Tuesday, 13 July 2021

भूमि संबंधी समझौता डिक्री जो वाद का विषय नहीं है, लेकिन परिवारिक समझौते का हिस्सा है, तो अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है: सुप्रीम कोर्ट 13 July 2021

 भूमि संबंधी समझौता डिक्री जो वाद का विषय नहीं है, लेकिन परिवारिक समझौते का हिस्सा है, तो अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है: सुप्रीम कोर्ट 13 July 2021

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भूमि के संबंध में एक समझौता डिक्री, जो मुकदमे की विषय-वस्तु नहीं है, लेकिन परिवार के सदस्यों के बीच समझौते का हिस्सा है, उसके लिए अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता नहीं होती है। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने कहा कि भूमि के संबंध में पक्षों के बीच समझौता डिक्री, जो मुकदमे की विषय वस्तु नहीं है, वैध और कानूनी समझौता है। इस मामले में, उच्च न्यायालय ने इस आधार पर एक मुकदमे को खारिज कर दिया था कि एक भूमि जो समझौते की विषय-वस्तु होने के बावजूद, मुकदमे की विषय-वस्तु नहीं थी और इसलिए डिक्री को पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(2)(vi) के तहत पंजीकरण की आवश्यकता थी। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील में मुद्दा यह था कि भूमि के संबंध में एक समझौता डिक्री, जो वाद की विषय-वस्तु नहीं है, लेकिन परिवार के सदस्यों के बीच समझौते का हिस्सा है, क्या उसके लिए पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(2)(vi) के तहत अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता है? 

 धारा 17(1) उन दस्तावेजों की सूची प्रदान करती है जिनका पंजीकरण अनिवार्य है। धारा 17(2) (vi) स्पष्ट करती है कि यह अनिवार्य पंजीकरण का नियम किसी न्यायालय के किसी डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होता है, [केवल उस डिक्री या आदेश को छोड़कर, जो एक समझौते पर किए जाने के लिए व्यक्त किया गया है और इसमें वह अचल संपत्ति शामिल है जो मुकदमे या कार्यवाही की विषय-वस्तु से इतर है।] बेंच ने इस कानून के प्रावधानों और इस संबंध में पूर्व के दृष्टांतों का उल्लेख करते हुए कहा :

 एक पीड़ित व्यक्ति घोषणा के लिए एक मुकदमे में पारिवारिक समझौते को लागू करने की मांग कर सकता है, जहां परिवार के सदस्यों के पास संपत्ति में अधिकार का आभास होता है या संपत्ति में पहले से मौजूद कोई अधिकार। *परिवार के सदस्य सिविल कोर्ट के समक्ष कार्यवाही लंबित होने के दौरान भी समझौते कर सकते हैं। ऐसा समझौता परिवार के सदस्यों के भीतर बाध्यकारी होगा।* यदि एक दस्तावेज को अमल में लाने की मांग की जाती है जिसे एक डिक्री द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है, तो पंजीकरण अधिनियम 1908 की धारा 17 की उप-धारा 2 के खंड (v) का प्रावधान लागू होगा। हालांकि, जहां पारिवारिक संपत्ति के संबंध में डिक्री जारी की गई है, वहां पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 की उप-धारा 2 का खंड (vi) लागू होगा। यह सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि पारिवारिक समझौता केवल उन अधिकारों की घोषणा करता है जो पहले से ही पार्टियों के पास मौजूद हैं।"  सर्वोत्तम खिलाड़ी को टेंडर पीठ ने आगे कहा कि 'भूप सिंह बनाम राम सिंह मेजर' मामले में, यह माना गया था कि 100 रुपये या उससे अधिक मूल्य की अचल संपत्ति में नया अधिकार, शीर्षक या ब्याज निर्धारित करने वाली समझौता डिक्री सहित डिक्री या आदेश के लिए पंजीकरण अनिवार्य है। पीठ ने कहा कि यह मामला पहले से मौजूद किसी अधिकार का नहीं, बल्कि उस अधिकार का था जो केवल डिक्री द्वारा दिया गया था। कोर्ट ने अपील मंजूर करते हुए कहा, "17.  *'भूप सिंह' के मामले में कानून की स्थापना के मद्देनजर, हम पाते हैं कि उच्च न्यायालय का वह निर्णय और डिक्री कानून की नजर में गलत है, जिसमें उसने कहा है कि डिक्री को अनिवार्य रूप से पंजीकृत कराने की आवश्यकता है।*  समझौता *दोनों भाइयों के बीच समझौता उनके पिता की मृत्यु के परिणामस्वरूप हुआ था और पहली बार कोई अधिकार नहीं दिया जा रहा था, इस प्रकार इसमें अनिवार्य पंजीकरण की आवश्यकता नहीं थी।* नतीजतन, अपील मंजूर की जाती है और सूट का फैसला किया जाता है।" 27 जुलाई को सुनवाई केस : रिपुदमन सिंह बनाम टिक्का महेश्वर चंद [सीए 2336 / 2021] कोरम : न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता साइटेशन : एलएल 2021 एससी 293


