पीड़ित नहीं है तो ऐसे व्यक्ति को इस प्रावधान के तहत अपील की अनुमति की आवश्यकता होगी।

न्यायालय शिकायतकर्ता द्वारा दायर अपील की अनुमति के लिए आवेदन पर सुनवाई कर रहा था, जो चेक अनादर के एक मामले में पीड़ित था। प्रतिवादी को आरोप से बरी कर दिया गया।

न्यायालय ने पाया कि आवेदक धारा 2(Y) BNSS के तहत पीड़ित था। इस प्रकार अपील संबंधित जिला और सेशन जज के समक्ष दायर की जानी चाहिए थी। न्यायालय ने धारा 413 BNSS का हवाला दिया और माना कि धारा 413, BNSS के अनुसार अपीलीय फोरम के समक्ष अपील करने के लिए पीड़ित को किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

न्यायालय ने मल्लिकार्जुन कोडागली बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य तथा जोसेफ स्टीफन एवं अन्य बनाम संथानसामी एवं अन्य के सुप्रीम कोर्ट के मामलों का भी उल्लेख किया और कहा कि इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि पीड़ित को अपील करने का वैधानिक अधिकार है। इसलिए उसे अपील के लिए विशेष अनुमति देने की आवश्यकता नहीं है।

इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने कहा कि अपील की अनुमति शिकायतकर्ता को चाहिए जो पीड़ित नहीं है, उसने कहा,

“कानून में यह अच्छी तरह से स्थापित है कि कोई भी व्यक्ति आपराधिक कार्यवाही शुरू कर सकता है, अगर उसे किसी संज्ञेय अपराध के होने का ज्ञान है तो ऐसा कदम पुलिस में एफआईआर दर्ज करके या मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत याचिका दायर करके उठाया जा सकता है। अगर ऐसा शिकायतकर्ता ऊपर परिभाषित पीड़ित नहीं है तो उसे बरी किए जाने के खिलाफ अपील करने के लिए हाईकोर्ट के समक्ष अनुमति आवेदन प्रस्तुत करना होगा।"

यदि शिकायतकर्ता अपराध का शिकार है तो उसे धारा 413 BNSS के प्रावधान के तहत बरी किए जाने, कमतर अपराध के लिए दोषसिद्धि या अपर्याप्त मुआवजा लगाए जाने के खिलाफ अपील करने का अधिकार होगा।

आवेदक को संबंधित सेशन जज के समक्ष अपील पेश करने के लिए कहा गया। अपील की अनुमति का निपटारा किया गया।

केस टाइटल: अशराज स्टोन प्राइवेट लिमिटेड बनाम कारव इंटरनेशनल

Sunday 22 September 2024

राज्य को भूमि अधिग्रहण के मुआवजे का समय पर भुगतान सुनिश्चित करना चाहिए, देरी अनुच्छेद 300ए का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट

 

राज्य को भूमि अधिग्रहण के मुआवजे का समय पर भुगतान सुनिश्चित करना चाहिए, देरी अनुच्छेद 300ए का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश राज्य की आलोचना की कि वह जेएएल (मेसर्स जयप्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड) द्वारा संचालित सीमेंट परियोजना के लिए 2008 में अधिग्रहित भूमि के लिए भूमि मालिकों को दिए गए 3,05,31,095 रुपये के अतिरिक्त मुआवजे का समय पर भुगतान सुनिश्चित करने में विफल रहा।

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने कहा कि राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मुआवजा दिया जाए, भले ही इसका मतलब JAL से इसे वसूलना हो, बजाय इसके कि वह भूमि मालिकों को भुगतान के लिए कॉर्पोरेट घरानों के पीछे लगा दे।

न्यायालय ने कहा,

“विषम परिस्थितियों में राज्य सरकार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने खजाने से भूमि मालिकों को मुआवजे के लिए अपेक्षित भुगतान करे। उसके बाद उसे JAL से वसूलना चाहिए था। गरीब भूस्वामियों को शक्तिशाली कॉर्पोरेट घरानों के पीछे भागने के बजाय उसे JAL को आवश्यक भुगतान करने के लिए बाध्य करना चाहिए था।''

