Thursday, 9 April 2020

सुप्रीम कोर्ट ने जरूरी मामलों की मेंशनिंग और लिस्टिंग को लेकर AOR के लिए हेल्पलाइन शुरू की, वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मामलों की तत्काल सुनवाई के लिए मानक संचालन प्रक्रिया तय की गई


सुप्रीम कोर्ट ने जरूरी मामलों की मेंशनिंग और लिस्टिंग को लेकर AOR के लिए हेल्पलाइन शुरू की,   वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मामलों की तत्काल सुनवाई के लिए मानक संचालन प्रक्रिया तय की गई
 सुप्रीम कोर्ट के सेकेट्ररी जनरल ने एक सर्कुलर जारी किया है, जिसमें जरूरी मामलों को मेंशनग करने और सूचीबद्ध करने के लिए एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड ( AOR) की सहायता के लिए एक हेल्पलाइन की स्थापना की गई है। 23 मार्च, 2020 और 26 मार्च, 2020 को जारी किए गए सर्कुलर जिसमें वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मामलों की तत्काल सुनवाई के लिए मानक संचालन प्रक्रिया तय की गई, ये उसी का अनुपूरक है और ये हेल्पलाइन पक्षकारों / पार्टी-इन-पर्सन के संबंध में पेश होने वाले AOR के प्रश्नों का उत्तर देगी जिसमें अत्यंत आवश्यक मामलों का उल्लेख करने और सूचीबद्ध करने और ऐसे मामले जिनका उल्लेख पहले ही mention.sc@sci.nic.in पर मेल के माध्यम से किया गया है, शामिल हैं। इसके लिए दो नंबर दिए गए हैं: 011-23381463 और 011-23111428 सप्ताह के दिनों (सोमवार से शुक्रवार) को सुबह 10.00 बजे से शाम 5.00 बजे के बीच और शनिवार सुबह 10.00 बजे से दोपहर 1.30 बजे तक इन नंबरों का उपयोग किया जा सकता है। छुट्टियों और रविवार को हेल्पलाइन काम नहीं करेगी। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ( SCORA) ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में एक अभ्यावेदन प्रस्तुत किया था जिसमें अनुरोध किया गया था कि ये कदम तत्काल और आकस्मिक आधार पर उठाए जाने चाहिएं ताकि वर्तमान स्थिति यानी COVID-19 के प्रसार और सोशल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता के चलते अदालत की प्रभावी रूप से सहायता करने के लिए वकीलों / पार्टी-इन-पर्सन को सक्षम बनाया जा सके। 


यदि उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में स्पष्ट अवैधता हुई है तो एस्टोपेल का सिद्धांत लागू नहीं होता : सुप्रीम कोर्ट