Thursday, 8 July 2021

धारा 428 (सीआरपीसी) – दोषसिद्धि से पहले की हिरासत अवधि को सजा से कम करने का प्रावधान उम्रकैदियों के लिए भी लागू : मद्रास हाईकोर्ट 8 July 2021

 

*धारा 428 (सीआरपीसी) – दोषसिद्धि से पहले की हिरासत अवधि को सजा से कम करने का प्रावधान उम्रकैदियों के लिए भी लागू : मद्रास हाईकोर्ट 8 July 2021*

मद्रास हाईकोर्ट ने गत सोमवार को व्यवस्था दी कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 428 के तहत दोषसिद्धि से पहले काटी गयी हिरासत अवधि को सजा से घटाने का प्रावधान आजीवन कारावास भुगत रहे अपराधियों के लिए भी लागू होगा। हाईकोर्ट ने कहा है कि आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे अपराधी द्वारा जांच, पूछताछ अथवा ट्रायल के दौरान भुगती गयी हिरासत अवधि को दोषसिद्धि के बाद घोषित सजा में से कम किये जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। Also Read - वैवाहिक क्रूरता : आखिर पुलिस क्यों महिला को उसके पति के घर वापस जाने के लिए मजबूर कर रही है?', इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पुलिस अधीक्षक से जवाब मांगा न्यायमूर्ति एम एम सुन्दरेश और न्यायमूर्ति आर एन मंजूला की बेंच एक फरवरी 2018 के मद्रास सरकारी आदेश के मद्देनजर आजीवन कारावास की सजा काट रहे अपराधियों की समय से पहले रिहाई की मांग को लेकर बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉरपस) याचिकाओं पर विचार कर रही थी। पृष्ठभूमि इस मामले में सत्र अदालत ने एक अभियुक्त को आईपीसी की धारा 302 (हत्या) और 392 (डकैती) के तहत आने वाले अपराधों का दोषी पाया था और तदनुसार, क्रमश: आजीवन कारावास और 10 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनायी थी।  एक फरवरी, 2018 को मद्रास गवर्नमेंट ने एक आदेश जारी किया था जिसके तहत तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. एम. जी. रामचंद्रन की 100वीं जयंती के अवसर पर अपराधियों की समय-पूर्व रिहाई की अनुमति दी गयी थी। संबंधित आदेश के अनुरूप राहत के लिए आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे उन्हीं लोगों को पात्र बताया गया था जिन्होंने दो फरवरी 2018 को वास्तविक तौर पर 10 साल जेल की सजा काट ली थी। तदनुसार, अभियुक्त की पत्नी ने हाईकोर्ट की एकल पीठ के समक्ष याचिका दायर की थी और उपरोक्त सरकारी आदेश के दायरे में समय पूर्व रिहाई के पात्र कैदियों की सूची में अपने पति का नाम भी शामिल करने की मांग की थी। हालांकि एकल बेंच ने सात जनवरी 2019 के आदेश के जरिये इस अनुरोध को इस आधार पर ठुकरा दिया था कि अभियुक्त ने 10 वर्ष की अनिवार्य सजा काटने के बजाय 25 फरवरी 2018 तक नौ साल 24 दिन की ही वास्तविक सजा पूरी की थी।  परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट की एकल बेंच के समक्ष एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गयी थी और 15 नवम्बर, 2019 के आदेश के जरिये हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की पत्नी को राहत प्रदान करने की अनुमति दी थी। मौजूदा मामले में एकल बेंच के आदेश के खिलाफ अपील दायर की गयी है। टिप्पणियां : सीआरपीसी की धारा 428 की न्यायिक व्याख्या की जांच करने के क्रम में कोर्ट ने 'भागीरथ एवं अन्य बनाम दिल्ली सरकार' मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का उल्लेख किया, जहां इस बात की पुष्टि की गयी थी कि सीआरपीसी की धारा 428 उन मामलों पर भी लागू है जहां अपराधी को आजीवन कारावास की सजा दी गयी है। इस तरह के निर्णय के क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने उस तथ्य का संज्ञान लिया था कि बड़ी संख्या में ऐसे मामले, जिनमें अभियुक्त लंबे समय तक विचाराधीन कैदी के तौर पर कैद में रहते हैं, वे उम्रकैद की सजा वाले मामले होते हैं।  सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "उन्हें धारा 428 के लाभ से वंचित करना, ऐसे उन अधिकांश मामलों से इस उदार प्रावधान को वापस लेना है, जिनमें इस तरह के लाभ की आवश्यकता होगी और जहां यह न्यायोचित भी होगा।" इतना ही नहीं, कोर्ट ने 'कुमार बनाम तमिलनाडु सरकार' मामले में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले में आदेश पर भी भरोसा जताया, जिसने यह कहा था कि उम्रकैद की सजा पाये अपराधी को भी सीआरपीसी की धारा 428 का लाभ मिल सकता है और तदनुसार, जेल अधिकारियों के लिए अनिवार्य है कि वे ऐसे अपराधियों की समय से पहले रिहाई सुनिश्चित करने के लिए दोषसिद्धि से पहले हिरासत में बिताई अवधि का ब्योरा उपलब्ध करायें। कोर्ट ने उपरोक्त फैसलों को उचित श्रेय देते हुए व्यवस्था दी, "इस प्रकार, उपरोक्त आदेशों के आलोक में और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 428 में निहित प्रावधानों का संज्ञान लेते हुए हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि 'सेट ऑफ' का प्रावधान उम्रकैद की सजा पाये व्यक्ति के लिए लागू होगा।" तदनुसार, कोर्ट ने निचली अदालत को यह निर्देश देते हुए अपील ठुकरा दी कि वह उम्रकैद की सजा पाये संबंधित व्यक्ति की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए प्रोबेशन ऑफिसर और अन्य जेल अधिकारियों से रिपोर्ट हासिल करे। केस टाइटल : गृह सचिव बनाम ए. पलानीस्वामी उर्फ पलानीअप्पन