न्यायालय ने माना कि जिन भूस्वामियों की संपत्ति राज्य द्वारा अधिग्रहित की गई, उन्हें मुआवजे के भुगतान में देरी संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत संपत्ति के उनके अधिकार का उल्लंघन है।

न्यायालय ने कहा,

''एक कल्याणकारी राज्य के रूप में हिमाचल प्रदेश सरकार को इस मामले में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करना चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मुआवजे के लिए अपेक्षित राशि का भुगतान जल्द से जल्द किया जाए। राज्य यह तर्क देकर मुआवजे के भुगतान की अपनी संवैधानिक और वैधानिक जिम्मेदारी से नहीं बच सकता कि उसकी भूमिका अपीलकर्ता, JAL और उसके बीच हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन के तहत अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू करने तक सीमित थी। हम पाते हैं कि भूमि मालिकों से संबंधित भूमि का स्वामित्व छीनने के बाद उन्हें मुआवजे के भुगतान में देरी अनुच्छेद 300ए की संवैधानिक योजना की भावना और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत है।''

न्यायालय ने कुकरेजा कंस्ट्रक्शन कंपनी एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य में अपने फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि एक बार मुआवज़ा निर्धारित हो जाने के बाद इसे भूमि मालिकों से किसी भी प्रतिनिधित्व या अनुरोध की आवश्यकता के बिना तुरंत भुगतान किया जाना चाहिए। किसी भी तरह की देरी संविधान के अनुच्छेद 300 ए का उल्लंघन होगी।

न्यायालय सीमेंट कंपनियों अल्ट्रा-टेक सीमेंट लिमिटेड और जेएएल से जुड़े भूमि अधिग्रहण विवाद पर विचार कर रहा था। यह मुद्दा यह निर्धारित करने के इर्द-गिर्द घूमता है कि सीमेंट परियोजना के लिए सुरक्षा क्षेत्र स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा अधिग्रहित भूमि के लिए पूरक अवार्ड के तहत मुआवज़ा देने के लिए कौन उत्तरदायी था।

हिमाचल प्रदेश राज्य ने 2008 में सोलन जिले की अर्की तहसील में स्थित 56.14 बीघा भूमि का अधिग्रहण शुरू किया, जिससे JAL द्वारा संचालित जेपी हिमाचल सीमेंट परियोजना के चारों ओर एक सुरक्षा क्षेत्र बनाया जा सके।

एक बार अधिग्रहण को अंतिम रूप दिए जाने के बाद, 8 जून, 2018 को अवार्ड जारी किया गया, जिसमें भूमि मालिकों को भुगतान किए जाने वाले मुआवजे का निर्धारण किया गया। JAL ने अवार्ड द्वारा निर्धारित मुआवजे का भुगतान किया और भूमि बाद में JAL को हस्तांतरित कर दी गई।

हालांकि, उस समय भूमि पर खड़ी फसलों, पेड़ों और संरचनाओं के लिए मुआवजे का मूल्यांकन नहीं किया गया और हाईकोर्ट ने भूमि अधिग्रहण कलेक्टर (LAC) को पूरक अवार्ड पारित करने का आदेश दिया। 2 मई, 2022 को जारी इस अवार्ड ने मुआवजे के रूप में 3,05,31,095 रुपये की अतिरिक्त राशि निर्धारित की, जिसे JAL ने भुगतान करने से इनकार किया।

2017 में JAL की सीमेंट परियोजना अल्ट्रा-टेक को हस्तांतरित कर दी गई। इस बात पर विवाद हुआ कि पूरक पुरस्कार के तहत अतिरिक्त मुआवजे की देयता अल्ट्रा-टेक सीमेंट या JAL पर आनी चाहिए।

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अल्ट्रा-टेक को अतिरिक्त मुआवजा देने का निर्देश दिया। उन्हें अपने समझौते के तहत अनुमति मिलने पर JAL से राशि वसूलने की अनुमति दी। इस प्रकार, अल्ट्रा-टेक ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश खारिज करते हुए पाया कि भूमि के लिए मुआवजा देना JAL की जिम्मेदारी है। न्यायालय ने मुआवजा निर्धारित करने और इसे भूमि स्वामियों को हस्तांतरित करने में हो रही देरी पर चिंता व्यक्त की, जो 2008 में अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू होने के बाद से ही इंतजार कर रहे थे।