यदि उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में स्पष्ट अवैधता हुई है तो एस्टोपेल का सिद्धांत लागू नहीं होता : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि जब परीक्षा के लिए उम्मीदवारों को चयन की प्रक्रिया में स्पष्ट अवैधता हुई है तो इस आचरण या अधिग्रहण से एस्टोपेल यानी प्रतिबंध के सिद्धांत का कोई अनुप्रयोग नहीं होगा। इसके साथ ही जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नवीन सिन्हा की पीठ ने हाईकोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर ( PTI ) के पद के लिए चयन प्रक्रिया को रद्द कर दिया गया था। न्यायालय ने कहा कि एक उम्मीदवार, जो चयनित होने के लिए कोई गणना किए बिना डेमो में भाग लेता है, को चयनित नहीं किया जा सकता और वो चयन के मानदंडों को चुनौती नहीं दे सकता जब चयन समिति का संविधान अच्छी तरह से तय हो गया हो तो। राज कुमार और अन्य बनाम शक्ति राज और अन्य, (1997) 9 SCC 527 और बिष्णु बिस्वास और अन्य भारत संघ और अन्य, (2014) 5 SCC 774, में पहले के निर्णयों का जिक्र करते हुए कोर्ट ने मामले के तथ्यों में कहा: " जब उम्मीदवार चयन के मानदंडों से अवगत नहीं होता है जिसके तहत वह प्रक्रिया में था और पहली बार उक्त मानदंड 10.04.2010 को अंतिम परिणाम के साथ प्रकाशित किया गया था, तो उसे चयन के मानदंडों और पूरी चयन की प्रक्रिया को चुनौती देने से रोका नहीं जा सकता है। आगे जब अधिसूचित लिखित परीक्षा को पहले ही रद्द कर दिया गया था और प्रत्येक योग्य उम्मीदवार को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था, जो साक्षात्कार के लिए उम्मीदवारों को शॉर्टलिस्ट करने के लिए निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया को धता बताते हुए किया गया था, वह भी केवल आयोग के अध्यक्ष द्वारा जबकि चयन के मानदंडों के बारे में निर्णय आयोग द्वारा लिया जाना था, तो उम्मीदवारों को पूरी चयन प्रक्रिया को चुनौती देने का पूरा अधिकार है।" उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच अपने निष्कर्ष में सही है कि चयन मानदंड, जिसमें चयन परिणाम की घोषणा जिस दिन की गई और जब प्रकाशित हुई, असफल उम्मीदवारों द्वारा इसके बाद की चुनौती दी जा सकती है। इसी प्रकार, चयन प्रक्रिया जिसे अधिसूचित नहीं किया गया था और जिस चयन मानदंड का पालन किया गया था, उसे अंतिम परिणाम घोषित होने तक कभी अधिसूचित नहीं किया गया था, इसलिए, याचिकाकर्ताओं को चयन प्रक्रिया को चुनौती देने से रोका नहीं जा सकता है। इस प्रकार, हम मानते हैं कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर रिट याचिकाएं एस्ट्रोपेल के आधार पर नहीं फेंकी जा सकती हैं और रिट याचिकाकर्ता आयोग द्वारा लागू चयन के मानदंडों को बहुत अच्छी तरह से चुनौती दे सकते हैं, जो उस समय केवल आयोग द्वारा अंतिम परिणाम के तहत घोषित किया गया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्य में पद पर चयन और नियुक्ति को अनुच्छेद 14 और 16 के तहत नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए। पीठ ने कहा : राज्य प्रतिष्ठान में सृजित पद पर चयन और नियुक्ति सार्वजनिक रोजगार के नागरिकों को एक अवसर प्रदान करती है। राज्य के उद्देश्यों और नीतियों को पूरा करने के अलावा राज्य में नागरिक पदों पर काम करने वाले कार्मिक भी अपने परिवारों के लिए जीविका के स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। राज्य में पद पर चयन और नियुक्ति को अनुच्छेद 14 और 16 के तहत नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए। किसी व्यक्ति को सार्वजनिक सेवा में चयन करने के लिए राज्य का उद्देश्य हमेशा सबसे अच्छा और सबसे उपयुक्त व्यक्ति का चयन करना होना चाहिए।

Tuesday, 7 April 2020

General category में आवेदन करने वाला SC/ST उम्मीदवार Reservation benefits का हकदार नहीं

General category में आवेदन करने वाला SC/ST उम्मीदवार Reservation benefits का हकदार नहीं

Publish Date:Tue, 07 Apr 2020 

Monday, 6 April 2020

हाईकोर्ट अपने क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल उसी राज्य में कर सकता है जिसका वो हाईकोर्ट है : सुप्रीम कोर्ट