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/section-428-crpc-set-off-of-pre-conviction-detention-is-permissible-even-for-life-convicts-madras-high-court-177050

Wednesday, 7 July 2021

अपराध में इस्तेमाल हथियार की बरामदगी दोषसिद्धि के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है: सुप्रीम कोर्ट 7 July 2021

 

*अपराध में इस्तेमाल हथियार की बरामदगी दोषसिद्धि के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है: सुप्रीम कोर्ट 7 July 2021*

सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक अभियुक्त की दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए कहा कि एक आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अपराध में इस्तेमाल किए गए हथियार की बरामदगी अनिवार्य शर्त नहीं है। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह की खंडपीठ ने कहा कि मामूली विरोधाभास जो मामले की तह तक नहीं जाते हैं और/या वैसे विरोधाभास जो वास्तविक विरोधाभास न हों, तो ऐसे गवाहों के साक्ष्य को खारिज नहीं किया जा सकता और/या उस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। इस मामले में अभियुक्त को 28 जनवरी 2006 को हुई एक घटना में भीष्मपाल सिंह की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (धारा 34 के साथ पठित) के तहत दोषी ठहराया गया था। अपील में अभियुक्त की ओर से मुख्य दलील यह थी कि फॉरेंसिक बैलेस्टिक रिपोर्ट के अनुसार, घटनास्थल से प्राप्त गोली बरामद अग्नेयास्त्र/बंदूक के साथ मेल नहीं खाती है, इसलिए कथित बंदूक के इस्तेमाल की बात संदेहास्पद है। अत: संदेह का लाभ संबंधित अभियुक्त को दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने उक्त दलील खारिज करते हुए कहा, "अधिक से अधिक, यह कहा जा सकता है कि पुलिस द्वारा आरोपी से बरामद बंदूक का इस्तेमाल हत्या के लिए नहीं किया गया हो सकता है और इसलिए हत्या के लिए इस्तेमाल किए गए वास्तविक हथियार की बरामदगी को नजरअंदाज किया जा सकता है और इसे माना जा सकता है कि कोई बरामदगी हुई ही नहीं, लेकिन एक आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अपराध में इस्तेमाल किए गए हथियार की बरामदगी एक अनिवार्य शर्त नहीं है। जैसा कि ऊपर देखा गया है कि अभियोजन पक्ष के गवाह संख्या 1 और 2 (पीडब्ल्यू1 और पीडब्ल्यू2) इस घटना के विश्वसनीय और भरोसेमंद चश्मदीद हैं और उन्होंने खासतौर पर कहा है कि अभियुक्त संख्या-1 राकेश ने अपने बंदूक से गोली चलायी थी और तब मृतक घायल हो गया था। बंदूक से घायल होने का तथ्य मेडिकल साक्ष्य तथा पीडब्ल्यू 5- संतोष कुमार की गवाही से भी स्थापित और साबित हो चुका है। इंज्यूरी नंबर-1 बंदूक की गोली की है। इसलिए अभियोजन पक्ष के गवाह 1 और 2 की नजर के सामने घटित विश्वसनीय घटना को खारिज करना संभव नहीं है, जिन्होंने गोली चलते देखी थी। पीडब्ल्यू1 और पीडब्ल्यू2 के बयान की विश्वसनीयता पर कोई प्रश्न नहीं है कि अभियुक्त संख्या 1 ने मृतक को गोली मारी थी, खासकर तब जब शरीर में गोली पाये जाने से यह स्थापित हो चुका है और इसकी पुष्टि पीडब्ल्यू2 और पीडब्ल्यू5 की गवाही से भी हो चुकी है। इसलिए, महज बैलिस्टिक रिपोर्ट में यह प्रदर्शित किये जाने से कि शरीर से निकली गोली बरामद की गयी बंदूक से नहीं मेल खाती है, पीडब्ल्यू1 और पीडब्ल्यू2 की विश्वसनीय और भरोसेमंद गवाही को खारिज करना संभव नहीं है।" कोर्ट ने आगे कहा कि सम्पूर्ण साक्ष्य को रिकॉर्ड में लाये गये अन्य साक्ष्यों के साथ समग्रता से विचार किया जाना चाहिए। केवल एक लाइन यहां और वहां से उठाकर तथा क्रॉस एक्जामिनेशन के दौरान बचाव पक्ष की ओर से पूछे गये सवाल पर ही अकेले विचार नहीं किया जा सकता। बेंच ने दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए कहा : "दोनों गवाहों को पूरी तरह से और बखूबी जिरह की चुकी है। हो सकता है कुछ मामूली विरोधाभास हों, लेकिन जैसा कि इस कोर्ट ने अपने निर्णयों की श्रृंखला में व्यवस्था दी हुई है, मामूली विरोधाभास जो मामले की तह तक नहीं जाते हैं और/या वैसे विरोधाभास जो वास्तविक विरोधाभास न हों, तो ऐसे गवाहों के साक्ष्य को खारिज नहीं किया जा सकता और/या उस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता।" केस : राकेश बनाम उत्तर प्रदेश सरकार [क्रिमिनल अपील 556/2021] कोरम : न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह साइटेशन : एलएल 2021 एससी 282

