Wednesday, 23 July 2025

दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया बड़ा कदम, देशभर में ये गाइडलाइन लागू करने के आदेश

दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया बड़ा कदम, देशभर में ये गाइडलाइन लागू करने के आदेश

दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2022 के दिशानिर्देशों को पूरे देश में लागू करने के आदेश दिए गए हैं.

वैवाहिक विवादों में IPC की धारा 498 A यानी दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया है. दहेज प्रताड़ना के दुरुपयोग को रोकने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2022 के दिशानिर्देशों को पूरे देश में लागू करने के आदेश दिए गए हैं. 498A मामलो में दो महीने तक गिरफ्तारी ना करने और परिवार कल्याण समितियों के गठन के हाईकोर्ट दिशानिर्देशों का समर्थन किया है. CJI बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट द्वारा तैयार किए गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और प्राधिकारियों द्वारा उनका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए.

पीठ ने कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 13.06.2022 के फैसले में पैरा 32 से 38 के अनुसार, 'भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग से संबंधित सुरक्षा उपायों के लिए परिवार कल्याण समितियों के गठन' के संबंध में तैयार किए गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा उनका क्रियान्वयन किया जाएगा. दरअसल इस फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 2018 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए दिशानिर्देश जारी कर रहा है. इसका उद्देश्य वादियों में पति और उसके पूरे परिवार को व्यापक आरोपों के माध्यम से फंसाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना है.

हाईकोर्ट के दिशानिर्देश थे 

(1) FIR या शिकायत दर्ज होने के बाद, "कूलिंग पीरियड" (जो FIR या शिकायत दर्ज होने के दो महीने बाद है) समाप्त हुए बिना, नामित अभियुक्तों की गिरफ्तारी या उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस कार्रवाई नहीं की जाएगी..इस "कूलिंग पीरियड" के दौरान, मामला प्रत्येक जिले में तुरंत परिवार कल्याण समिति को भेजा जाएगा.


(2) केवल वे मामले परिवार कल्याण समिति को भेजे जाएंगे जिनमें धारा 498-ए, अन्य धाराओं के साथ-साथ कारावास की सजा 10 साल से कम हो.


(3) शिकायत या FIR दर्ज होने के बाद दो महीने का "कूलिंग पीरियड" समाप्त हुए बिना कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए. इस "कूलिंग पीरियड" के दौरान, मामले को प्रत्येक जिले में परिवार कल्याण समिति को भेजा जा सकता है. 


(4) प्रत्येक जिले में कम से कम एक या एक से अधिक परिवार कल्याण समिति (जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अंतर्गत गठित उस जिले के भौगोलिक आकार और जनसंख्या के आधार पर) होगी, जिसमें कम से कम तीन सदस्य होंगे.. इसके गठन और कार्यों की समीक्षा उस जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश/प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट द्वारा समय-समय पर की जाएगी, जो विधिक सेवा प्राधिकरण में उस जिले के अध्यक्ष या सह-अध्यक्ष होंगे.


(5) उक्त परिवार कल्याण समिति में निम्नलिखित सदस्य शामिल होंगे:-


(ए ) जिले के मध्यस्थता केंद्र से एक युवा मध्यस्थ या पांच वर्ष तक का अनुभव रखने वाला युवा वकील या राजकीय विधि महाविद्यालय या राज्य विश्वविद्यालय या राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का पाँचवें वर्ष का वरिष्ठतम छात्र.. अच्छा शैक्षणिक रिकॉर्ड रखने वाला और लोक-हितैषी युवक, या


(बी) उस जिले का सुप्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता, जिसका पूर्व-पारिवारिक इतिहास साफ़-सुथरा हो, या;


(सी) जिले में या उसके आस-पास रहने वाले सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी, जो कार्यवाही के उद्देश्य के लिए समय दे सकें, या;

 (डी) जिले के वरिष्ठ न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारियों की शिक्षित पत्नियां 

(6) परिवार कल्याण समिति के सदस्य को कभी भी गवाह के रूप में नहीं बुलाया जाएगा 


(7) भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और ऊपर उल्लिखित अन्य संबद्ध धाराओं के अंतर्गत प्रत्येक शिकायत या आवेदन, संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा तुरंत परिवार कल्याण समिति को भेजा जाएगा.. उक्त शिकायत या FIR प्राप्त होने के बाद, समिति प्रतिवादी पक्षों को उनके चार वरिष्ठ व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत बातचीत के लिए बुलाएगी और दर्ज होने के दो महीने के भीतर उनके बीच के विवाद/शंकाओं को सुलझाने का प्रयास करेगी. प्रतिवादी पक्षों को समिति के सदस्यों की सहायता से अपने बीच गंभीर विचार-विमर्श के लिए अपने चार वरिष्ठ व्यक्तियों (अधिकतम) के साथ समिति के समक्ष उपस्थित होना अनिवार्य है.


(8) समिति उचित विचार-विमर्श के बाद, एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी और मामले से संबंधित सभी तथ्यात्मक पहलुओं और अपनी राय को शामिल करते हुए, दो महीने की अवधि समाप्त होने के बाद, संबंधित मजिस्ट्रेट/पुलिस अधिकारियों को, जिनके समक्ष ऐसी शिकायतें दर्ज की जा रही हैं, भेजेगी.


(9) पुलिस अधिकारी, नामित अभियुक्तों के विरुद्ध आवेदनों या शिकायतों के आधार पर किसी भी गिरफ्तारी या किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से बचने के लिए, समिति के समक्ष विचार-विमर्श जारी रखेंगे. हालांकि, जांच अधिकारी मामले की परिधीय जाँच जारी रखेंगे, जैसे कि मेडिकल रिपोर्ट, चोट रिपोर्ट और गवाहों के बयान तैयार करना.


(10) समिति द्वारा दी गई उक्त रिपोर्ट, गुण-दोष के आधार पर, जांच अधिकारी या मजिस्ट्रेट के विचाराधीन होगी और उसके बाद दो महीने की " कूलिंग अवधि" समाप्त होने के बाद, दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के अनुसार उनके द्वारा उचित कार्रवाई की जाएगी 


(11) विधिक सेवा सहायता समिति, परिवार कल्याण समिति के सदस्यों को समय-समय पर आवश्यक समझे जाने वाले बुनियादी प्रशिक्षण प्रदान करेगी. 


(12) चूंकि,यह समाज में व्याप्त उन कटुताओं को दूर करने का एक नेक कार्य है जहां प्रतिवादी पक्षों की भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं ताकि वे अपने बीच की गर्माहट को कम कर सकें और उनके बीच की गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास कर सकें चूंकि यह कार्य व्यापक रूप से जनता के लिए है, सामाजिक कार्य है, इसलिए वे प्रत्येक जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदेय या निशुल्क आधार पर कार्य कर रहे हैं. 


(13) भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए और अन्य संबद्ध धाराओं से संबंधित ऐसी FIR या शिकायतों की जांच, गतिशील जांच अधिकारियों द्वारा की जाएगी, जिनकी निष्ठा, ऐसे वैवाहिक मामलों को पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ संभालने और जांच करने के लिए कम से कम एक सप्ताह के विशेष प्रशिक्षण के बाद प्रमाणित हो. 

(14) जब पक्षों के बीच समझौता हो जाता है तो जिला एवं सत्र न्यायाधीश और उनके द्वारा जिले में नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी आपराधिक मामले को बंद करने सहित कार्यवाही का निपटारा करने के लिए स्वतंत्र होंगे. दरअसल मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने उस वैवाहिक मामले में फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट के सुरक्षा उपायों का समर्थन किया है, जिसमें पत्नी और उसके परिवार ने पति और उसके परिवार के खिलाफ झूठे मामले दर्ज कराए थे, जिसके कारण पति और उसके पिता को जेल की सजा हुई थी.

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दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया बड़ा कदम, देशभर में ये गाइडलाइन लागू करने के आदेश

दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2022 के दिशानिर्देशों को पूरे देश में लागू करने के आदेश दिए गए हैं.

वैवाहिक विवादों में IPC की धारा 498 A यानी दहेज प्रताड़ना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा कदम उठाया है. दहेज प्रताड़ना के दुरुपयोग को रोकने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2022 के दिशानिर्देशों को पूरे देश में लागू करने के आदेश दिए गए हैं. 498A मामलो में दो महीने तक गिरफ्तारी ना करने और परिवार कल्याण समितियों के गठन के हाईकोर्ट दिशानिर्देशों का समर्थन किया है. CJI बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने फैसले में कहा कि हाईकोर्ट द्वारा तैयार किए गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और प्राधिकारियों द्वारा उनका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए.

पीठ ने कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 13.06.2022 के फैसले में पैरा 32 से 38 के अनुसार, 'भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग से संबंधित सुरक्षा उपायों के लिए परिवार कल्याण समितियों के गठन' के संबंध में तैयार किए गए दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा उनका क्रियान्वयन किया जाएगा. दरअसल इस फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 2018 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए दिशानिर्देश जारी कर रहा है. इसका उद्देश्य वादियों में पति और उसके पूरे परिवार को व्यापक आरोपों के माध्यम से फंसाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना है.

हाईकोर्ट के दिशानिर्देश थे 

(1) FIR या शिकायत दर्ज होने के बाद, "कूलिंग पीरियड" (जो FIR या शिकायत दर्ज होने के दो महीने बाद है) समाप्त हुए बिना, नामित अभियुक्तों की गिरफ्तारी या उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस कार्रवाई नहीं की जाएगी..इस "कूलिंग पीरियड" के दौरान, मामला प्रत्येक जिले में तुरंत परिवार कल्याण समिति को भेजा जाएगा.


(2) केवल वे मामले परिवार कल्याण समिति को भेजे जाएंगे जिनमें धारा 498-ए, अन्य धाराओं के साथ-साथ कारावास की सजा 10 साल से कम हो.


(3) शिकायत या FIR दर्ज होने के बाद दो महीने का "कूलिंग पीरियड" समाप्त हुए बिना कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए. इस "कूलिंग पीरियड" के दौरान, मामले को प्रत्येक जिले में परिवार कल्याण समिति को भेजा जा सकता है. 


(4) प्रत्येक जिले में कम से कम एक या एक से अधिक परिवार कल्याण समिति (जिला विधिक सहायता सेवा प्राधिकरण के अंतर्गत गठित उस जिले के भौगोलिक आकार और जनसंख्या के आधार पर) होगी, जिसमें कम से कम तीन सदस्य होंगे.. इसके गठन और कार्यों की समीक्षा उस जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश/प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट द्वारा समय-समय पर की जाएगी, जो विधिक सेवा प्राधिकरण में उस जिले के अध्यक्ष या सह-अध्यक्ष होंगे.