हाईकोर्ट अपने क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल उसी राज्य में कर सकता है जिसका वो हाईकोर्ट है : सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार उस राज्य के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र तक सीमित है, जिसका वह उच्च न्यायालय है। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ भारत संघ द्वारा दायर अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें उसने (सेवा के एक मामले में) एक निर्देश जारी किया था, जिसका प्रभाव देशभर में होना खा। उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने एक NDRF कर्मचारी द्वारा दायर रिट याचिका की अनुमति देते हुए न केवल प्रतिनियुक्ति भत्ता दिया, बल्कि प्रतिवादी को विशेष भत्ता भी दिया। डिवीजन बेंच ने आंशिक रूप से भारत संघ की अपील की अनुमति दी और माना कि याचिकाकर्ता केवल प्रतिनियुक्ति भत्ते का हकदार था। हालांकि, डिवीजन बेंच ने आगे कहा कि न केवल प्रतिवादी बल्कि NDRF के अन्य सभी कर्मियों को 19.01.2006 से 13.01.2013 तक अन्य बलों से लाए गए कर्मी भी प्रतिनियुक्ति भत्ते के हकदार होंगे और केंद्र सरकार को निर्देशित किया गया था कि यह सुनिश्चित करें कि इस राशि का भुगतान छह महीने की अधिकतम अवधि के भीतर किया जाए। भारत सरकार की ओर से उठाए गए विवाद का कारण यह था कि बिना किसी अधिकार क्षेत्र या प्रार्थना के उच्च न्यायालय ने गलत निर्देश दिया कि सभी कर्मचारियों को इस तरह की राहत दी जाए और वह भी 2006 से। "उच्च न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का केवल राज्य (यों) पर प्रयोग कर सकता है, जिसमें वह उच्च न्यायालय है। देश के बाकी हिस्सों के लिए इसका कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। वर्तमान जैसे मामले देश के विभिन्न हिस्सों में लंबित हो सकते हैं। ऐसा ही मामला दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया था, लेकिन कुछ अन्य उच्च न्यायालय अलग दृष्टिकोण ले सकते हैं या नहीं ले सकते हैं। मद्रास के उच्च न्यायालय को ऐसा कोई आदेश पारित नहीं करना चाहिए था। इससे देश के अन्य उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में वस्तुतः प्रभाव पड़ा है। यह सच है कि कभी-कभी इस न्यायालय ने ऐसा आदेश दिया है कि सभी समान रूप से स्थित कर्मचारियों को समान राहत दी जा सकती है, लेकिन उच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का उपयोग करने का लाभ नहीं है। किसी भी स्थिति में, यह न्यायालय पूरे देश के क्षेत्र पर अधिकार क्षेत्र का उपयोग करता है। जबकि उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार राज्य के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र तक सीमित है, जिसमें यह उच्च न्यायालय है। उच्च न्यायालय ऐसे आदेश को पारित करने में न्यायोचित हो सकता है जब केवल राज्य के कर्मचारी जो इसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं, प्रभावित हो। लेकिन, हमारी राय में, यह ऐसे कर्मचारियों के मामले में ऐसा कोई आदेश पारित नहीं कर सकता है जिसमें देशभर के कर्मियों के नतीजे शामिल होंगे। " अपील का निपटारा करते हुए, अदालत ने कहा कि प्रतिनियुक्ति एक विभाग / कैडर / संगठन के एक कर्मचारी को दूसरे विभाग / कैडर / संगठन में सार्वजनिक हित में नियुक्त करने की परिकल्पना करती है। इसमें कहा गया है कि सामान्य रूप से प्रतिनियुक्ति में कर्मचारी की सहमति भी शामिल होती है। प्रतिनियुक्ति के मामले में सेवाओं के हस्तांतरण पर, कर्मचारी के संबंध में नियंत्रण यह भी निर्धारित करेगा कि ऐसा कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर था या नहीं, न्यायालय ने यह निर्देश देते हुए कि कर्मचारी को प्रतिनियुक्ति भत्ते का 11.09.2009 से 07.10. 2011 तक भुगतान किया जाएगा जब उन्हें से मुक्त कर दिया गया था। 

हिंदू अविभाजित परिवार की प्रॉपर्टी को संयुक्त संपत्ति साबित करने का दायित्व दावेदार पर: सुप्रीम कोर्ट

हिंदू अविभाजित परिवार की प्रॉपर्टी को संयुक्त संपत्ति साबित करने का दायित्व दावेदार पर: सुप्रीम कोर्ट 