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/recovery-of-weapon-used-in-commission-of-offence-is-not-a-sine-qua-non-for-conviction-supreme-court-176990?infinitescroll=1

कैविएट दाखिल करने से ही आवेदनकर्ता को कार्यवाही में एक पक्षकार के रूप में माने जाने का अधिकार नहीं मिलता : सुप्रीम कोर्ट 7 July 2021

 कैविएट दाखिल करने से ही आवेदनकर्ता को कार्यवाही में एक पक्षकार के रूप में माने जाने का अधिकार नहीं मिलता : सुप्रीम कोर्ट 7 July 2021 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कैविएट दाखिल करने से ही आवेदनकर्ता को कार्यवाही में एक पक्षकार के रूप में माने जाने का अधिकार नहीं मिलता है। न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस ने सेंट्रल इंडियन पुलिस पुलिस सर्विस एसोसिएशन की एक विशेष अनुमति याचिका में उनके द्वारा दायर कैविएट आवेदनों के आधार पर हस्तक्षेप करने की याचिका पर विचार करते हुए इस प्रकार कहा। हालांकि, एसोसिएशन ने उच्च न्यायालय के समक्ष पक्ष या हस्तक्षेप के लिए कोई आवेदन दायर नहीं किया था, लेकिन मामले में उनकी सुनवाई हुई थी। न्यायाधीश ने उन्हें हस्तक्षेप आवेदन दायर करने की स्वतंत्रता देते हुए कहा, "जबकि कैविएटर के रूप में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XV के खंड 2 के अनुसार एसएलपी के दाखिल होने के बारे में अधिसूचित होने का अधिकार है, केवल कैविएट आवेदन दाखिल करने से उन्हें विशेष अनुमति के लिए अपील याचिका में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती है।कैविएट दाखिल करने से उन्हें कार्यवाही में एक पक्ष के रूप में व्यवहार करने का अधिकार नहीं मिलता है।" अदालत ने भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) से संबंधित अधिकारियों के पांच सेटों द्वारा दायर याचिकाओं को भी अनुमति दी। एसएलपी केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) , सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के समूह ए अधिकारियों द्वारा लाई गई पांच रिट याचिकाओं में दिल्ली उच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच द्वारा दिए गए एक सामान्य निर्णय से उत्पन्न हुई है। अदालत ने कहा कि अपील करने के लिए विशेष अनुमति के लिए पांच याचिकाओं के अंतिम परिणाम पर आवेदक पर्याप्त रुचि प्रदर्शित करने में सक्षम हैं। इस निर्णय में, उच्च न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए थे: (I) प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के सदस्यों को अनुमति देकर, यदि ऐसा है तो, योग्यता संवर्ग संरचना, निवास, प्रतिनियुक्ति आदि सहित प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के संबंधित भर्ती नियमों में संशोधन के लिए गृह मंत्रालय को व्यापक प्रतिनिधित्व करने के लिए। (II) गृह मंत्रालय को डीओपीटी के दिनांक 31 दिसंबर, 2010 और 8 मई, 2018 के कार्यालय ज्ञापनों के अनुपालन में निर्देश देकर, प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के मौजूदा भर्ती नियमों की समीक्षा के लिए तुरंत अभ्यास करने, केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के सदस्यों से प्राप्त अभ्यावेदन, यदि कोई हो, इसे भी ध्यान में रखते हुए और उन्हें सुनवाई का अवसर देने के बाद और इस संबंध में अपना निर्णय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के समक्ष रखने के लिए । (III) कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को निर्देश देते हुए कि संबंधित केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के भर्ती नियमों की समीक्षा के लिए गृह मंत्रालय से निर्णय प्राप्त होने पर तत्काल उस पर आवश्यक कार्रवाई करें; (IV) याचिकाकर्ताओं को कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के लिए प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के लिए व्यापक प्रतिनिधित्व की अनुमति देकर , वर्ष 2021 में होने वाली कैडर समीक्षा के लिए, जिसमें संदर्भ की शर्तें यदि कोई हों, शामिल हैं। (V) कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को वर्ष 2021 में देय कैडर समीक्षा अभ्यास की समय पर शुरुआत सुनिश्चित करने के लिए और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के लिए कैडर समीक्षा के संदर्भ में, प्रतिनिधित्व को शामिल करने पर विचार करने के लिए, यदि प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के सदस्यों द्वारा कोई भी दिया गया हो और प्रत्येक केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल के भर्ती नियमों की समीक्षा के लिए गृह मंत्रालय का निर्णय। (VI) यह निर्देश देते हुए कि पूर्वोक्त संपूर्ण अभ्यास 30 जून, 2021 को या उससे पहले समाप्त हो जाए। केस: संजय प्रकाश बनाम भारत संघ पीठ : न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस उद्धरण : LL 2021 SC 283