न्यायालय ने कोलकाता नगर निगम बनाम बिमल कुमार शाह का हवाला दिया, जिसमें न्यायालय ने सात उप-अधिकारों की पहचान की, जो राज्य द्वारा उनकी संपत्ति का अधिग्रहण करने पर भूमि स्वामियों को प्राप्त होते हैं, जिनमें उचित मुआवजे का अधिकार और निर्धारित समय-सीमा के भीतर कुशल प्रक्रिया का अधिकार शामिल है।

न्यायालय ने कहा कि शीघ्र मुआवजा अधिग्रहण प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।

न्यायालय ने कहा,

“सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि का अधिग्रहण सरकार के प्रख्यात डोमेन की शक्ति के तहत किया जाता है, जो अधिग्रहित की जाने वाली भूमि के स्वामियों की इच्छा के विरुद्ध होता है। जब ऐसी शक्ति का प्रयोग किया जाता है तो यह सरकारी निकाय की ओर से बाध्यकारी कर्तव्य और दायित्व के साथ जुड़ जाता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि जिन स्वामियों की भूमि अधिग्रहित की जाती है, उन्हें यथाशीघ्र वैधानिक अवार्ड द्वारा घोषित मुआवजा/अवार्ड राशि का भुगतान किया जाए।”

इस मामले में भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 17(4) के तहत तात्कालिक शक्तियों का उपयोग करके भूमि का अधिग्रहण किया गया, जिसने भूमि मालिकों को धारा 5ए के तहत आपत्ति करने का मौका नहीं दिया। न्यायालय ने कहा कि इससे राज्य पर उचित मुआवजा तुरंत प्रदान करके न्याय सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी बढ़ गई।

न्यायालय ने माना कि भूमि का कब्ज़ा हस्तांतरित करने से पहले मुआवज़ा न देना भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता के अधिकार की धारा 38 और 1894 अधिनियम की धारा 41 का उल्लंघन है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कब्ज़ा हस्तांतरित करने से पहले मुआवज़ा दिया जाए।

“यह खेदजनक है कि हिमाचल प्रदेश राज्य कल्याणकारी राज्य होने के नाते प्रतिवादी नंबर 1-6 को उनकी भूमि पर कब्ज़ा करने से पहले मुआवज़ा का भुगतान सुनिश्चित नहीं कर सका। वास्तव में भूस्वामियों को पूरक अवार्ड पारित करने के लिए एलएसी को निर्देश देने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा, जो अंततः 02.05.2022 को पारित किया गया, यानी 2018 के अवार्ड पारित होने की तारीख से लगभग चार साल की अवधि के बाद।

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश राज्य और भूमि अधिग्रहण कलेक्टर को भूमि मालिकों को 3,05,31,095 रुपये का अतिरिक्त मुआवजा देने का निर्देश दिया। साथ ही मई 2022 से 9 प्रतिशत ब्याज भी देना होगा और यह राशि JAL से वसूलनी होगी।

केस टाइटल- मेसर्स अल्ट्रा टेक सीमेंट लिमिटेड बनाम मस्त राम और अन्य।

Tuesday 17 September 2024

जिस तीसरे पक्ष के विरुद्ध सेल डीड अमान्य है, उसे रद्द करने की मांग करना अनिवार्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

 

Sec.31 Specific Relief Act | जिस तीसरे पक्ष के विरुद्ध सेल डीड अमान्य है, उसे रद्द करने की मांग करना अनिवार्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 (SR Act) की धारा 31 के अनुसार, तीसरे पक्ष के लिए, जिसके विरुद्ध बिक्री विलेख अमान्य है, उसे रद्द करने की मांग करना अनिवार्य नहीं है।