 "केवल संयुक्त कारोबार होने के आधार पर ही यह नहीं माना जा सकता कि वह संयुक्त परिवार है" सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति को संयुक्त संपत्ति साबित करने का दायित्व उस व्यक्ति पर है जो ऐसा दावा करता है। न्यायमूर्ति नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने बंटवारे के एक मुकदमे से उत्पन्न अपील पर विचार करते हुए कहा कि संयुक्त परिवार के अस्तित्व में बने रहने का दावा करने वाले व्यक्ति को ना केवल परिवार के संयुक्त होने की सत्यता को प्रमाणित करना होता है, बल्कि उसके ऊपर यह साबित करने का भी दायित्व होता है कि संबंधित प्रॉपर्टी संयुक्त परिवार की संपत्ति है, जब तक कि यह साबित करने के लिए कोई और दस्तावेज रिकॉर्ड पर ना हो कि संबंधित संपत्ति संयुक्त परिवार की है या सम्मिलित कमाई से खरीदी गई है। कोर्ट ने संबंधित मुकदमे का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें यह दलील कदापि नहीं है कि संबंधित परिवार हिंदू अविभाजित परिवार था और ना ही यह आरोप है कि परिवार के पास कोई संयुक्त प्रॉपर्टी थी। खंडपीठ ने 'अपालास्वामी बनाम सूर्यनारायणमूर्ति' मामले में प्रिवी काउंसिल के फैसले तथा 'श्रीनिवास कृष्णराव कांगो बनाम नारायण देवजी कांगो' तथा 'डी एस लक्ष्मणैया एवं अन्य बनाम एल. बालासुब्रमण्यम एवं अन्य' के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के फैसलों का भी उल्लेख किया। बेंच ने 'डीएस लक्ष्मणैया' मामले में दिये गये निम्नलिखित टिप्पणियों का उल्लेख किया :- "इसलिए कानूनी सिद्धांत यह है कि केवल संयुक्त हिंदू परिवार मौजूद होने के आधार पर कोई प्रॉपर्टी संयुक्त परिवार की प्रॉपर्टी नहीं मानी जा सकती। अव्वल तो जो इस प्रकार का दावा करता है उसे यह साबित करना होगा कि प्रॉपर्टी संयुक्त परिवार की संपत्ति है। यदि दावा करने वाला व्यक्ति यह साबित करने में सफल होता है कि विवादित संपत्ति संयुक्त परिवार की कमाई से अर्जित की गई थी तो उसे संयुक्त परिवार की संपत्ति मान ली जाएगी, लेकिन ऐसी स्थिति में तब यह साबित करने का दायित्व दूसरे पक्ष पर चला जाता है कि कथित संपत्ति उसकी खुद के पैसों से खरीदी गयी थी, न कि संयुक्त परिवार की सम्मिलित कमाई से।" बेंच ने रिकॉर्ड में लाये गए दस्तावेजों के आधार पर कहा कि इस बात का कोई सबूत रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं है कि विवादित प्रॉपर्टी हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह संयुक्त परिवार की प्रॉपर्टी हो सकती है, लेकिन केवल बंधकपत्र में प्रॉपर्टी का जिक्र किए जाने के आधार पर इसे संयुक्त परिवार की प्रॉपर्टी नहीं कही जा सकती। कोर्ट ने यह भी कहा कि केवल कारोबार संयुक्त रूप से होने के आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि कि संबंधित परिवार संयुक्त परिवार है। केस नं. सिविल अपील संख्या 6875/2008 केस का नाम : भगवत शरण बनाम पुरुषोत्तम कोरम : न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता वकील : सीनियर एडवोकेट सुशील कुमार जैन एवं हरीन पी रावल वकील : सीनियर एडवोकेट गुरु कृष्ण कुमार, विकास सिंह एवं अनुपम लाल दास 

Friday, 3 April 2020

कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कंपनी: महामारी के दौर का एक ऐतिहासिक फैसला


कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कंपनी: महामारी के दौर का एक ऐतिहासिक फैसला 

 नदीम कोट्टाल‌ा‌थ जब भी महामारियों फैलती हैं, ऐसी प्लेसिबो और नकली दवाएं की बाढ़ आ जाती है, जिनका दावा होता है कि वो बीमारी का इलाज कर सकती हैं। कई ऐसे लोग होते हैं, जिनकी कोश‌िश रहती है कि ऐसी बीमारियों के इलाज में स्‍‌थाप‌ित औषधीय प्रणाली की व‌िफलता का फायदा उठाकर समाज के सीधे-सादे लोगों को जादुई इलाज का लालच देकर तुरंत पैसे कमा लें। इंग्लैंड में फैली इन्फ्लूएंजा महामारी के दिनों में एक कंपनी ने ऐसी ही को‌शिश की थी, जिसके बाद अनुबंध कानून और उपभोक्ता अधिकारों के मामले में एक ऐतिहासिक निर्णय, कार्लिल बनाम कार्बोलिक स्मोक बॉल कंपनी (1892) , का जन्म हुआ। यह घटना उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक की है। पूरी दुनिया में इन्फ्लुएंजा फैला था। उस समय 10 लाख लोग वायरस का श‌िकार हुए थे। लंदन में स्थित एक फार्मास्युटिकल कंपनी कार्बोलिक स्मोक बॉल कंपनी ने महामारी के प्रकोप से पैदा हुई मेडिकल इमर्जेंसी को भुनाने के लिहाज से एक स्मोक बॉल लांच किया। कंपनी का दावा ‌था कि यह उत्पाद इन्फ्लूएंजा का इलाज कर सकता है। स्मोक बॉल कार्बोलिक एसिड से भरा एक इन्हेलर था। दावा किया गया कि जो भी व्यक्ति स्मोक बॉल का उपयोग करता है, उसे इन्फ्लूएंजा नहीं होगा। कंपनी ने अखबारों में विज्ञापन दिया कि अगर किसी व्यक्ति को दो हफ्ते तक दिन में तीन बार स्मोक बॉल का इस्तेमाल करने के बाद भी फ्लू होता है तो उसे £100 का इनाम दिया जाएगा, और इस मद में एलायंस बैंक में £1000 जमा किए गए। लंदन की एक महिला लुइसा एलिजाबेथ ने विज्ञापन देखा ओर एक स्मोक बॉल खरीदी। उन्होंने कंपनी के निर्देशों के अनुसार ही इस्तेमाल किया। फिर भी उन्हें इन्फ्लूएंजा हो गया। जिसके बाद उन्होंने मुआवजे का दावा किया, हालांकि कंपनी ने मुआवजे देने से इनकार कर दिया। लुइसा एलिजाबेथ ने कंपनी के खिलाफ मुकदमा दायर किया। कोर्ट में कंपनी का प्रतिनिधित्व लंदन के बैरिस्टर एचएच अस्‍क्व‌िथ ने किया। उन्होंने अपनी दलीलों से अनुबंध कानून की पेचीदगियों को समझाया। उन्होंने तर्क दिया कि कंपनी की ओर से किसी प्रस्ताव के अभाव में और श्रीमती एलिजाबेथ द्वारा उसे स्वीकार किए जाने के बाद, दोनों पक्षों के बीच कोई वैध अनुबंध नहीं था। उन्होंने तर्क दिया कि कंपनी का विज्ञापन एक दांव था, कंपनी का श्रीमती एलिजाबेथ के साथ किसी संविदात्मक संबंध का इरादा नहीं था। हालांकि कोर्ट ने अस्‍क्‍विथ के तर्कों को स्वीकार नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि कंपनी का विज्ञापन वैध प्रस्ताव ‌था और श्रीमती एलिजाबेथ ने, ‌विज्ञापन के परीणामस्वरूप, स्मोक बॉल खरीदकर उक्त प्रस्ताव को स्वीकार किया था। कोर्ट ने कहा कि कंपनी ने बैंक में £ 1000 की राशि जमाकर अनुबंधात्मक संबंध में प्रवेश करने के इरादे का संकेत भी दिया था। ऐतिहास‌िक फैसले में कोर्ट ने श्रीमती एलिजाबेथ को मुआवजा देने का आदेशा दिया था। अपीलीय न्यायलय के तीन जजों- लॉर्ड जस्टिस लिंडले, लॉर्ड जस्टिस बोवेन और लॉर्ड जस्टिस एएल स्मिथ के फैसले के प्रमुख बिंदु निम्न हैं- -प्रस्ताव लागू करने के लिहाज से अस्पष्ट नहीं था। -कंपनी ने बैंक में £ 1000 जमा कर