Saturday, 3 July 2021

'निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143A के तहत अंतरिम मुआवजा निर्देशिका है, विवेकाधीन नहीं है': छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 3 July 2021

 *'निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143A के तहत अंतरिम मुआवजा निर्देशिका है, विवेकाधीन नहीं है': छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 3 July 2021*

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने माना कि मुआवजे के लिए नेगोशिएबल इंस्ट्रयूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 143A एक निर्देशिका है और विवेकाधीन नहीं है। जस्टिस नरेंद्र कुमार व्यास की सिंगल जज बेंच ने देखा कि एनआईए एक्ट की धारा 143A में संशोधन ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के फैसले को बरकरार रखा, जिसने चेक राशि का 20% मुआवजा दिया। मामले यह है कि याचिकाकर्ता के खिलाफ उक्त कानून की धारा 138 के तहत अपर्याप्त धनराशि के कारण चेक अनादरित होने का आरोप लगाते हुए एक शिकायत दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता ने अंतरिम मुआवजे के लिए एनआई एक्ट की धारा 143A के तहत एक आवेदन दायर किया। यह तर्क दिया गया कि यदि आरोप तय किए गए हैं, तो चेक राशि के 20% की सीमा तक अंतरिम मुआवजे का आदेश दिया जा सकता है। न्यायिक दंडाधिकारी ने परिवादी के पक्ष में उक्त मुआवजा मंजूर कर लिया। याचिकाकर्ता ने बाद में एक पुनरीक्षण याचिका के जरिए फैसले को चुनौती दी, जिसे खारिज कर दिया गया और बाद में न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इसकी पुष्टि की। याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि मुआवजे के अनुदान के लिए 1881 अधिनियम की धारा 143A का संशोधित प्रावधान अंतरिम मुआवजे को अनिवार्य नहीं करता है; यह विवेकाधीन है क्योंकि 'सकते हैं' शब्द का प्रयोग किया गया है। याचिकाकर्ता की दलील एलजीआर एंटरप्राइजेज और अन्य बनाम अब्बाझगन पर निर्भर करती है, जहां मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि अंतरिम मुआवजे के आदेश के साथ ट्रायल कोर्ट में निहित विवेकाधीन शक्ति को कारणों से समर्थित किया जाना चाहिए। न्यायालय ने 1881 अधिनियम की संशोधित धारा 143ए के उद्देश्यों पर दृढ़ विश्वास रखा और कहा, "अधिनियम, 1881 की धारा 143A के अवलोकन से, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह सुनिश्चित करने के लिए अंतरिम उपाय प्रदान करके अधिनियम में संशोधन किया गया है कि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप साबित होने से पहले अंतरिम अवधि में शिकायतकर्ता के हित को बरकरार रखा जाए। इसके पीछे की मंशा अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान शिकायतकर्ता को सहायता प्रदान करने का प्रावधान है, जहां वह पहले से ही चेक के अनादर द्वारा प्राप्तियों के नुकसान की दोधारी तलवार और दावे को आगे बढ़ाने में बाद में कानूनी लागतों का सामना कर रहा है।" न्यायालय ने माना कि 'सकते हैं' शब्द के प्रयोग को 'होगा' के रूप में माना जा सकता है; शिकायतकर्ता के लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाएगा क्योंकि वह पीड़ित है। अदालत ने कहा कि यह शिकायतकर्ता और आरोपी के हित में है यदि आरोपी द्वारा चेक राशि का 20% भुगतान किया जाता है। यह देखा गया कि "वह (आरोपी) अपने उद्देश्य के लिए इसका उपयोग करने में सक्षम हो सकता है, जबकि आरोपी सुरक्षित पक्ष में होगा क्योंकि अधिनियम, 1881 की धारा 143A के तहत पारित आदेश के अनुसार राशि पहले ही जमा कर दी गई है। जब उसके खिलाफ अं‌तिम फैसला सुनाया गया, उसे निचले हिस्से में भत्ते का भुगतान करना होगा।"