(5) उक्त परिवार कल्याण समिति में निम्नलिखित सदस्य शामिल होंगे:-


(ए ) जिले के मध्यस्थता केंद्र से एक युवा मध्यस्थ या पांच वर्ष तक का अनुभव रखने वाला युवा वकील या राजकीय विधि महाविद्यालय या राज्य विश्वविद्यालय या राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय का पाँचवें वर्ष का वरिष्ठतम छात्र.. अच्छा शैक्षणिक रिकॉर्ड रखने वाला और लोक-हितैषी युवक, या


(बी) उस जिले का सुप्रसिद्ध और मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता, जिसका पूर्व-पारिवारिक इतिहास साफ़-सुथरा हो, या;


(सी) जिले में या उसके आस-पास रहने वाले सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी, जो कार्यवाही के उद्देश्य के लिए समय दे सकें, या;

 (डी) जिले के वरिष्ठ न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारियों की शिक्षित पत्नियां 

(6) परिवार कल्याण समिति के सदस्य को कभी भी गवाह के रूप में नहीं बुलाया जाएगा 


(7) भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और ऊपर उल्लिखित अन्य संबद्ध धाराओं के अंतर्गत प्रत्येक शिकायत या आवेदन, संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा तुरंत परिवार कल्याण समिति को भेजा जाएगा.. उक्त शिकायत या FIR प्राप्त होने के बाद, समिति प्रतिवादी पक्षों को उनके चार वरिष्ठ व्यक्तियों के साथ व्यक्तिगत बातचीत के लिए बुलाएगी और दर्ज होने के दो महीने के भीतर उनके बीच के विवाद/शंकाओं को सुलझाने का प्रयास करेगी. प्रतिवादी पक्षों को समिति के सदस्यों की सहायता से अपने बीच गंभीर विचार-विमर्श के लिए अपने चार वरिष्ठ व्यक्तियों (अधिकतम) के साथ समिति के समक्ष उपस्थित होना अनिवार्य है.


(8) समिति उचित विचार-विमर्श के बाद, एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी और मामले से संबंधित सभी तथ्यात्मक पहलुओं और अपनी राय को शामिल करते हुए, दो महीने की अवधि समाप्त होने के बाद, संबंधित मजिस्ट्रेट/पुलिस अधिकारियों को, जिनके समक्ष ऐसी शिकायतें दर्ज की जा रही हैं, भेजेगी.


(9) पुलिस अधिकारी, नामित अभियुक्तों के विरुद्ध आवेदनों या शिकायतों के आधार पर किसी भी गिरफ्तारी या किसी भी दंडात्मक कार्रवाई से बचने के लिए, समिति के समक्ष विचार-विमर्श जारी रखेंगे. हालांकि, जांच अधिकारी मामले की परिधीय जाँच जारी रखेंगे, जैसे कि मेडिकल रिपोर्ट, चोट रिपोर्ट और गवाहों के बयान तैयार करना.


(10) समिति द्वारा दी गई उक्त रिपोर्ट, गुण-दोष के आधार पर, जांच अधिकारी या मजिस्ट्रेट के विचाराधीन होगी और उसके बाद दो महीने की " कूलिंग अवधि" समाप्त होने के बाद, दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के अनुसार उनके द्वारा उचित कार्रवाई की जाएगी 


(11) विधिक सेवा सहायता समिति, परिवार कल्याण समिति के सदस्यों को समय-समय पर आवश्यक समझे जाने वाले बुनियादी प्रशिक्षण प्रदान करेगी. 


(12) चूंकि,यह समाज में व्याप्त उन कटुताओं को दूर करने का एक नेक कार्य है जहां प्रतिवादी पक्षों की भावनाएं बहुत तीव्र होती हैं ताकि वे अपने बीच की गर्माहट को कम कर सकें और उनके बीच की गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास कर सकें चूंकि यह कार्य व्यापक रूप से जनता के लिए है, सामाजिक कार्य है, इसलिए वे प्रत्येक जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानदेय या निशुल्क आधार पर कार्य कर रहे हैं. 


(13) भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए और अन्य संबद्ध धाराओं से संबंधित ऐसी FIR या शिकायतों की जांच, गतिशील जांच अधिकारियों द्वारा की जाएगी, जिनकी निष्ठा, ऐसे वैवाहिक मामलों को पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ संभालने और जांच करने के लिए कम से कम एक सप्ताह के विशेष प्रशिक्षण के बाद प्रमाणित हो. 

(14) जब पक्षों के बीच समझौता हो जाता है तो जिला एवं सत्र न्यायाधीश और उनके द्वारा जिले में नामित अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी आपराधिक मामले को बंद करने सहित कार्यवाही का निपटारा करने के लिए स्वतंत्र होंगे. दरअसल मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने उस वैवाहिक मामले में फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट के सुरक्षा उपायों का समर्थन किया है, जिसमें पत्नी और उसके परिवार ने पति और उसके परिवार के खिलाफ झूठे मामले दर्ज कराए थे, जिसके कारण पति और उसके पिता को जेल की सजा हुई थी.



 
  


भारत का सर्वोच्च न्यायालय
22 जुलाई, 2025 को शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल
लेखक: बी.आर. गवई
बेंच: बीआर गवई
2025 आईएनएससी 883

                                            भारत के सर्वोच्च न्यायालय में
                                         सिविल/आपराधिक मूल क्षेत्राधिकार

                                         स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023


                                   शिवांगी बंसल...याचिकाकर्ता

                                                                     बनाम

                                 साहिब बंसल…प्रतिवादी
प्रतिवादी
क: बी.आर. गवई

बेंच: बीआर गवई

2025 आईएनएससी 883
                                                                              गैर समाचार-योग्य

                                            भारत के सर्वोच्च न्यायालय में
                                         सिविल/आपराधिक मूल क्षेत्राधिकार

                                         स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023


                                   शिवांगी बंसल...याचिकाकर्ता

                                                                     बनाम

                                 साहिब बंसल…प्रतिवादी


                                                                     साथ
                                                टीपी (सीआरएल) संख्या(एँ). 631-633/2023
                                                    एसएलपी (सीआरएल) संख्या 7869/2022
                                                   एसएलपी (सीआरएल) संख्या 11848/2022
                                                    एसएलपी (सीआरएल) संख्या 2282/2023


                                                           प्रलयऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह, जे.1. पत्नी शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल द्वारा एचएमए संख्या 1395/2020, जिसका शीर्षक "साहिब बंसल बनाम शिवांगी बंसल" है, के स्थानांतरण हेतु स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 दायर की गई है, जिसमें मामले को प्रधान न्यायाधीश, पारिवारिक न्यायालय, रोहिणी, हस्ताक्षर सत्यापित नहीं न्यायालय, दिल्ली से डिजिटल रूप से हस्ताक्षरित हापुड़ (उत्तर प्रदेश) स्थित सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की गई है। दूसरी ओर, टीपी (सीआरएल) रश्मि ध्यानी पंत दिनांक: 2025.07.22 17:14:34 IST कारण:
नंबर 631-633/2023 पति साहिब ट्रांसफर याचिका (सी) नंबर 2367 ऑफ 2023 पेज 1 ऑफ 19  बंसल द्वारा दायर की गई है, जिसमें (i) एसटी 19/2020 का स्थानांतरण करने की मांग की गई है, जो पीएस पिलख्वा, हापुड़ में दर्ज एफआईआर नंबर 567/2018 से उत्पन्न हुई है, जिसका शीर्षक राज्य बनाम मंजू बंसल और अन्य है। अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश, फास्ट ट्रैक कोर्ट- I, हापुड़ के समक्ष लंबित; (i) डीवी अधिनियम के तहत सीसी नंबर 248/2019 जिसका शीर्षक "शिवांगी बंसल और अन्य बनाम साहिब बंसल" है, जो न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम, हापुड़, यूपी के समक्ष लंबित है और (iii) शिकायत संख्या 3692/2020 यू/एस 406 आईपीसी जिसका शीर्षक "शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल और अन्य" है। सीजेएम, हापुड़ न्यायालय, उत्तर प्रदेश के समक्ष लंबित मामले को सक्षम जिला न्यायालय, रोहिणी, दिल्ली में भेजा जाएगा।

2. इसके अतिरिक्त, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित दिनांक 13.06.2022 के आदेश के विरुद्ध शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल द्वारा एसएलपी(सीआरएल) संख्या 7869/2022 और 11848/2022 दायर की गई हैं, जिसमें क्रमशः मुकेश बंसल (साहिब बंसल के पिता/सीआरएल संशोधन संख्या 1122/2022) और मंजू बंसल (साहिब बंसल की माता/सीआरएल संशोधन संख्या 1187/2022) द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाओं को स्वीकार किया गया था। इसके अतिरिक्त, साहिब बंसल द्वारा माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित दिनांक 13.06.2022 के आदेश के विरुद्ध एसएलपी(सीआरएल) संख्या 2282/2023 दायर की गई है, जिसमें साहिब बंसल द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका (सीआरएल संशोधन संख्या 1126/2022) को खारिज कर दिया गया था।

3. याचिकाओं से संबंधित संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार हैं:

स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 2/19
3.1 याचिकाकर्ता-पत्नी और प्रतिवादी-पति का विवाह 05.12.2015 को उमराव फार्महाउस, दिल्ली में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। इस विवाहेतर संबंध से एक बेटी, सुश्री रैना (नाबालिग) का जन्म 23.12.2016 को फोर्टिस अस्पताल, शालीमार बाग, नई दिल्ली में हुआ, जो वर्तमान में 8 वर्ष की है। विवाह के बाद, दोनों पक्ष 44, कपिल विहार, पीतमपुरा, दिल्ली- 110034 में रहते थे, जो पति/साहिब बंसल के माता-पिता के साथ उनका वैवाहिक घर था। उसके बाद, 30.04.2017 से दोनों पक्ष अपनी बेटी के साथ 130, राजधानी एन्क्लेव, पीतमपुरा, दिल्ली 110034 में रहने लगे।
3.2 वैवाहिक कलह और पक्षों और उनके परिवार के सदस्यों के बीच उत्पन्न कई विवादों के कारण, वे 04.10.2018 को अलग हो गए, और तब से वे अलग रह रहे हैं।
4. अलग होने के बाद, पक्षों ने एक-दूसरे और अपने परिवार के सदस्यों के खिलाफ विभिन्न न्यायालयों/प्राधिकरणों के समक्ष कई मामले/शिकायतें/कानूनी कार्यवाही आदि दायर की हैं, जिनमें से कई मामले/शिकायतें/कार्यवाहियां लंबित हैं, जिनका विवरण नीचे दिया गया है।
स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 3/19