संविदात्मक संबंध बनाने के अपने इरादे का संकेत दिया था। -कंपनी पेशकश पूरी दुनिया के लिए थी, हालांकि अनुबंध उसी व्‍यक्ति के साथ होना था, जिसने उत्पाद खरीदा था। -प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना देना आवश्यक नहीं था; उत्पाद का प्रदर्शन और आचरण स्वीकृति की सूचना देने के बराबर है। -वादी ‌को उत्पाद का उपयोग करने पर असुविधा हुई, जबकि कंपनी को अतिरिक्त बिक्री का लाभ मिला। लॉर्ड बोवेन ने कहा, "अगर मैं किसी व्यक्ति से कहता हूं, यदि आप एक सप्ताह के लिए इस दवा का उपयोग करें हैं तो मैं आपको 5l दे दूंगा, और वह इसका उपयोग करता है तो यह वादे के लिए पर्याप्त विचार है।" लॉर्ड बोवेन ने अपने फैसले में आगे कहा, "अगर मैं विज्ञापन देता हूं कि मेरा कुत्ता खो गया है, और जो भी कुत्ते को खोज कर लाता है, उसे पैसे दिए जाएंगे, तो क्या पुलिस या अन्य वे सभी व्यक्ति, जिनका काम खोए हुए कुत्तों को खोजना है, वो मुझसे नहीं कहेंगे कि उन्होंने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है? क्यों? निश्चित रूप से, जैसे ही वो कुत्ते को खोज लेंगे, विज्ञापन की शर्त पूरी हो जाएगा। सार यह है कि कुत्ते को खोजा जाना चाहिए और ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक नहीं है, जैसा कि मुझे लगता है, अनुबंध को बाध्यकारी बनाने के लिए स्वीकृति की कोई अधिसूचना दी जानी चाहिए। यह इस बात का अनुसरण है कि शर्त को पूरा करना, अधिसूचना के बिना, पर्याप्त स्वीकृति है। एक व्यक्ति जो विज्ञापन में कोई शर्त रखता है, उसे आम समझ के अनुसार ही समझा जाएगा। इसलिए, वह अपने प्रस्ताव में निहित रूप से संकेत देता है कि उसे प्रस्ताव की स्वीकृति आवश्यकता नहीं है।" लॉर्ड स्‍मिथ ने कहा कि विज्ञापन में एक प्रस्ताव दिया गया था, जिस पर अमल किया जाना था। जब अमल किया गया है, तब शर्तों के अनुसार भुगतान किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा यदि दुनिया के लिए कोई प्रस्ताव है, जिसमें कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदर्शन की अधिसूचना की आवश्यकता नहीं है, तो प्रस्ताव में निर्दिष्ट शर्त का प्रदर्शन की स्वीकृति माना जाएगा। कोर्ट ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि विज्ञापन में दिया गया प्रस्ताव एक 'दांव' था। इस फैसले ने एक मिसाल कायम की थी कि एकतरफा पेशकश भी बाध्यकारी अनुबंध का कारण बन सकती है। अभी भी दुनिया भर में कानून के विद्यार्थ‌ियों को अनुबंध कानून की अनिवार्यता को समझाने के लिए एक संदर्भ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस फैसले से न केवल उपभोक्ता आंदोलन के इतिहास का पता लगाया जा सकता है, बल्‍कि इस मामले ने पहली बार उत्पाद के न्यूनतम गुणवत्ता मानक के लिए निर्माताओं की देयता भी तय की थी। यह मामला इतिहास में अनुबंध कानून के न्यायशास्त्र में योगदान के लिए जाना जाता है। साथ ही यह मामला उस वकील के लिए भी, जाना जाता है, जिसने कंपनी का प्रतिनिधित्व किया था। दरअसल, मामले के तुरंत बाद, एचएच अस्क्विथ ने वकालत छोड़कर राजनीतिज्ञ बन गए थे। बाद में वह यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री बने और आठ साल तक ब्रिटिश साम्राज्य का नेतृत्व किया। (लेखक कालीकट, केरल में वकील हैं)