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/interim-compensation-under-s143a-of-negotiable-instruments-act-is-directory-not-discretionary-chhattisgarh-high-court-176794?infinitescroll=1

Monday, 14 June 2021

138 एनआई एक्ट- डिमांड नोटिस की तामील की तारीख का उल्लेख नहीं करना केस के लिए घातक नहीं है: इलाहाबाद हाईकोर्ट 15 Jun 2021

138 एनआई एक्ट- डिमांड नोटिस की तामील की तारीख का उल्लेख नहीं करना केस के लिए घातक नहीं है: इलाहाबाद हाईकोर्ट 15 Jun 2021*

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत चेक के अनादर की शिकायत को केवल इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसमें उस तारीख का उल्लेख नहीं है, जिस पर कथित डिफॉल्टर/ड्रॉअर को डिमांड नोटिस तामील किया गया था। ज‌स्ट‌िस विवेक वर्मा की सिंगल बेंच ने अपने फैसले में कहा, "शिकायत को चौखट पर नहीं फेंका जा सकता है, भले ही वह किसी दी गई तारीख पर नोटिस की तामील के संबंध में कोई विशिष्ट दावा न करे। शिकायत में, हालांकि, चेक के आहर्ता को नोटिस जारी करने के तरीके और ढंग के बारे में बुनियादी तथ्य शामिल होने चाहिए। " कोर्ट ने उक्त फैसले के लिए सीसी अलवी हाजी बनाम पलापेट्टी मुहम्मद और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जहां यहां निर्धारित किया गया था कि अभियुक्त को नोटिस तामील करने के बारे में शिकायत में अभिकथन का अभाव साक्ष्य का विषय है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "जब नोटिस चेक के आहर्ता को सही ढंग से संबोधित करते हुए पंजीकृत डाक द्वारा भेजा जाता है, तो अधिनियम की धारा 138 के प्रावधान के खंड (बी) के अनुसार नोटिस जारी करने की अनिवार्य आवश्यकता का अनुपालन किया जाता है ... यह तब आहर्ता पर है कि नोटिस की तामील के बारे में धारणा का खंडन करे और यह दिखाए कि उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि नोटिस उसके पते पर आई थी या कि कवर पर उल्लिखित 5 पता गलत था या कि पत्र कभी नहीं दिया गया था या डाकिया की रिपोर्ट गलत थी।" इसी तरह, सुबोध एस सालस्कर बनाम जयप्रकाश एम शाह और अन्य में, यह माना गया था कि कोई भी आहर्ता जो दावा करता है कि उसे डाक द्वारा भेजा गया नोटिस प्राप्त नहीं हुआ, अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत के संबंध में अदालत से सम्मन प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर चेक राशि का भुगतान करे और अदालत को प्रस्तुत करें कि उसने सम्मन प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान किया था (सम्‍मन के साथ शिकायत की एक प्रति प्राप्त करके) और इसलिए, शिकायत अस्वीकार किए जाने योग्य है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "एक व्यक्ति जो अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत की प्रति के साथ अदालत से सम्मन प्राप्त होने के 15 दिनों के भीतर भुगतान नहीं करता है, वह स्पष्ट रूप से यह नहीं कह सकता कि नोटिस की कोई उचित तामील नहीं थी।" . इस पृष्ठभूमि में, हाईकोर्ट की स‌िंगल बेंच ने माना है कि सम्मन के चरण में, मजिस्ट्रेट को केवल यह देखना होता है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। "नोटिस की विवादित तामील के तथ्य के लिए साक्ष्य के आधार पर निर्णय की आवश्यकता होती है और वही केवल ट्रायल कोर्ट द्वारा किया और सराहा जा सकता है, न कि इस न्यायालय द्वारा धारा 482 सीआरपीसी द्वारा प्रदत्त अधिकार क्षेत्र के तहत।" बेंच ने यह भी फैसला सुनाया कि अलीजान बनाम यूपी और अन्य राज्य के मामले में उच्च न्यायालय का फैसला, जिसे आवेदक ने उद्धृत किया है, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में लंबित धारा 138 के तहत आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग करना, सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णयों के मद्देनजर अच्छा कानून नहीं है। आवेदक ने तर्क दिया था कि चूंकि नोटिस की तामील 19.09.2012 की तिथि का उल्लेख नहीं किया गया है, जिस तिथि से शिकायतकर्ता द्वारा आवेदक के खिलाफ वर्तमान शिकायत दर्ज करने के लिए कार्रवाई का कारण निर्धारित नहीं किया जा सकता है। अन्यथा, यह भी कहा गया था कि 02.11.2012 की दूसरी नोटिस के शिकायत के आधार पर अधिनियम के प्रावधानों के तहत कानूनी रूप से सुनवाई योग्य नहीं थी। इस तर्क को खारिज करते हुए, सिंगल बेंच ने फैसला सुनाया कि विचाराधीन शिकायत दर्ज करने की कार्रवाई का कारण अधिनियम की धारा 138 के प्रावधान के खंड (सी) के तहत दिनांक 19.09.2012 को पहला नोटिस भेजने से पैदा हुआ, न कि नोटिस 02.11.2012 की नोटिस से, जैसा कि दूसरा नोटिस दिनांक 02.11.2012 का नोटिस चेक के आहर्ता के लिए केवल रिमाइंडर नोटिस है और इस तरह, इसे शिकायतकर्ता द्वारा पहली सूचना की गैर-सेवा के प्रवेश के रूप में नहीं माना जा सकता है। "दूसरे नोटिस की कोई प्रासंगिकता नहीं है, दूसरे नोटिस को प्रतिवादी के दायित्व के निर्वहन के लिए एक रिमाइंडर माना जाएगा।" [एन परमेश्वरन उन्नी बनाम जी कन्नन और अन्य]। केस टाइटिल: अनिल कुमार गोयल बनाम यूपी राज्य और अन्य।