4ए. पत्नी द्वारा पति और उसके परिवार के सदस्यों/रिश्तेदारों के विरुद्ध दायर मामला:

i. राज्य बनाम मंजू बंसल एवं अन्य (एफआईआर संख्या 567/2018): आईपीसी की धारा 498ए, 323, 504, 506, 307, 376, 511, 120बी, 377, 313, 342 और दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत आपराधिक मामला; अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, फास्ट ट्रैक कोर्ट-1, हापुड़, यूपी के समक्ष लंबित। ii. शिवांगी बंसल एवं अन्य बनाम साहिब बंसल एवं अन्य ।
(सीसी संख्या 248/2019): घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के तहत घरेलू हिंसा का मामला न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम, हापुड़, यूपी के समक्ष दायर किया गया।
iii. शिवांगी बंसल एवं अन्य बनाम साहिब बंसल (सीसी संख्या 285/2020): न्यायिक मजिस्ट्रेट, फास्ट ट्रैक द्वितीय, हापुड़, उत्तर प्रदेश के समक्ष घरेलू हिंसा की कार्यवाही जारी है।
iv. शिवांगी बंसल और अन्य। बनाम साहिब बंसल और अन्य ।
(सीसी संख्या 769/2019): साहिब बंसल के परिवार के सदस्यों के खिलाफ अलग से घरेलू हिंसा का मामला न्यायिक मजिस्ट्रेट, फास्ट ट्रैक द्वितीय, हापुड़, यूपी के समक्ष लंबित है।
बनाम शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल और अन्य। ए227 (7618/2021) धारा 406 आईपीसी के तहत शिकायत ):
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, हापुड़, उत्तर प्रदेश के समक्ष आपराधिक विश्वासघात के लिए आपराधिक शिकायत लंबित है।
स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 4/19
vi. शिवांगी बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (शिकायत मामला संख्या 3692/2020): शिवांगी बंसल द्वारा धारा 406 आईपीसी के तहत दायर शिकायत मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, हापुड़, उत्तर प्रदेश के समक्ष लंबित है। vii. शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (मामला संख्या 136/2019 ): नाबालिग बेटी के लिए भरण-पोषण की मांग करते हुए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका पारिवारिक न्यायालय, हापुड़, उत्तर प्रदेश के समक्ष लंबित है।
viii. शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (तलाक याचिका संख्या 730/2022): हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) के तहत तलाक की मांग करते हुए याचिका; प्रधान न्यायाधीश, पारिवारिक न्यायालय, हापुड़ के समक्ष दायर की गई। ix. शिवांगी बंसल बनाम साहिब बंसल (स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023): पारिवारिक न्यायालय, रोहिणी, दिल्ली से पारिवारिक न्यायालय, हापुड़ में एचएमए संख्या 1395/2020 को स्थानांतरित करने की मांग वाली याचिका; भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित। x. शिवांगी बंसल बनाम यूपी राज्य एवं अन्य। (एसएलपी (सीआरएल) संख्या 7869/2022): मुकेश बंसल (ससुर) के खिलाफ एफआईआर को रद्द करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली विशेष अनुमति याचिका;

xi. शिवांगी बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (एसएलपी (सीआरएल) संख्या 11848/2022): मंजू बंसल (सास) के खिलाफ एफआईआर रद्द करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली विशेष अनुमति याचिका; सर्वोच्च न्यायालय में लंबित।

स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 5/19

xii. शिवांगी एवं अन्य बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य एवं अन्य ।

(एमसी सं. 4588/2023, सीआरएल एमए 17543/2023):

दिल्ली उच्च न्यायालय में पति द्वारा पत्नी के परिवार के खिलाफ दायर एफआईआर संख्या 816/2021 (थाना सुभाष प्लेस) को रद्द करने के लिए याचिका दायर की गई। xiii. आयकर नोटिस - मुकेश बंसल (आईटीबीए/आईएनवी/एस/131/2023-24/1055092506(1)152):
डीडीआईटी/एडीआईटी (आईएनवी)-7(2), नई दिल्ली द्वारा जारी आयकर जांच नोटिस।
xiv. आयकर नोटिस – मंजू बंसल (आईटीबीए/आईएनवी/एस/131/2023-24/1055092442(1)153): डीडीआईटी/एडीआईटी (आईएनवी)-7(2), नई दिल्ली द्वारा जारी आयकर जांच नोटिस।
xv. आयकर नोटिस – चिराग मुकेश बंसल (आईटीबीए/आईएनवी/एस/131/2023-24/1055002405(1)153): डीडीआईटी/एडीआईटी (आईएनवी)-7(2), नई दिल्ली द्वारा जारी आयकर जांच नोटिस।
4बी. पति द्वारा पत्नी और उसके परिवार के सदस्यों/रिश्तेदारों के खिलाफ दायर मामला:
i. राज्य बनाम गौरव गोयल और शिवांगी बंसल - एफआईआर संख्या 816/2021, आईपीसी की धारा 365, 323, 341, 506 और 34 के तहत आपराधिक मामला , महिला न्यायालय, रोहिणी, दिल्ली में लंबित है, जिसमें आरोप तय हो चुके हैं। ii. राज्य बनाम सतीश मित्तल और अन्य - एफआईआर संख्या 583/2022, आईपीसी की धारा 354, 385, 506, 509 और 34 के तहत पीएस सुभाष प्लेस, दिल्ली में दायर की गई ।
स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 6/19

iii. मुकेश बंसल बनाम शिवांगी बंसल - सीटी केस संख्या 8101/2022, धारा 500 और 501 आईपीसी के तहत मानहानि के लिए धारा 200/156 सीआरपीसी के तहत आपराधिक शिकायत , मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, रोहिणी के समक्ष लंबित है।

iv. साहिब बंसल बनाम शिवांगी बंसल - एचएमए संख्या 1395/2020, हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1) के तहत तलाक की याचिका, पारिवारिक न्यायालय, रोहिणी में लंबित है।

बनाम साहिब बंसल बनाम भारत संघ - डब्ल्यूपी(क्यू) संख्या 1470/2023, पत्नी की आईपीएस उम्मीदवारी को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की गई। vi. सीआर केस संख्या 402/2019, पीएस पिलखुवा, हापुड़, यूपी;

राजेश गोयल एवं अन्य के खिलाफ धारा 323 , 504 , 506 एवं 294 आईपीसी के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया।

vii. साहिब बंसल बनाम शिवांगी बंसल - संरक्षकता मामला संख्या 47/2024, संरक्षकता और वार्ड अधिनियम की धारा 7 और 25 के तहत याचिका, पारिवारिक न्यायालय, रोहिणी में लंबित।

viii. साहिब बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य - टीपी (सीआरएल) 631- 633/2023, तीन मामलों को हापुड़, उत्तर प्रदेश से रोहिणी, दिल्ली स्थानांतरित करने की मांग वाली सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरण याचिका; मामला लंबित।

ix. साहिब बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य - एसएलपी (सीआरएल) 2282/2023, आपराधिक पुनरीक्षण को खारिज करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका; सर्वोच्च न्यायालय में लंबित।

स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 7/19

x. साहिब बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य - एसएलपी (सी) डी संख्या 35261/2024, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित भरण-पोषण आदेश के विरुद्ध सिविल विशेष अनुमति याचिका, सर्वोच्च न्यायालय में लंबित।

4सी. इसके अतिरिक्त, पक्षों के बीच वैवाहिक कलह के कारण तीसरे पक्ष द्वारा दायर किए गए आकस्मिक मामले/मुकदमे/कार्यवाहियाँ भी हैं। ये हैं:

i. शिकायत मामला संख्या 07/2020, विजय पाल गौतम, एडवोकेट, हापुड़, यूपी द्वारा पीएस हापुड़ नगर में धारा 323 , 324 , 325 , 356 , 504 , 506 आईपीसी और 3(1)(10) एससी/एसटी एक्ट के तहत दायर किया गया।
ii. शिकायत मामला संख्या 09/2022, बबीता बनाम चिराग बंसल एवं अन्य, धारा 323 , 354बी , 376 , 511 , 504 , 506 आईपीसी और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(10) के अंतर्गत थाना हापुड़ नगर में दायर किया गया। न्यायालय: इलाहाबाद उच्च न्यायालय, उत्तर प्रदेश।
iii. मानहानि का मुकदमा संख्या 799/2023, सतीश कुमार मित्तल बनाम चिराग बंसल, मुकेश बंसल, मंजू बंसल द्वारा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, हापुड़ के समक्ष दायर। आपराधिक पुनरीक्षण मुकदमा संख्या 170/2024, जिला एवं सत्र न्यायाधीश, हापुड़, उत्तर प्रदेश के समक्ष दायर।
iv. ओएस नंबर 15/2020, एसबीएम डेवलपर्स (पी) लिमिटेड और संध्या गोयल के बीच भूमि विवाद सिविल जज (जेडी), खैर, अलीगढ़, यूपी के समक्ष लंबित है।
स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 8/19
बनाम सिविल रिवीजन संख्या 97/2024, संध्या गोयल और एसबीएम डेवलपर्स (पी) लिमिटेड के बीच भूमि विवाद जिला न्यायालय, अलीगढ़, यूपी में लंबित है।
5. दोनों पक्ष, भविष्य में किसी भी मुकदमेबाजी से बचने और वर्तमान कार्यवाही में ही उनके बीच शांति बनाए रखने के लिए, बच्चे की हिरासत के मामलों सहित सभी विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करना चाहते हैं, तथा उपरोक्त पैरा 4 में उल्लिखित सभी लंबित मुकदमों को पूर्ण और अंतिम संतुष्टि के साथ निपटाना चाहते हैं।
6. पत्नी की ओर से विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सिद्धार्थ लूथरा और पति की ओर से विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री विकास सिंह को सुना गया।
7. मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा प्रस्तुत प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए निम्नलिखित टिप्पणियां और निर्देश देकर न्याय का उद्देश्य पूरा किया जाएगा।
8. हमने देखा है कि 04.10.2018 को पक्षों के अलग होने के बाद से उनकी बेटी सुश्री रैना मां/शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल की हिरासत में है। इस मामले को देखते हुए, एतद्द्वारा आदेश दिया जाता है कि बच्चे की हिरासत मां के पास होगी। पिता, साहिब बंसल और उनके परिवार को पहले तीन महीनों के लिए बच्चे से मिलने के लिए निगरानी में मुलाकात का अधिकार होगा और उसके बाद नाबालिग लड़की सुश्री रैना के आराम और भलाई के आधार पर  हर महीने के पहले रविवार को सुबह 9:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक बच्चे की शिक्षा के स्थान पर या स्कूल के नियमों और विनियमों के तहत अनुमति के अनुसार मुलाकात की जा सकेगी। उन्हें बच्चे की छुट्टियों की आधी अवधि बच्चे के साथ बिताने का अधिकार होगा। दोनों में से कोई भी पक्ष किसी भी तरह से मुलाकात के अधिकार में कोई बाधा या रुकावट पैदा नहीं करेगा। पक्षों को निर्देश दिया जाता है कि वे नाबालिग बच्चे के कल्याण और भावनात्मक स्वास्थ्य के अनुकूल आचरण करें और उपरोक्त व्यवस्था के सुचारू कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करें। मुलाक़ात के संबंध में किसी भी कठिनाई/परिवर्तन/विवाद की स्थिति में, दोनों पक्ष अपने-अपने वकीलों के माध्यम से परामर्श करेंगे; पक्षों द्वारा इस संबंध में किसी भी समस्या के समाधान हेतु मध्यस्थता करने हेतु श्री सुदर्शन राजन (सुश्री शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल की ओर से) और श्री संजीत त्रिवेदी (श्री साहिब बंसल की ओर से) को अधिकृत करने पर सहमति व्यक्त की गई है।
9. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पत्नी स्वेच्छा से पति से किसी भी गुजारा भत्ता या रखरखाव के लिए अपने दावे को त्यागने और माफ करने के लिए सहमत हो गई है और उसका पति और उसके परिवार के सदस्यों के स्वामित्व वाली और कब्जे वाली किसी भी चल और अचल संपत्ति या ऐसी किसी भी संपत्ति पर कोई दावा नहीं होगा जो भविष्य  में पति और उसके परिवार के सदस्यों के स्वामित्व वाली और कब्जे में हो, पत्नी के पक्ष में रखरखाव के लिए कोई आदेश पारित नहीं किया जा रहा है।
10. चूंकि पत्नी स्वेच्छा से बेटी के सभी खर्चों का ध्यान रखने के लिए सहमत हो गई है और इस प्रकार वह बेटी के भरण-पोषण के लिए पति से किसी भी भरण-पोषण राशि का दावा नहीं करेगी, इसलिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय, उत्तर प्रदेश द्वारा पारित 1,50,000/- रुपये प्रति माह के भरण-पोषण का आदेश, जिसमें पति को बच्चे के भरण-पोषण के लिए पत्नी को भुगतान करने का निर्देश दिया गया था, पत्नी द्वारा निष्पादित नहीं किया जाएगा और इसके द्वारा इसे रद्द किया जाता है।
11. पक्षों के बीच लंबी कानूनी लड़ाई को समाप्त करने और पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिए, किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे के खिलाफ दायर सभी लंबित आपराधिक और सिविल मुकदमे, जिनमें पत्नी, पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ मुकदमे शामिल हैं, परंतु इन्हीं तक सीमित नहीं हैं, भारत में किसी भी अदालत या फोरम में जैसा कि ऊपर पैरा 4ए, 4बी और 4सी (i) से (iii) में उल्लेख किया गया है, एतद्द्वारा रद्द और/या वापस लिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, पक्षों के बीच मामलों से संबंधित/असंबंधित, पति/पत्नी और उसके/उसकी परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के खिलाफ तीसरे पक्ष द्वारा दायर आकस्मिक मामले/मुकदमे/कार्यवाही एतद्द्वारा रद्द और/या वापस लिए जाते हैं। संबंधित अदालतों/प्राधिकारियों को निर्देश दिया जाता है कि वे इन कार्यवाहियों को समाप्त मानें और भविष्य में किसी भी अदालत में इन्हें चुनौती नहीं दी जाएगी।
12. दोनों पक्षों, अर्थात् शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल और साहिब बंसल, और उनके परिवारों ने यह वचन दिया है कि उनके द्वारा पति/पत्नी और उनके परिवार के सदस्यों व रिश्तेदारों के विरुद्ध आज तक कोई अन्य प्रॉक्सी कार्यवाही शुरू नहीं की गई है। यदि ऐसी कोई कार्यवाही बाद में शुरू/लंबित पाई जाती है, तो यह माननीय न्यायालय की अवमानना के समान होगी।
13. उपरोक्त पैरा 4 में उल्लिखित मामलों के अतिरिक्त, यदि पत्नी (और/या उसके परिवार) या पति (और/या उसके परिवार) द्वारा या तो उपरोक्त वैवाहिक विवादों से संबंधित या अन्यथा, किसी अन्य फोरम में एक दूसरे के विरुद्ध या उनके परिवार के सदस्यों के विरुद्ध ऐसे मामले, याचिकाएं, शिकायतें हैं, जो दूसरे पक्ष की जानकारी में नहीं हैं, तो वे इस आदेश के आधार पर निरस्त हो जाएंगी।
14. शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल और साहिब बंसल (क्रमशः पत्नी और पति) और पति और पत्नी दोनों के परिवार के सदस्य भविष्य में इन या संबंधित मामलों से उत्पन्न होने वाले किसी भी मुकदमे, याचिका, मामले, शिकायत या अन्यथा को किसी भी न्यायिक या अर्ध-न्यायिक या नियामक या प्रशासनिक मंच या किसी अन्य मंच पर दायर या आरंभ नहीं करेंगे। दोनों पक्षों और उनके परिवारों की व्यापक शांति और स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367 ऑफ 2023 पृष्ठ 12 का 19  शांति के लिए, पति और पत्नी ने पारस्परिक रूप से सहमति व्यक्त की है और सभी शिकायतों / दलीलों / याचिकाओं / अभ्यावेदन / दस्तावेजों में सभी आरोपों / कथनों को बिना शर्त वापस लेने का वचन दिया है जो पक्षों या उनके परिवार के सदस्यों / रिश्तेदारों या उनके प्रतिनिधियों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ और उनके परिवार के सदस्यों / रिश्तेदारों के खिलाफ किसी भी न्यायालय / नियामक / प्रशासनिक / वैधानिक / न्यायाधिकरण मंचों और / या किसी अन्य प्राधिकरण के समक्ष तैयार और / या दायर किए गए हैं।
15. पति और पत्नी ने दोनों पक्षों और उनके परिवारों की व्यापक शांति के लिए, एक-दूसरे के जीवन, व्यवसायों, कारोबार में हस्तक्षेप न करने पर सहमति व्यक्त की है, जिसमें व्यापारिक प्रतिद्वंद्वियों, सेवा, रोजगार से कोई संबंध न रखना भी शामिल है, और उन्होंने आगे सहमति व्यक्त की है और वचन दिया है कि वे ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे, न ही ऐसा कोई कार्य करवाएंगे या बढ़ावा देंगे, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे के व्यक्तिगत और व्यावसायिक हितों के लिए हानिकारक हो और वे ऐसे किसी भी पक्ष के साथ सहयोग नहीं करेंगे, जिससे कारोबार को नुकसान पहुंचे।
16. इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा आपराधिक पुनरीक्षण संख्या 1126/2022 में पारित अंतिम निर्णय और आदेश दिनांक 13.06.2022 में शिवांगी बंसल के विरुद्ध की गई टिप्पणियों और टिप्पणियों को एतद्द्वारा विलोपित किया जाता है।
स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 13/19
17. शिवांगी बंसल की माँ यानि श्रीमती। संध्या गोयल मौजा टप्पल, परगना-टप्पल, तहसील-खैर, जिला-अलीगढ़-खाता संख्या 258 पर स्थित गाटा संख्या में संपत्ति हस्तांतरित करेंगी। 1653/2 की माप 0.357 हेक्टेयर एवं गाटा संख्या 1656 की माप 1.060 हेक्टेयर कुल 2 किता कुल रकवा 1.417 हेक्टेयर जिसमें रकवा का हिस्सा 0.9446 हेक्टेयर एवं खाता संख्या 1101 का गाटा संख्या 1656/5क रकवा 0.153 हेक्टेयर जिसमें रकवा का हिस्सा 0.031 हेक्टर, कुल रकवा 0.97566 हेक्टर, पति साहिब बंसल को उपहार विलेख के रूप में, और उक्त हस्तांतरण के लिए सभी खर्च साहिब बंसल द्वारा वहन किए जाएंगे। उक्त संपत्ति का हस्तांतरण जहां है जैसी है के आधार पर किया जाएगा। उपर्युक्त संपत्ति के संबंध में वर्तमान में Ld. सिविल जज, खैर, अलीगढ़ और जिला न्यायालय अलीगढ़ में मुकदमेबाजी चल रही है। साहिब बंसल, श्रीमती संध्या गोयल के स्थान पर कदम रखेंगे और मुकदमेबाजी की लागत सहित उपर्युक्त संपत्ति के हस्तांतरण के बाद सभी संबंधित खर्चों को वहन करेंगे। इन मुकदमों से संबंधित संपूर्ण दलीलें और दस्तावेज आज से सात दिनों में श्री साहिब बंसल को सौंप दिए जाएंगे। दस्तावेज, अर्थात, संबंधित संपत्ति के विक्रय विलेख की मूल / प्रमाणित प्रतियां याचिकाकर्ता या उनकी मां श्रीमती संध्या गोयल के पास उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि वे खो गए हैं। श्रीमती संध्या गोयल इस आदेश के सात  दिनों के भीतर पुलिस में शिकायत दर्ज कराएंगी और उसकी प्रति साहिब बंसल को तुरंत उपलब्ध कराएंगी। संपत्ति के हस्तांतरण/रजिस्ट्री के समय, श्री सुदर्शन राजन/उनके सहयोगी (सुश्री शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल की ओर से) और श्री संजीत त्रिवेदी/उनके सहयोगी (श्री साहिब बंसल की ओर से) यह सुनिश्चित करने के लिए उपस्थित रहेंगे कि कोई बाधा न आए और प्रक्रिया का व्यवस्थित निष्पादन हो।
18. न्यायालय द्वारा निर्देश दिया जाता है कि पति और उसके परिवार को पुलिस सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
19. शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल कभी भी आईपीएस अधिकारी के रूप में अपने पद और शक्ति या भविष्य में अपने किसी अन्य पद, अपने सहकर्मियों/वरिष्ठों या देश में कहीं भी अन्य परिचितों के पद और शक्ति का उपयोग पति, उसके परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों के खिलाफ किसी तीसरे पक्ष/अधिकारी के माध्यम से किसी भी प्राधिकरण या फोरम के समक्ष कोई कार्यवाही शुरू करने या पति और उसके परिवार को किसी भी तरह से शारीरिक या मानसिक चोट पहुंचाने के लिए नहीं करेंगी।
20. पत्नी द्वारा दायर मामलों के परिणामस्वरूप, पति 109 दिनों की अवधि के लिए और उसके पिता 103 दिनों के लिए जेल में रहे और पूरे परिवार को शारीरिक और मानसिक आघात और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। उन्होंने जो कुछ भी सहन किया है, उसकी भरपाई  या क्षतिपूर्ति किसी भी तरह से नहीं की जा सकती। शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल और उनके माता-पिता पति और उसके परिवार के सदस्यों से बिना शर्त माफी मांगेंगे, जिसे एक प्रसिद्ध अंग्रेजी और एक हिंदी समाचार पत्र के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित किया जाएगा। ऐसी माफी फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और अन्य समान प्लेटफार्मों जैसे सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी प्रकाशित और प्रसारित की जाएगी। यहां माफी की अभिव्यक्ति को दायित्व की स्वीकृति के रूप में नहीं माना जाएगा और इसका कानूनी अधिकारों, दायित्वों या कानून के तहत उत्पन्न होने वाले परिणामों पर कोई असर नहीं होगा। माफी इस आदेश की तारीख से 3 दिनों के भीतर प्रकाशित की जाएगी और बिना किसी बदलाव के निम्नलिखित रूप में होनी चाहिए:
“मैं शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल, पुत्री श्री राजेश गोयल, निवासी आरएस-निवास, गांधी कॉलोनी, पिलकुवा, उत्तर प्रदेश, अपने और अपने माता-पिता की ओर से अपने किसी भी शब्द, कार्य या कहानी के लिए क्षमा याचना करती हूँ जिससे बंसल परिवार के सदस्यों श्री मुकेश बंसल, श्रीमती मंजू बंसल, श्री साहिब बंसल, श्री चिराग बंसल और श्रीमती शिप्रा जैन की भावनाओं को ठेस पहुँची हो या उन्हें परेशानी हुई हो। मैं समझती हूँ कि विभिन्न आरोपों और कानूनी लड़ाइयों ने दुश्मनी का माहौल पैदा कर दिया है और आपकी भलाई को गहराई से प्रभावित किया है। हालाँकि कानूनी कार्यवाही अब हमारे विवाह के विघटन और पक्षों के बीच लंबित मुकदमों को रद्द करने के साथ समाप्त हो गई है, मैं समझती हूँ कि भावनात्मक जख्मों को भरने में समय लग सकता है। मुझे पूरी उम्मीद है कि यह माफी हम सभी के लिए शांति और समापन पाने की दिशा में एक कदम हो सकती है। दोनों परिवारों की शांति, अच्छे स्वास्थ्य, समृद्धि और खुशहाली की कामना करते हुए, मुझे पूरी उम्मीद है कि बंसल परिवार मेरी इस बिना शर्त माफी को स्वीकार करेगा। अतीत चाहे कितना भी अंधकारमय क्यों न हो, वह भविष्य को बंधक नहीं बना सकता। मैं इस अवसर पर बंसल परिवार के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ कि उनके साथ अपने जीवन के अनुभवों से मैं एक अधिक आध्यात्मिक व्यक्ति बन पाया हूँ। एक बौद्ध धर्म का पालन करने वाले के रूप में, मैं सच्चे मन से बंसल परिवार के प्रत्येक सदस्य की शांति, सुरक्षा और खुशहाली की कामना और प्रार्थना करता हूँ   यहाँ, मैं दोहराता हूँ कि बंसल परिवार का विवाह से जन्मी उस बच्ची से मिलने और उसे जानने के लिए हार्दिक स्वागत है, जिसका कोई दोष नहीं है।
आदर एवं सम्मान सहित।
शिवांगी गोयल/शिवांगी बंसल”
21. उपरोक्त क्षमायाचना, लंबी कानूनी लड़ाई और उससे जुड़े भावनात्मक व मानसिक तनाव को सौहार्दपूर्ण ढंग से समाप्त करने के लिए की गई है। यह किसी भी पक्ष के प्रति/के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त है। इसका प्रयोग शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल के विरुद्ध किसी भी न्यायालय, प्रशासनिक/नियामक/अर्ध-न्यायिक निकाय/न्यायाधिकरण में, वर्तमान में या भविष्य में, उनके हितों के विरुद्ध नहीं किया जाएगा। उक्त शर्त का किसी भी प्रकार का उल्लंघन, साहिब बंसल, उनके माता-पिता और उनके परिवार के सदस्यों की ओर से माननीय न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।
22. चूंकि यह मामला वर्तमान आदेश द्वारा निपटाया जा रहा है, इसलिए किसी भी पक्ष, उनके परिवार के सदस्यों या उनके प्रतिनिधियों द्वारा विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर एक-दूसरे के खिलाफ लगाए गए सभी आरोप, जिनमें पत्नी या पति द्वारा साक्षात्कार और बयान शामिल हैं जो सीधे एक-दूसरे और/या उनके परिवार के खिलाफ आरोप लगाते हैं, वेब से हटा दिए जाएंगे।
23. प्रत्येक पक्ष सहमत है और वचनबद्धता जताता है कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, जाने या अनजाने में: (i) कोई बयान या टिप्पणी प्रकाशित, दोहराना, प्रसारित या रिपोर्ट नहीं करेगा,   ही कोई कार्रवाई करेगा, प्रोत्साहित करेगा, प्रेरित करेगा या स्वेच्छा से भाग लेगा, जो नकारात्मक टिप्पणी करेगा, अपमानित करेगा, बदनाम करेगा या वर्तमान आदेश की सामग्री पर सवाल उठाएगा जिसमें उपरोक्त पैरा - 4 में उल्लिखित मामले और कार्यवाही या उसमें दायर कोई दस्तावेज या दलील या उसमें पारित आदेश शामिल हैं (ii) एक दूसरे के संबंध में किसी भी तरह से ऐसा कार्य नहीं करेगा जिससे उनकी प्रतिष्ठा और वर्तमान या भविष्य की गतिविधियों को नुकसान पहुंचे। साहिब बंसल और उनके भाई चिराग बंसल अपने विवाह और उससे संबंधित किसी भी मुद्दे के उद्देश्य के लिए इस आदेश के तथ्य का उपयोग करने और सूचित करने के लिए स्वतंत्र होंगे।
24. दोनों पक्ष, उनके माता-पिता और परिवार के सदस्य इस न्यायालय के समक्ष वचनबद्ध हैं कि वे ऊपर दर्ज नियमों, शर्तों और निर्देशों का पालन करेंगे।