TADA केस में सह-आरोपी के खिलाफ क़बूलनामा संयुक्त ट्रायल के अभाव में अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट

*TADA केस में सह-आरोपी के खिलाफ क़बूलनामा संयुक्त ट्रायल के अभाव में अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट*

 सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिए गए अपने फैसले में आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियों (रोकथाम) अधिनियम, 1987 के तहत क़बूलनामा यानी स्वीकारोक्ति की स्वीकार्यता के बारे में कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं हैं। धारा 15 के दायरे के संबंध में न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि यदि किसी कारण से, एक संयुक्त ट्रायल नहीं होता है, तो सह-अभियुक्त की स्वीकारोक्ति को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।अन्य आरोपी के खिलाफ सबूत मिलेंगे तो उसी मामले में अन्य आरोपी पर बाद में मुकदमा चलेगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि रिकॉर्ड पर पूरी कार्यवाही आरोपी से पूछे गए सवालों और जवाबों सहित विभिन्न परिस्थितियों पर विवेक के प्रयोग को प्रतिबिंबित करना चाहिए। पीठ ने कहा कि स्वीकारोक्ति की स्वैच्छिकता के बारे में वास्तविक संतुष्टि गैर-स्वीकार योग्य है। न्यायालय ने टाडा के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए निम्नलिखित टिप्पणियां कीं। सह-अभियुक्त की स्वीकारोक्ति यदि कोई संयुक्त ट्रायल नहीं था अदालत ने उल्लेख किया कि टाडा अधिनियम की धारा 15 विशेष रूप से प्रदान करती है कि दर्ज की गई स्वीकारोक्ति अपराध के लिए एक सह-अभियुक्त के ट्रायल में स्वीकार्य होगी और एक ही मामले में अभियुक्त के साथ मिलकर उसका मुकदमा चलाने की कोशिश की जाएगी। पीठ ने यह कहा: "तत्काल मामले में, कोई संदेह नहीं है, अपीलकर्ता फरार था। यही कारण है कि, अन्य दो आरोपी व्यक्तियों के साथ अपीलकर्ता का संयुक्त ट्रायल नहीं किया जा सका। जैसा कि ऊपर देखा गया है, टाडा अधिनियम की धारा 15 विशेष रूप से प्रदान करती है कि दर्ज की गई स्वीकारोक्ति किए गए अपराध के लिए मुकदमे में स्वीकार्य हो सकती है जिसमें सह आरोपी के खिलाफ भी उस अभियुक्त के साथ एक ही मामले में मुकदमा चलाया जाता है जो स्वीकारोक्ति करता है। टाडा अधिनियम का नियम 15 विशेष रूप से प्रदान करता है कि अपराध के लिए दर्ज की गई स्वीकारोक्ति सह आरोपी के ट्रायल में स्वीकार्य होगी जब एक ही मामले में उस अभियुक्त के साथ ही ट्रायल चलाया जाता है जो स्वीकारोक्ति करता है। हमारा विचार है कि यदि किसी भी कारण से, एक संयुक्त ट्रायल नहीं किया जाता है, तो एक सह-अभियुक्त की स्वीकारोक्ति को अन्य अभियुक्तों के खिलाफ साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है और उसे उसी मामले में बाद के समय में मुकदमे का सामना करना होगा। हम आगे इस विचार से हैं कि अगर हम प्रतिवादी राज्य के लिए पेश वकील के तर्क को स्वीकार करते हैं, तो यह वैसा ही होगा जैसे TADA अधिनियम की धारा 15 का दायरा वर्ष 1993 में संशोधित किया गया। " स्वीकारोक्ति पर टाडा नियमों का अनुपालन खाली एक औपचारिकता नहीं है।