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/section-138-ni-act-not-mentioning-date-of-service-of-demand-notice-is-not-fatal-to-case-allahabad-high-court-175715?infinitescroll=1

वरिष्ठ नागरिक अधिनियम – 'यदि जारी डीड विचार के लिए है तो धारा 23 को लागू नहीं किया जा सकता': कर्नाटक हाईकोर्ट 14 Jun 2021

 *वरिष्ठ नागरिक अधिनियम – 'यदि जारी डीड विचार के लिए है तो धारा 23 को लागू नहीं किया जा सकता': कर्नाटक हाईकोर्ट* 14 Jun 2021 


 कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि यदि संपत्ति का ट्रांसफर स्वाभाविक प्रेम और स्नेह से नहीं बल्कि विचार के लिए है तो एक वरिष्ठ नागरिक माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम (Maintenance And Welfare of parents and senior citizens act), 2007 की धारा 23 के तहत शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति हेमंत चंदनगौदर की एकल पीठ ने सहायक आयुक्त (धारवाड़) द्वारा पारित आदेश दिनांक 26/6/2020 को चुनौती देने वाले दो चिकित्सकों द्वारा दायर याचिका की अनुमति दी, जिसके तहत 11/7/2018 को डीड जारी किया गया और प्रतिवादी संख्या 2 (सुमा) द्वारा याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निष्पादित करना था उसे रद्द कर दिया गया। पृष्ठभूमि प्रतिवादी संख्या 2, जो नागरकर कॉलोनी, महिषी रोड, धारवाड़ में स्थित संख्या एचवाईजी 307/2 नगर संख्या एचडीएमसी 12776 वाली संपत्ति का मालिक है, ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में संपत्ति जारी करते हुए एक डीड जारी करके निष्पादित किया और उक्त जारी डीड के तहत दूसरे प्रतिवादी को 8,30,000 रुपये और प्रतिवादी संख्या 2 की बहन को 1,70,000 रुपये के भुगतान किया जाना था। जारी डीड निष्पादित करने और राशि की प्राप्ति को स्वीकार करने के बाद दूसरे प्रतिवादी ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 23 के तहत एक याचिका दायर कर जारी डीड को रद्द करने की मांग की, जिसमें कहा गया कि याचिकाकर्ता प्रतिवादी संख्या 2 को बनाए रखने में विफल रहे। अधिनियम की धारा 23 के तहत शक्ति का प्रयोग करने वाले प्रथम प्रतिवादी ने इस आधार पर जारी डीड को रद्द करने का आदेश पारित किया कि इसे जबरदस्ती और मिथ्या द्वारा निष्पादित किया गया है। याचिकाकर्ताओं की प्रस्तुति वरिष्ठ अधिवक्ता गुरुदास कन्नूर ने प्रस्तुत किया कि अधिनियम की धारा 23 का प्रावधान इस मामले के तथ्यों पर लागू नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई खंड नहीं है जो याचिकाकर्ताओं को प्रतिवादी नंबर 2 के रखरखाव के लिए कहता है और साथ ही संपत्ति को याचिकाकर्ताओं के पक्ष में भुगतान के विचार के अधीन जारी किया गया। प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा पारित आदेश कानून के अधिकार के तहत नहीं है। एडवोकेट गुरुदास कन्नूर ने WP संख्या 52010/2015 (डीडी 26.2.2019) में कर्नाटक उच्च न्यायालय की समन्वय पीठ के निर्णय और शुभाषिनी