किसी भी पक्ष की ओर से चूक अवमानना मानी जाएगी, जिससे दूसरे पक्ष को अवमानना के लिए सीधे इस न्यायालय में जाने का अधिकार मिल जाएगा।

25. उपरोक्त टिप्पणियों, निर्देशों और शर्तों/समझौते के संदर्भ में, हम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए शिवांगी बंसल/शिवांगी गोयल और साहिब बंसल के बीच विवाह विच्छेद का आदेश देना उचित समझते हैं। तलाक का आदेश तदनुसार तैयार किया जाएगा।

स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 18/19

26. उपरोक्त आदेश के अनुसार स्थानांतरण याचिकाओं और विशेष अनुमति याचिकाओं का निपटारा किया जाता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 13.06.2022 के आपराधिक पुनरीक्षण संख्या 1126/2022 के विवादित निर्णय में, पैरा 32 से 38 के अनुसार, भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के दुरुपयोग से संबंधित सुरक्षा उपायों हेतु परिवार कल्याण समितियों के गठन के संबंध में निर्धारित दिशानिर्देश प्रभावी रहेंगे और उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा कार्यान्वित किए जाएँगे।

27. लंबित आवेदन, यदि कोई हो, का निपटारा हो जाएगा।

.....सीजेआई.

[ बी.आर. गवई ]   

…..जे. [ ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ] नई दिल्ली;

22 जुलाई, 2025.

स्थानांतरण याचिका (सी) संख्या 2367/2023 पृष्ठ 19/19 

Saturday, 19 July 2025

धारा 409, 420 और 477 ए के तहत आरोप साबित करने के लिए आवश्यक सामग्री, सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या

आईपीसी की धारा 409, 420 और 477 ए के तहत आरोप साबित करने के लिए आवश्यक सामग्री, सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की

(13 दिसंबर 2021) को दिए गए एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 409, 420 और 477 ए के तहत आरोप साबित करने के लिए आवश्यक सामग्री की व्याख्या की। सीजेआई एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 409, 420, और 477ए और धारा 13(2) के साथ पठित धारा 13(2) (1)(डी) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के के तहत दोषी ठहराए गए एक आरोपी द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए ये टिप्पणियां कीं।

धारा 409 आईपीसी- लोक सेवक, या बैंकर, व्यापारी या एजेंट द्वारा आपराधिक विश्वासघात 1. धारा 409 आईपीसी किसी लोक सेवक या बैंकर द्वारा उसे सौंपी गई संपत्ति के संबंध में आपराधिक विश्वासघात से संबंधित है। अभियोजन पक्ष पर यह साबित करने की जिम्मेदारी है कि आरोपी, लोक सेवक या एक बैंकर को संपत्ति सौंपी गई थी, जिसके लिए वह विधिवत रूप से बाध्य है और उसने आपराधिक विश्वासघात किया है। 2. सार्वजनिक संपत्ति को किसी को सौंपना और बेईमानी से हेराफेरी करना या उसका उपयोग धारा 405 के तहत सचित्र तरीके से करना आईपीसी की धारा 409 के तहत दंडनीय अपराध बनाने के लिए एक अनिवार्य शर्त है। अभिव्यक्ति 'आपराधिक विश्वासघात' को आईपीसी की धारा 405 के तहत परिभाषित किया गया है, जो प्रदान करता है, अन्य बातों के साथ, कि जो कोई भी किसी भी तरह से संपत्ति को या किसी संपत्ति पर किसी भी प्रभुत्व के साथ सौंपता है, बेईमानी से उस संपत्ति का दुरुपयोग करता है या अपने स्वयं के उपयोग में परिवर्तित करता है, या बेईमानी से कानून के विपरीत उस संपत्ति का उपयोग करता है या उसका निपटान करता है, या किसी भी कानून का उल्लंघन करता है जिसमें इस तरह के भरोसे का निर्वहन किया जाना है, या किसी कानूनी अनुबंध का उल्लंघन करता है, व्यक्त या निहित, आदि को आपराधिक विश्वास का आपराधिक उल्लंघन माना जाएगा।