न्यायालय ने कहा कि जब पक्षों के बीच सेल डीड निष्पादित किया जाता है तो बिक्री में पक्ष न होने वाले तथा सेल डीड से प्रभावित तीसरे व्यक्ति को SR Act की धारा 31 के अंतर्गत सेल डीड रद्द करने की मांग करते हुए अलग से आवेदन दायर करने के लिए नहीं कहा जा सकता।

वर्तमान मामले में विवाद सह-स्वामी द्वारा अन्य सह-स्वामियों (प्रतिवादी) से प्राधिकरण के बिना सेल डीड के माध्यम से संयुक्त परिवार की पूरी संपत्ति को बाद के खरीदार (यहां अपीलकर्ता) को बेचने के कृत्य की वैधता से संबंधित था। साथ ही जब संपत्ति का हस्तांतरण अपीलकर्ता के पक्ष में हुआ तो संपत्ति में सह-स्वामी का हिस्सा अनिर्धारित रहा।

प्रतिवादी ने सह-स्वामी द्वारा संपूर्ण वाद संपत्ति को अपीलकर्ता को हस्तांतरित करने के कृत्य को इस आधार पर चुनौती दी कि यह हस्तांतरण शून्य है, क्योंकि सह-स्वामी/हस्तांतरक को केवल वाद संपत्ति में अपना हिस्सा साझा करने का अधिकार है, न कि संपूर्ण वाद संपत्ति को अपीलकर्ता को देने का।

प्रतिवादी के तर्क को उचित मानते हुए जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने कहा कि जब संपत्ति में कई सह-स्वामी होते हैं तो वाद संपत्ति का परवर्ती क्रेता (अपीलकर्ता) केवल सह-स्वामी/हस्तांतरक द्वारा निष्पादित सेल डीड के आधार पर संपूर्ण वाद संपत्ति में अधिकार, शीर्षक और हित प्राप्त नहीं कर सकता।

ऐसा करते हुए न्यायालय ने अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए तर्क पर भी विचार किया कि चूंकि प्रतिवादी ने सेल डीड रद्द करने के लिए नहीं कहा था, इसलिए सेल डीड अपने आप रद्द नहीं किया जा सकता।

SR Act की धारा 31 पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक मामले में सेल डीड को शून्य घोषित करने के लिए आवेदन दायर करना अनिवार्य नहीं है, खासकर तब जब व्यक्ति/प्रतिवादी विलेख का पक्षकार न हो।

    अंत में यह तर्क देने का एक हल्का प्रयास किया गया कि वादी-प्रतिवादी नंदू लाल ने सेल डीड रद्द करने की कोई राहत नहीं मांगी थी, जिसके द्वारा प्रतिवादी-अपीलकर्ता एस.के. गुलाम लालचंद द्वारा संपत्ति खरीदी गई। इसलिए वह इस मुकदमे में किसी भी राहत का हकदार नहीं है।

अदालत ने कहा,

इस तर्क को केवल इस साधारण कारण से खारिज किया गया कि विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31 में साधन को शून्य घोषित करने के लिए 'हो सकता है', शब्द का उपयोग किया गया है, जो हर मामले में अनिवार्य नहीं है, खासकर तब जब व्यक्ति ऐसे साधन का पक्षकार न हो।"

मेसर्स एशियन एवेन्यूज़ प्राइवेट लिमिटेड बनाम सैयद शौकत हुसैन, 2023 लाइव लॉ (एससी) 369 में न्यायालय ने माना कि चूंकि किसी लिखत को रद्द करने के लिए विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 की धारा 31 के तहत शुरू की गई कार्रवाई, विवेचना में की गई कार्रवाई नहीं है, इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस धारा के अनुसार लिखत रद्द करने से कार्यवाही के केवल पक्षकार ही आबद्ध होंगे। यह उस व्यक्ति के विरुद्ध लागू नहीं होगा, जो लिखतों का पक्षकार नहीं है, अर्थात वर्तमान मामले में प्रतिवादी।

केस टाइटल: एस.के. गुलाम लालचंद बनाम नंदू लाल शॉ @ नंद लाल केशरी @ नंदू लाल बेयस एवं अन्य, 

सिविल अपील नंबर 4177 वर्ष 2024