बनाम जिला कलेक्टर, कोझिकोड मामले में केरल उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के निर्णय पर भरोसा जताया। प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा याचिका का विरोध प्रतिवादी 2 के वकील ने प्रस्तुत किया कि शर्त के अभाव में भी हस्तांतरी (Transferee) हस्तांतरणकर्ता (Transferor) को बुनियादी सुविधाएं और भौतिक आवश्यकताएं प्रदान करेगा और प्रतिवादी संख्या 1 ऐसी स्थिति के अभाव में अधिनियम की धारा 23 के तहत शक्ति का प्रयोग करके जारी डीड को शून्य घोषित कर सकता है। रक्षा देवी बनाम था। सीडब्ल्यूपी में उपायुक्त-सह-जिला मजिस्ट्रेट, होशियारपुर और अन्य 5086/2016 मामले में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले पर भरोसा जताया गया। कोर्ट का अवलोकन कोर्ट ने प्रतिवादी संख्या 2 द्वारा रक्षा देवी मामले में दिए गए निर्णय पर जताए गए भरोसा और केरल उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने सुभाषिनी सुप्रा के मामले में दिए गए निर्णय पर विचार किया, जिसमें यह कहा गया है कि धारा 23 के तहत आवश्यक शर्त (1) वरिष्ठ नागरिक को बुनियादी सुविधाओं और बुनियादी भौतिक जरूरतों के प्रावधान को स्थानांतरण के दस्तावेजों में स्पष्ट रूप लिखा जाना जरूरी है, जो स्थानांतरण केवल गिफ्ट के रूप में हो सकता है या जो गिफ्ट की तरह या इसी तरह के एक समान मुफ्त हस्तांतरण का हिस्सा हो सकता है। कोर्ट ने आगे कहा कि मौजूदा मामले में यह निर्दिष्ट करने वाली कोई शर्त नहीं है कि हस्तांतरी (Transferee) को हस्तांतरणकर्ता (प्रतिवादी नंबर 2 को) को बुनियादी सुविधाएं और भौतिक आवश्यकताएं प्रदान करनी होंगी। कोर्ट ने इसके अलावा यह कहा कि यदि यह माना जाता है कि अधिनियम की धारा 23 में संदर्भित शर्त को हस्तांतरी (Transferee) के आचरण के आधार पर समझा जाना है, न कि ट्रांसफर डीड में विशिष्ट शर्तों के संदर्भ में। अधिनियम की धारा 23 में उल्लिखित शर्त केवल ट्रांसफर डीड के निष्पादन से पहले और बाद में हस्तांतरी के आचरण के रूप में और इस तरह की चुनौती के आधार पर कि ट्रांसफर डीड में वादन का कोई संदर्भ नहीं है, कोई परिणाम नहीं है। कोर्ट ने कहा कि एक पल के लिए भी अधिनियम की धारा 23 में निर्दिष्ट शर्त के अभाव में यह निहित है कि हस्तांतरणकर्ता अधिनियम के उद्देश्य और योजना के मद्देनजर हस्तांतरणकर्ता को बुनियादी सुविधाएं और भौतिक आवश्यकताएं प्रदान करने के लिए बाध्य है, रक्षा देवी के मामले में दिए गए निर्णय मामले के तथ्यों पर लागू नहीं है, क्योंकि याचिकाकर्ताओं के पक्ष में संपत्ति का ट्रांसफर स्वाभाविक प्रेम और स्नेह से नहीं बल्कि विचार के लिए है और प्रतिवादी संख्या 2 ने रसीद को स्वीकार कर लिया है और इसलिए जारी डीड को शून्य घोषित करने के लिए प्रतिवादी संख्या 2 अधिनियम की धारा 23 के तहत क्षेत्राधिकार का उपयोग नहीं कर सकता है। कोर्ट ने 26 जून, 2020 के आदेश और प्रतिवादी 2 द्वारा अधिनियम की धारा 6 के तहत दायर दावा याचिका को रद्द कर दिया।