3. इसलिए, धारा 405 आईपीसी को आकर्षित करने के लिए, निम्नलिखित सामग्री को संतुष्ट किया जाना चाहिए: (i) किसी भी व्यक्ति को संपत्ति को सौंपना या संपत्ति पर किसी भी प्रभुत्व के साथ सौंपना; (ii) उस व्यक्ति ने बेईमानी से उस संपत्ति का दुरुपयोग किया है या उस संपत्ति को अपने उपयोग के लिए परिवर्तित किया है; (iii) या वह व्यक्ति बेईमानी से उस संपत्ति का उपयोग कर रहा है या उसका निपटान कर रहा है या कानून के किसी निर्देश या कानूनी अनुबंध के उल्लंघन में किसी अन्य व्यक्ति को जानबूझकर पीड़ित कर रहा है।

4. यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि धारा 405 आईपीसी में इस्तेमाल किया गया महत्वपूर्ण शब्द 'बेईमानी' है और इसलिए, यह आशय के अस्तित्व को पूर्व-मान लेता है। दूसरे शब्दों में, बिना किसी दुर्भावना के किसी व्यक्ति को सौंपी गई संपत्ति को केवल सौंपना आपराधिक विश्वासघात के दायरे में नहीं आ सकता है। जब तक आरोपी द्वारा कानून या अनुबंध के उल्लंघन में कुछ वास्तविक उपयोग नहीं किया जाता है, इसे बेईमान इरादे से जोड़ा जाता है, तब तक कोई आपराधिक विश्वासघात नहीं होता है। दूसरी महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति 'गलत-विनियोजित' है जिसका अर्थ है अनुचित तरीके से अपने उपयोग के लिए और मालिक को इससे अलग करना।

5. धारा 405 आईपीसी के अर्थ में 'आपराधिक विश्वासघात' के दो मूलभूत तत्व जल्द ही साबित नहीं हुए हैं, और यदि ऐसा आपराधिक उल्लंघन किसी लोक सेवक या बैंकर, व्यापारी या एजेंट के कारण होता है, तो आपराधिक विश्वासघात का उक्त अपराध पेज | 30 धारा 409 आईपीसी के तहत दंडनीय है , जिसके लिए यह साबित करना आवश्यक है कि: (i) आरोपी एक लोक सेवक या बैंकर, व्यापारी या एजेंट होना चाहिए; (ii) उसे संपत्ति के लिए, ऐसी क्षमता में सौंपा गया होगा; और (iii) उसने ऐसी संपत्ति के संबंध में विश्वास भंग किया होगा।

6. तदनुसार, जब तक यह साबित नहीं हो जाता है कि आरोपी, एक लोक सेवक या एक बैंकर आदि को संपत्ति के साथ 'सौंपा' गया था, जिसके लिए वह जिम्मेदार है और ऐसे व्यक्ति ने आपराधिक विश्वासघात किया है, धारा 409 आईपीसी आकर्षित नहीं होगी। 'संपत्ति का सौंपना' एक व्यापक और सामान्य अभिव्यक्ति है। जबकि अभियोजन पक्ष पर प्रारंभिक दायित्व यह दिखाने के लिए होता है कि विचाराधीन संपत्ति आरोपी को 'सौंपी' गई थी, यह आगे साबित करना आवश्यक नहीं है कि संपत्ति को सौंपने या उसके दुरुपयोग का वास्तविक तरीका क्या है। जहां 'सौंपी' को अभियुक्त द्वारा स्वीकार किया जाता है या अभियोजन पक्ष द्वारा स्थापित किया जाता है, तो यह साबित करने के लिए कि सौंपी गई संपत्ति के दायित्व को कानूनी और संविदात्मक रूप से स्वीकार्य तरीके से पूरा किया गया था।

बैंक अधिकारी के मामले में धारा 409 आईपीसी इस प्रकार, इस बेईमान इरादे से गबन में 'आपराधिक विश्वासघात' के प्रमाण के सबसे महत्वपूर्ण अवयवों में से एक है। धारा 409 आईपीसी के तहत अपराध विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है, और जैसा कि हम एक बैंक अधिकारी के मामले में इसकी प्रयोज्यता से संबंधित हैं, यह इंगित करना उपयोगी है कि बैंकर वह है जो पैसे निकालने के लिए फिर से प्राप्त करता है जब मालिक के पास इसके लिए अवसर है। चूंकि वर्तमान मामले में एक पारंपरिक बैंक लेनदेन शामिल है, यह आगे ध्यान दिया जा सकता है कि ऐसी स्थितियों में, ग्राहक ऋणदाता होता है और बैंक उधारकर्ता होता है, बाद वाला, एक सुपर अतिरिक्त दायित्व के तहत होता है कि ग्राहक के चेक का भुगतान करने के लिए धन प्राप्त हो और अभी भी बैंकर के हाथों में होता है। एक ग्राहक बैंक में जो पैसा जमा करता है, वह बैंक के भरोसे में उसके पास नहीं होता है। यह बैंकर के धन का एक हिस्सा बन जाता है जो एक संविदात्मक दायित्व के अधीन है। ग्राहक द्वारा जमा की गई राशि का भुगतान सहमत ब्याज दर के साथ मांग पर करने के लिए होता है। ग्राहक और बैंक के बीच ऐसा रिश्ता लेनदार और कर्जदार का होता है। बैंक मांग करने पर ग्राहकों को पैसे वापस करने के लिए उत्तरदायी है, लेकिन जब तक इसे भुगतान करने के लिए नहीं कहा जाता है, तब तक बैंक लाभ कमाने के लिए किसी भी तरह से पैसे का उपयोग करने का हकदार है। धारा 420 आईपीसी- धोखाधड़ी और बेईमानी से संपत्ति वितरित के लिए प्रेरित करना 1. धारा 420 आईपीसी में प्रावधान है कि जो कोई भी धोखा देता है और इस तरह बेईमानी से किसी व्यक्ति को कोई संपत्ति देने के लिए प्रेरित करता है, या मूल्यवान सिक्योरिटी के पूरे या किसी हिस्से को बनाने, बदलने या नष्ट करने के लिए प्रेरित करता है, या कुछ भी, जो हस्ताक्षरित या मुहरबंद है, और जो एक मूल्यवान सिक्योरिटी में परिवर्तित होने में सक्षम है, ऐसी अवधि के लिए दंडित किया जा सकता है जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। 2. यह सर्वोपरि है कि धारा 420 आईपीसी के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए, अभियोजन पक्ष को न केवल यह साबित करना होगा कि आरोपी ने किसी को धोखा दिया है, बल्कि यह भी है कि ऐसा करके उसने धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति को संपत्ति देने के लिए बेईमानी के लिए प्रेरित किया है। इस प्रकार, इस अपराध के तीन घटक हैं, अर्थात, (i) किसी भी व्यक्ति को धोखा देना, (ii) कपटपूर्वक या बेईमानी से उस व्यक्ति को किसी भी व्यक्ति को कोई संपत्ति देने के लिए प्रेरित करना, और (iii) उस समय आरोपी का प्रलोभन देने का आशय। यह बिना कहे चला जाता है कि धोखाधड़ी के अपराध के लिए, धोखाधड़ी और बेईमानी का इरादा उस समय से मौजूद होना चाहिए जब वादा या प्रतिनिधित्व किया गया था। 3. यह समान रूप से अच्छी तरह से तय है कि 'बेईमानी' वाक्यांश गलत लाभ या गलत नुकसान का कारण बनने के इरादे पर जोर देता है, और जब इसे धोखाधड़ी और संपत्ति के वितरण के साथ जोड़ा जाता है, तो अपराध धारा 420 आईपीसी के तहत दंडनीय हो जाता है। इसके विपरीत, केवल अनुबंध का उल्लंघन धारा 420 के तहत आपराधिक अभियोजन को जन्म नहीं दे सकता है जब तक कि लेनदेन की शुरुआत में धोखाधड़ी या बेईमानी का इरादा सही नहीं दिखाया जाता है। यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि धारा 420 के तहत किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने के उद्देश्य से, पेश किए गए सबूत उचित संदेह से परे, उसकी ओर से आशय के तर्क को स्थापित करना चाहिए। जब तक शिकायत में यह नहीं दिखाया जाता है कि आरोपी का बेईमान या कपटपूर्ण इरादा था 'जिस समय शिकायतकर्ता ने संपत्ति दी थी', यह धारा 420 आईपीसी के तहत अपराध नहीं होगा और यह केवल अनुबंध के उल्लंघन के समान हो सकता है।