न्यायालय ने यह भी कहा कि मामले के तथ्यों में, स्वीकारोक्ति पर टाडा नियमों का अनुपालन खाली एक औपचारिकता नहीं है। पीठ ने यह कहा: "यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि इन नियमों का अनुपालन खाली एक औपचारिकता या तकनीकी मात्र नहीं है क्योंकि ये प्रावधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी के अनुसार रिकॉर्ड पर पूरी कार्यवाही व निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए एक सांविधिक उद्देश्य प्रदान करते हैं। अभियुक्तों से संबंधित प्रश्नों और उत्तरों सहित विभिन्न आसपास की परिस्थितियों पर विवेक के आवेदन को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए।" प्रमाण पत्र में रिकॉर्डिंग केवल नियम के तकनीकी पालन के लिए नहीं बल्कि यह कबूलनामे की स्वैच्छिकता साबित करने के लिए होनी चाहिए। कानून में, यह तकनीकी नहीं हो सकती। यह स्वीकारोक्ति की स्वैच्छिकता के बारे में वास्तविक संतुष्टि है, जो गैर-स्वीकार योग्य है। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि पुलिस अधिकारी द्वारा दर्ज की गई स्वीकारोक्ति निस्संदेह न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा Cr.PC की धारा 164 के तहत दर्ज किए गए क़बूलनामे के समान है। इस प्रकार, उक्त कबूलनामा सबूत का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा है। इसलिए, सभी सुरक्षा उपाय सामान्यत: मजिस्ट्रेट द्वारा कबूलनामे को लिखने में अपनाए जाते हैं उनका पुलिस अधिकारी द्वारा भी पालन किया जाना चाहिए। यह अच्छी तरह से तय है कि मजिस्ट्रेट ने Cr.PC की धारा 164 के तहत संतोष प्राप्त किया। अगर, ये संदिग्ध है, तो, पूरे कबूलनामे को खारिज कर दिया जाना चाहिए। वर्तमान मामले में, यह स्पष्ट है कि पीडब्लू 28 द्वारा पूछे गए सवालों में से और जवाबों से संबंधित और जिस तरीके से आरोपी ने बयान दिया है वह इसकी नींव हैं जिस पर यह पता लगाना है कि क्या कथन स्वेच्छा से बनाया गया है या नहीं। यदि प्रमाण पत्र उपरोक्त किसी भी इनपुट द्वारा समर्थित नहीं है, तो प्रमाणपत्र को अस्वीकार करने की आवश्यकता है। पुलिस अधिकारी अपनी कल्पना से बाहर इस तरह के प्रमाण पत्र को रिकॉर्ड नहीं कर सकता है और पूरी कार्यवाही को प्रतिबिंबित करना चाहिए कि प्रमाण पत्र सामग्री के आधार पर दिया गया था। वर्तमान मामले में, बयान की स्वेच्छा को साबित करने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है। सामग्री डी 1 और डी 2 और अन्य परिस्थितियां यह बता रही हैं कि अपीलकर्ता स्वेच्छा से बयान नहीं दे सकता था।इसलिए, अपीलकर्ता के स्वीकारोक्ति बयान को अस्वीकार करने की आवश्यकता है।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/tada-confession-of-co-accused-inadmissible-against-another-accused-if-they-were-tried-separately-sc-read-judgment-154712