धारा 477ए- खातों का फर्जीवाड़ा 1. धारा 477A, 'खातों का फर्जीवाड़ा' के अपराध को परिभाषित और दंडित करती है। प्रावधान के अनुसार, जो कोई क्लर्क, अधिकारी या नौकर होने के नाते, या उस क्षमता में कार्यरत या कार्य कर रहा है, जानबूझकर और किसी भी पुस्तक, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, कागज, लेखन, मूल्यवान सिक्योरिटी या खाता जो उसके नियोक्ता से संबंधित है या उसके कब्जे में है, या उसके द्वारा या उसके नियोक्ता की ओर से प्राप्त किया गया है, या जानबूझकर और धोखाधड़ी के इरादे से, या यदि वह ऐसा करने के लिए उकसाता है, तो कारावास से दंडित किया जा सकता है जिसे सात साल तक बढ़ाया जा सकता है। यह खंड अपने सीमांत नोट के माध्यम से विधायी मंशा को इंगित करता है कि यह केवल वहीं लागू होता है जहां खातों अर्थात् बहीखाता या लिखित खाते से फर्जीवाड़ा होता है। 2. धारा 477ए आईपीसी के तहत एक आरोप में, अभियोजन पक्ष को साबित करना होगा- (ए) कि आरोपी ने पुस्तकों, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, कागजात, लेखन, मूल्यवान सिक्योरिटी या प्रश्न में खाते को नष्ट कर दिया, बदल दिया, विकृत या गलत किया; (बी) आरोपी ने नियोक्ता के क्लर्क, अधिकारी या नौकर के रूप में अपनी क्षमता में ऐसा किया; (सी) किताबें, कागजात, आदि उसके नियोक्ता से संबंधित हैं या उसके कब्जे में हैं या उसे अपने नियोक्ता के लिए या उसकी ओर से प्राप्त किया गया था; (डी) आरोपी ने जानबूझकर और धोखाधड़ी के इरादे से किया था इस मामले में, उक्त प्रावधानों के तहत आरोपी पर बैंक में अपने आधिकारिक पद का कथित रूप से दुरुपयोग करने का आरोप लगाया गया था और 1994 में उक्त खाते में अपर्याप्त धनराशि होने के बावजूद एक खाते से धन निकालने के लिए तीन बिना तारीख चेक पारित किए गए थे, और इस तरह अपने बहनोई, एक सह-आरोपी को फायदा पहुंचाने के लिए अनुचित अवधि बढ़ा दी गई थी।दूसरा आरोप यह था कि उसके द्वारा एफडीआर समय से पहले भुना लिया गया था। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए, बेंच ने निम्नलिखित नोट किया: पहला, बैंक को कोई वित्तीय नुकसान नहीं हुआ। दूसरा, रिकॉर्ड यह नहीं दर्शाता है कि बी सत्यजीत रेड्डी या बैंक के किसी अन्य ग्राहक को कोई आर्थिक नुकसान हुआ है। तीसरा, हमारे सामने सामग्री आरोपी व्यक्तियों के बीच किसी साजिश का खुलासा नहीं करती है। इसलिए, यह माना गया कि अभियुक्तों के खिलाफ साबित कोई भी कार्य 'आपराधिक कदाचार' नहीं है या धारा 409, 420 और 477-ए आईपीसी के दायरे में नहीं आता है। अपील की अनुमति देते हुए, अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष आरोपी के खिलाफ धारा 409, 420 और 477 ए के तहत आरोपों को उचित संदेह से परे साबित करने में विफल रहा है। 

केस : एन राघवेंद्र बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, सीबीआई उद्धरण: LL 2021 SC 734 मामला संख्या। और दिनांक: 2010 की सीआरए 5 | 13 दिसंबर 2021 पीठ: सीजेआई एनवी रमना, जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस हिमा कोहली


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Thursday, 17 July 2025

पेंशन संवैधानिक अधिकार, उचित प्रक्रिया के बिना इसे कम नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

पेंशन संवैधानिक अधिकार, उचित प्रक्रिया के बिना इसे कम नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व कर्मचारी को राहत प्रदान की, जिसकी पेंशन निदेशक मंडल से परामर्श किए बिना एक-तिहाई कम कर दी गई थी। तर्क दिया गया कि सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (कर्मचारी) पेंशन विनियम, 1995 ("विनियम") के तहत अनिवार्य है। न्यायालय ने दोहराया कि पेंशन कर्मचारी का संपत्ति पर अधिकार है, जो संवैधानिक अधिकार है, जिसे कानून के अधिकार के बिना अस्वीकार नहीं किया जा सकता, भले ही किसी कर्मचारी को कदाचार के कारण अनिवार्य रूप से रिटायर कर दिया गया हो।

बैंक के विनियम 33 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि निदेशक मंडल से पूर्व परामर्श के बिना पेंशन में कोई कमी नहीं की जाएगी तो न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता की पेंशन में एक-तिहाई की कटौती करने का बैंक का कार्य मनमाना और अनुचित था। अदालत ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि पेंशन नियोक्ता का विवेकाधिकार नहीं है, बल्कि संपत्ति का एक मूल्यवान अधिकार है। इसे केवल कानूनी अधिकार के माध्यम से ही अस्वीकार किया जा सकता है। जब किसी प्राधिकारी को पेंशन विनियमों के तहत स्वीकार्य पूर्ण पेंशन से कम पेंशन देने का विवेकाधिकार प्राप्त होता है तो कर्मचारी के पक्ष में पूर्व परामर्श सहित सभी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।"

कोर्ट अदालत ने आगे कहा, "विनियम 33 को सरलता से पढ़ने पर पता चलता है कि पूर्ण पेंशन से कम पेंशन देने का कार्य निदेशक मंडल के पूर्व परामर्श से किया जाना चाहिए। बैंक के सर्वोच्च प्राधिकारी, अर्थात् निदेशक मंडल के साथ इस प्रकार के पूर्व परामर्श को किसी कर्मचारी के पेंशन के संवैधानिक अधिकार में कटौती करने से पहले मूल्यवान अनिवार्य सुरक्षा उपाय के रूप में समझा जाना चाहिए। इन परिस्थितियों में निर्णय लेने से पहले बोर्ड के साथ पूर्व परामर्श के स्थान पर कार्योत्तर अनुमोदन नहीं लिया जा सकता।"

जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने एक अपीलकर्ता से जुड़े मामले की सुनवाई की, जिसे प्रक्रियात्मक मानदंडों का उल्लंघन करते हुए 12 आवास और बंधक ऋण स्वीकृत करने का दोषी पाया गया था, जिससे बैंक को ₹3.26 करोड़ का संभावित नुकसान हुआ था। सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया अधिकारी कर्मचारी सेवा विनियम के विनियम 20(3)(iii) के तहत शुरू की गई विभागीय जांच उसकी सेवानिवृत्ति के बाद भी जारी रही। उसे उसकी सेवानिवृत्ति तिथि (30.11.2014) से अनिवार्य रूप से रिटायर कर दिया गया था।


इसके बाद बैंक ने निदेशक मंडल से परामर्श किए बिना अपीलीय प्राधिकारी के माध्यम से उसकी पेंशन में एक-तिहाई की कटौती का आदेश दिया। पटना हाईकोर्ट ने इस कार्रवाई को बरकरार रखा, जिसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट का निर्णय रद्द करते हुए जस्टिस बागची द्वारा विनियम 33 के खंड (1) और (2) की व्याख्या करते हुए लिखे गए निर्णय में कहा गया कि यद्यपि खंड 1 के अंतर्गत उच्च प्राधिकारी को पूर्ण पेंशन के "दो-तिहाई से कम नहीं" पेंशन प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है, परंतु यदि कोई सक्षम प्राधिकारी (अनुशासनात्मक, अपीलीय, या पुनरीक्षण प्राधिकारी) पूर्ण पेंशन से कम पेंशन प्रदान करने का इरादा रखता है, तो उसे खंड 2 के अनुसार पहले निदेशक मंडल से परामर्श करना होगा। तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और हाईकोर्ट का आदेश तथा बैंक का पेंशन कटौती आदेश रद्द कर दिया गया।

 न्यायालय ने बैंक को निर्देश दिया कि वह अपीलकर्ता को सुनवाई का अवसर देते हुए और निदेशक मंडल से पूर्व अनुमोदन प्राप्त करते हुए, दो महीने के भीतर मामले पर पुनर्विचार करे। 

Cause Title: Vijay Kumar VERSUS Central Bank of India & Ors.

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/pension-a-constitutional-right-cant-be-reduced-without-proper-procedure-supreme-court-297827

Wednesday, 16 July 2025

हिंदू विधि के अनुसार, पैतृक संपत्ति और उसमें बंटवारा (partition) होने के बाद उसकी प्रकृति बदल जाती है

 हिंदू विधि के अनुसार, पैतृक संपत्ति और उसमें बंटवारा (partition) होने के बाद उसकी प्रकृति बदल जाती है?

🔹 क्या पैतृक संपत्ति (Ancestral Property) क्या होती है?

हिंदू कानून के अनुसार, कोई भी संपत्ति जिसे किसी व्यक्ति ने अपने पिता, दादा, परदादा या परपरदादा से उत्तराधिकार (by inheritance) में प्राप्त किया हो और जिसमें चार पीढ़ियों तक का अधिकार हो, तव वह पैतृक संपत्ति कहलाती है।

🔸 बंटवारे के बाद क्या होता है?

 जब पैतृक संपत्ति का विधिपूर्वक बंटवारा (partition) हो जाता है, तब:

✅ संपत्ति "पैतृक" नहीं रह जाती।

प्रत्येक हिस्सेदार (coparcener) को मिली संपत्ति उसके लिए स्वतंत्र (self-acquired जैसी) हो जाती है।

अब वह उसे बेच सकता है, दान कर सकता है, वसीयत कर सकता है, या किसी को भी दे सकता है।

उसमें उसके पुत्रों को स्वतः (by birth) कोई अधिकार नहीं होता, जैसा कि पैतृक संपत्ति में होता है।

मान लीजिए:

1. राम के पास एक पैतृक भूमि है।

2. उनके दो पुत्र हैं –पुत्र श्याम और पुत्र मोहन।

3. उन्होंने विधिपूर्वक 3 बराबर हिस्सों में (पिता राम, पुत्र श्याम, पुत्र मोहन) बंटवारा कर दिया।

अब: श्याम और मोहन को मिली संपत्ति उनके लिए पैतृक नहीं, व्यक्तिगत (separate) मानी जाएगी।

उनके बेटे (अगली पीढ़ी) उस हिस्से पर जन्मसिद्ध अधिकार (by birth right) का दावा नहीं कर सकते।

🔸 विशेष ध्यान दें: यदि बंटवारा केवल कागजों पर हुआ है, व्यवहारिक नहीं, तो कानूनी रूप से वह अभी भी पैतृक मानी जा सकती है।

यदि बंटवारा पूरी तरह निष्पादित (effected & accepted) हो चुका है, तो उसका पैतृक स्वरूप समाप्त हो जाता है।

✅ निष्कर्ष:

 हिंदू विधि के अनुसार, यदि पैतृक संपत्ति का विधिपूर्वक पूर्ण बंटवारा हो जाए, तो वह अब पैतृक संपत्ति नहीं रह जाती। बंटवारे के बाद मिली संपत्ति निजी संपत्ति (individual property) बन जाती है।

      इस संबंध में  सुप्रीम कोर्ट न्यायद्ष्टांत Angadi Chandranna v. Shankar & Ors. दिनांक 22 अप्रैल 2025 में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि बंटवारे के बाद पैतृक संपत्ति स्वयं‑अर्जित संपत्ति (self-acquired) बन जाती है।

 सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिपादित किया कि संयुक्त हिंदू परिवार (HUF) की संपत्ति का पंजीकृत बंटवारा होने के साथ ही प्रत्येक साझेदार (coparcener) का हिस्सा उसके स्व‑अर्जित संपत्ति में बदल जाता है।

इसके परिणामस्वरूप, वह हिस्सा बिक्रय, दान, या वसीयत किया जा सकता है, बिना किसी और सदस्य की अनुमति के । बंटवारे के बाद संपत्ति पर जन्मजात अधिकार नहीं रहे, और उसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त हो जाती है।

 सुप्रीम कोर्ट न्यायद्ष्टांत Shashidhar vs. Ashwini Uma Mathad दिनांक 8 जुलाई 2024 में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि: कोई भी संपत्ति जो विरासत या अंतरण के रूप में प्राप्त की जाती है, वह अनिवार्य रूप से coparcenary संपत्ति नहीं बन जाती। इसका अर्थ है, विरासत में मिली संपत्ति स्व‑अर्जित मानी जा सकती है यदि उसकी पारिवारिक रूप से संयुक्त स्वीकार्यता नहीं है ।

✅ निष्कर्ष – पैतृक संपत्ति एवं बंटवारा

1. यदि संपत्ति का कानूनी बंटवारा हो चुका है (पंजीकृत डीड या वादी आदेश द्वारा)

2. तो उस हिस्से को HUF के दायरे से बाहर माना जाता है,

3. और वह उसका मालिकाना हिस्सा स्व‑अर्जित संपत्ति में परिवर्तित हो जाता है—जिस पर पूर्ण स्वायत्तता होती है।



Saturday, 12 July 2025

पिता सामान्य जाती से ओर माता मात्र पिछड़ी एससी जाति की मां से पालन-पोषण होने पर भी जातीय उत्पीड़न न झेलने पर आरक्षण का लाभ नहीं

पिता सामान्य जाती से ओर माता मात्र पिछड़ी एससी जाति की मां से पालन-पोषण होने पर भी जातीय उत्पीड़न न झेलने पर आरक्षण का लाभ नहीं

बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक स्टूडेंट की याचिका खारिज करते हुए कहा कि यदि किसी अंतरजातीय विवाह से जन्मे बच्चे ने अपनी पिछड़ी जाति के माता-पिता के साथ रहते हुए भी कोई सामाजिक भेदभाव या अपमान का सामना नहीं किया है तो उसे उस जाति के तहत आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस डॉ. नीला गोखले की खंडपीठ ने सुजल मंगल बिरवडकर की याचिका खारिज की। याचिका में जिला जाति प्रमाण पत्र जांच समिति के 15 अप्रैल 2024 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता को चांभार (अनुसूचित जाति) के रूप में मान्यता देने से इनकार कर दिया गया था। Also Read - संदिग्ध को जीवन के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, राज्य और न्यायालयों का दायित्व है कि इसका उल्लंघन न हो: बॉम्बे हाईकोर्ट याचिकाकर्ता के पिता हिंदू अगरी (गैर-एससी जाति) और मां चांभार (एससी जाति) समुदाय से हैं। 2016 में माता-पिता का तलाक हो गया, जिसके बाद सुजल ने अपनी मां का उपनाम अपनाया और खुद को चांभार के रूप में पहचानने लगा। हालांकि जांच समिति ने पाया कि याचिकाकर्ता ने कभी अपनी मां की जाति के कारण कोई सामाजिक अपमान या वंचना नहीं झेली। अदालत ने कहा, “भले ही याचिकाकर्ता का पालन-पोषण उसकी मां ने अकेले किया हो लेकिन उसके जीवन में किसी भी तरह की वंचना दिखाई नहीं देती। याचिकाकर्ता ने अपने पिता की ऊंची जाति का लाभ उठाया और स्कूली जीवन में उसकी जाति हिंदू अगरी दर्ज रही। उसकी मां मुंबई पोर्ट सेंट्रल पुलिस में कार्यरत रहीं। रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे यह साबित हो कि याचिकाकर्ता की मां को कोई ऐसा अपमान झेलना पड़ा हो, जिसका असर याचिकाकर्ता पर पड़ा हो।” अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता को अच्छी शिक्षा मिली, उसके साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ और उसे जीवन में शुरू से ही बेहतर अवसर मिले। इस आधार पर अदालत ने याचिका खारिज कर दी। 

केस टाइटल: सुजल मंगल बिरवडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य [रिट याचिका क्र. 13016 / 2024]


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केवल पत्नी की दलीलों में दोष बताकर पति भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

*केवल पत्नी की दलीलों में दोष बताकर पति भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकता: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट*

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता-पति द्वारा दायर आपराधिक पुनर्विचार आवेदन खारिज करते हुए रेखांकित किया कि भरण-पोषण का दावा करने वाली निराश्रित पत्नी को केवल उसकी दलीलों में दोषों के आधार पर पीड़ित नहीं किया जा सकता है। पति ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसने सीआरपीसी की धारा 127 के तहत भरण-पोषण राशि कम करने के उसके आवेदन को खारिज कर दिया था। जस्टिस प्रेम नारायण सिंह की एकल न्यायाधीश पीठ ने *सुनीता कछवाहा एवं अन्य बनाम अनिल कछवाहा, (2015) मामले में सुप्रीम कोर्ट* के फैसले का जिक्र करने के बाद कहा कि भरण-पोषण के मामलों में 'अति तकनीकी रवैया' नहीं अपनाया जा सकता है।

अदालत ने आदेश में कहा, “…अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ निराश्रित पत्नी को केवल उसकी गलती के आधार पर प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के भरण-पोषण के मामलों में अति तकनीकी रवैया नहीं अपनाया जा सकता। ऐसे में याचिकाकर्ता इस बहाने से बच्चे और पत्नी के भरण-पोषण के दायित्व से नहीं बच सकती कि उसने अपनी दलीलों और मामले की कार्यवाही में कुछ गलती की।” सुनीता कछवाहा और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत कार्यवाही प्रकृति में सारांश है और ऐसी कार्यवाही के लिए पति और पत्नी के बीच वैवाहिक विवाद की बारीकियों का विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने तब सीआरपीसी की धारा 125 के तहत आवेदन में यह अंतिम निष्कर्ष निकाला था कि गलती किसकी है और किस हद तक अप्रासंगिक है।

मौजूदा मामले में सीआरपीसी की धारा 127 के तहत आवेदन को पहले *चतुर्भुज बनाम सीताबाई, (2008)* का हवाला देते हुए फैमिली कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया। फैमिली कोर्ट ने तब कहा था कि भले ही पत्नी परित्याग के बाद थोड़ी सी आय अर्जित करती है, लेकिन इसे इस आधार पर उसके गुजारा भत्ते को अस्वीकार करने के कारण के रूप में नहीं लिया जा सकता कि उसके पास अपनी आजीविका कमाने के लिए आत्मनिर्भर स्रोत है। पति ने तर्क दिया कि पत्नी वर्तमान में शिक्षक के रूप में काम कर रही है और वेतन के रूप में अच्छी रकम ले रही है। याचिकाकर्ता-पति ने यह भी तर्क दिया कि पत्नी ने दलीलों में जानबूझकर अपनी आय के बारे में विवरण छिपाया है।

चतुर्भज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि 'स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ' वाक्यांश का मतलब यह होगा कि परित्यक्त पत्नी को अपने पति के साथ रहने के दौरान साधन उपलब्ध होंगे और परित्याग के बाद पत्नी द्वारा किए गए प्रयासों को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा।” जस्टिस प्रेम नारायण सिंह ने कहा कि पत्नी की मुख्य जांच के दौरान उसने स्पष्ट रूप से कहा कि उसके पास आय का कोई साधन नहीं है, क्योंकि वह तब काम नहीं कर रही थी। अदालत ने कहा कि क्रॉस एक्जामिनेशन में इन बयानों का खंडन नहीं किया गया। पीठ ने आगे टिप्पणी की, केवल एमफिल की डिग्री के आधार पर प्रतिवादी-पत्नी अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है।

हालांकि याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि उसने अपनी इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ दी, इसलिए वह भारतीय महाविद्यालय, उज्जैन में कार्यरत अपनी पत्नी को भरण-पोषण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं है, हाईकोर्ट ने *शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015)* पर भरोसा करते हुए अपने विश्लेषण में मतभेद किया, जहां शीर्ष अदालत ने माना कि गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी से बचने के लिए पति द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति को माफ नहीं किया जा सकता है। जस्टिस प्रेम नारायण सिंह ने स्पष्ट किया, "उपरोक्त कानून के अनुसार, यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि भले ही याचिकाकर्ता ने नौकरी छोड़ दी हो, वह अपनी पत्नी और बच्चे के भरण-पोषण के लिए उत्तरदायी होगा।" अदालत ने *चंदर प्रकाश बोध राज बनाम शिला रानी चंद्र प्रकाश (1968)* मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के अनुपात पर भी संक्षेप में जोर दिया, जिसमें यह माना गया कि 'सक्षम युवा व्यक्ति को पर्याप्त पैसा कमाने में सक्षम माना जाना चाहिए, जिससे वह अपनी पत्नी और बच्चे का भरण-पोषण उचित ढंग से कर सके।' जहां तक मामले को फैमिली कोर्ट में वापस भेजने के संबंध में याचिका है, हाईकोर्ट ने कहा कि कार्यवाही के इस चरण में ऐसा कदम उचित नहीं होगा, खासकर जब दोनों पक्ष 2016 से मुकदमेबाजी में उलझे हुए हैं। हालांकि पक्षकार सीआरपीसी की धारा 127 के तहत किसी भी 'बदलते चरण' में ट्रायल कोर्ट से संपर्क करने का अधिकार है। सीआरपीसी की धारा 127 पति की परिस्थितियों में बदलाव के प्रमाण पर दिए जाने वाले भत्ते/भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण में बदलाव की बात करती है। वर्तमान याचिका ऐसे मामलों में हाईकोर्ट की पुनर्विचार शक्तियों को लागू करने के लिए पति द्वारा फैमिली कोर्ट एक्ट की धारा 19(4) आर/डब्ल्यू सीआरपीसी की धारा 397/401 के तहत दायर की गई। याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट पंकज सोनी और प्रतिवादी की ओर से एडवोकेट शन्नो शगुफ्ता खान उपस्थित हुईं। मामले की पृष्ठभूमि इससे पहले 2020 में फैमिली कोर्ट ने प्रतिवादी-पत्नी और विवाह से पैदा हुए बेटे को दिए जाने वाले भरण-पोषण की राशि को कम करने के लिए वर्तमान पुनर्विचार याचिकाकर्ता द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया था, यानी उनमें से प्रत्येक के लिए क्रमशः 7000/- रुपये और 3000/- रुपये। 2014 में विवाह संपन्न होने के बाद में पति और पत्नी के बीच कुछ विवाद के कारण वे अलग रहने लगे और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत दायर आवेदन के अनुसार फैमिली कोर्ट द्वारा 2018 में उपरोक्त भरण-पोषण राशि प्रदान की गई।


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